बिहार के बारे में अक्सर कहा जाता है कि राजनीतिक रूप से जागरूक होने के बावजूद पिछड़ा हुआ है। मेरा मानना है कि बिहार के सभी राजनीतिक दल एक से हैं। राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव चूंकि दूसरी पीढ़ी के नेता हैं और दो-दो मुख्यमंत्रियों के पुत्र हैं इसलिए इनसे उम्मीद की जा सकती है या बिना आजमाए कुछ कहना ठीक नहीं है। पर बिहार का पिछड़ापन उसके नालायक या स्वार्थी नेताओं के कारण ही है। नेताओं की नालायकी के कई उदाहरण हैं।
केंद्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद ताली थाली बजाने और बजवाने का समर्थन करने वाले नेतागण अक्सर अपने राजनीतिक कौशल और समर्पण का परिचय देते रहे हैं। इस क्रम में बिहार में विपक्ष के नेता, भाजपा के स्तंभ और मुख्यमंत्री पद के चिरपरिचित दावेदार, सुशील मोदी ने आज अपना परिचय दिया। उनसे संबंधित यह खबर आज खूब चर्चा में है।
आप जानते हैं कि पिछले बिहार विधानसभा चुनाव के समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मुकाबला लालू यादव से था और उन्होंने अच्छी टक्कर दी थी। तब नीतीश कुमार लालू यादव के साथ थे, भाजपा के खिलाफ। तब नीतीश के नेतृत्व में जनता दल को 71 सीटें मिली थीं और लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल को 80। भाजपा को 53 सीटें मिली थीं। और दोनों जनतादलों की सरकार बनी थी। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने।
कोई डेढ़ साल बाद केंद्र की भाजपा सरकार ने लालू के खिलाफ मोर्चा खोला, मामला दर्ज कराया, नीतीश कुमार की अंतरात्मा जागी और रातों-रात उन्होंने पलटी मारी, सरकार बदल गई। जनता दल का रंग बदल गया। उस चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने बड़े नाटकीय अंदाज में बिहार को एक लाख 25 हजार करोड़ रुपए का पैकेज देने की घोषणा की थी। इसके बावजूद उन्हें बहुमत नहीं मिला और सरकार नहीं बनी।
सरकार कैसे बनी आप जानते हैं और पांच साल में दूसरा बड़ा राजनीतिक काम हुआ कि लालू यादव जेल में हैं। ऐसे में भाजपा या प्रधानमंत्री से सवा लाख करोड़ के पैकेज के बारे में पूछना बनता है। जब बिहार में भाजपा हार गई थी तो पैकेज भले नहीं मिलता पर जिस ढंग से भाजपा ने पूरी पार्टी को खरीद कर सरकार बनाई उसमें सवा लाख करोड़ का पैकेज कहां गया कौन पूछता और कौन नहीं समझता है।
बिहार के लिए पैकेज जिसे मांगना और लेना था वे अपराध में शामिल थे। जिन्हें विरोध करना था वह पहले ही सत्ता की ताकत से लड़ रहा था, जेल और जेल का डर झेल रहा था। जनादेश की धज्जियां उड़ाई जा चुकी थीं। ऐसे में वह सवाल रह गया। पर मेरे जैसे लोग पूछते रहे। और भक्तगण चिढ़ते रहे। अब चुनाव में जनता पूछ रही है और सुशील मोदी जवाब देने की बजाय 1989 की घोषणा की बात कर रहे हैं। 2015 भूल गए 1989 याद है। वैसे ही जैसे गुजरात का दंगा भूल जाते हैं 1984 का दंगा याद रहता है।
भूलने में ये भी भूल गए कि राजीव गांधी अब इस दुनिया में नहीं हैं और प्रधानमंत्री के साथ ऐसी बात नहीं है। इससे भी दिलचस्प यह है कि 1989 के चुनाव में राजीव गांधी ने भले किसी पैकेज की घोषणा की हो, चुनाव के बाद वे प्रधानमंत्री नहीं बने। घोषणा विधानसभा चुनाव में नहीं, लोकसभा चुनाव में की गई थी यह सुशील मोदी को याद है। राजीव गांधी घोषणा के बाद प्रधानमंत्री बने ही नहीं। यह भी सुशील मोदी को याद नहीं है। ऐसे में सुशील मोदी का यह सवाल तथ्यों से खिलवाड़ ही नहीं उनकी और भाजपा की बेशर्म राजनीति का भी नमूना है।
अगर 2015 का पैकेज खर्च हो रहा है तो 1989 का भी खर्च हुआ होगा या राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने ही नहीं तो आया ही नहीं होगा – दोनों स्थिति में सवाल का कोई मतलब नहीं है और जवाब में यह कहना कि सामान्य काम पैकेज से हो रहा है और यह नहीं बताना कि कब तक होता रहेगा – जनता शायद यह सब नहीं समझती है। उसे मंदिर चाहिए या हिन्दू मुस्लिम से फुर्सत ही नहीं है।
1989 के लोक सभा चुनाव में भाजपा को 85 सीटें मिली थीं और कांग्रेस को 197 सीटें मिली थीं। जनता दल (तब एक ही था) 143 सीटें मिली थीं। चुनाव के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह और फिर एचडी देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल लगभग एक-एक साल प्रधानमंत्री रहे। तीन साल से भी कम में विपक्ष की हवा निकल गई और 1991 में फिर चुनाव घोषित हुए। इस चुनाव प्रचार के दौरान 21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या हो गई थी। तब वे प्रधानमंत्री नहीं थे।
सुशील मोदी भले न बताएं पर तथ्य यह है कि 1989 से पहले 1985 के बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 125 सीटें मिली थीं जो 1990 में कम होकर 71 रह गई थीं। 1995 में उसे सिर्फ 29 सीटें मिलीं 2000 में और कम होकर 23 रह गई। 2005 में झारखंड अलग होने के बाद 243 सीटों के लिए विधानसभा चुनाव हुए पर किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और दोबारा चुनाव कराना पड़ा। इसबार कांग्रेस सिर्फ 51 सीटों पर लड़ी और 9 सीटें ही जीत पाई। 2010 में 243 सीटों पर लड़कर भी चार सीटें ही जीत पाई लेकिन 2015 में 41 सीटों पर लड़कर भी 27 सीटें जीत गई।
आंकड़े बताते हैं कि 1989 की राजीव गांधी की घोषणा के बाद बिहार में कांग्रेस की लोकप्रियता कम हुई और 2010 तक होती रही लेकिन 2015 के चुनाव में (पैकेज की घोषणा के खास अंदाज के बाद) कांग्रेस की सीटें बढ़ गईं। सुशील मोदी बिहार की जनता को यह बताना तो नहीं चाहते हैं कि 1989 की घोषणा के बाद जो राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी का हुआ वह भाजपा के साथ क्यों नहीं किया जा रहा है? हो सकता है कि वे यह भी कह रहे हों कि कांग्रेस की तरह चुनाव हरा दो, सीटें कम कर दो पूछ क्यों रहे हो? मैं तो वैसे भी रेस्कूय कर लिया जाउंगा जैसे पटना डूबा था तो किया गया था।
सवाल यह उठता है कि अगर राजीव गांधी ने घोषणा की थी और अब उनके समर्थक नरेन्द्र मोदी के बचाव में यह तर्क दे रहे हैं तो क्या नरेन्द्र मोदी ने यही सोच कर घोषणा कर दी होगी और उसके बाद राजीव गांधी या उनकी पार्टी का जो हुआ उसे नहीं सोचा होगा या उसी को सोच कर सुशील मोदी कर रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि सुशील मोदी हताशा में ऐसी फालतू बातें कर रहे हैं। मैं उनकी आलोचना तथ्यों के आलोक में कर रहा हूं अगर यह उनकी हताशा है तो मेरी सहानुभूति उनके साथ है।
.लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सिद्ध अनुवादक हैं।