मशहूर इतिहासकार शाहिद अमीन अपनी किताब “इवेंट, मेटाफ़ोर और मेमोरी” की शुरुआत में लिखते हैं कि जो लोग लिख नहीं सकते (यानी कि जो लोग दस्तावेज़ लिखने से ज़्यादा अपने कामों में लगे रहते हैं ) जब उनका इतिहास लिखा जाता है तो इनका इतिहास लिखते वक़्त इतिहासकार हमेशा अभूतपूर्व या असाधारण घटनाओं को अपनी रिसर्च का आधार बना लेता है। और जब अभूतपूर्व घटनाओं का आधार बनाकर इतिहास लिखा जाता है तो रोज़मर्रा की वास्तविकता से जुड़े अनुभवों को दरकिनार कर सारी कहानी एक सीमित दायरे में समेट जाता है। ऐसा ही कुछ हाल है जाति के विमर्श के इतिहास का! या तो लिखने वाले की निगाहें ‘पूना पैक्ट’ पर टिक जाती हैं या मंडल आयोग के लागू होने पर अटक जाती हैं। पर जाति-उत्पीड़न किसी एक घटना या किसी एक नीति या किसी एक क़ानून तक सीमित नहीं है। जाति प्रथा हर दिन भेदभाव और असामानता की नई संभावनाओं की ज़मीन तैयार करती जाती।
हम जाति से ज़्यादा ‘आरक्षण’ पर वाद-विवाद करते हैं। जाति के दंश को कमज़ोर करने के लिए लाया गया था आरक्षण ताकि सदियों का संताप झेल रहे वंचित तबके को प्रतिनिधित्व मिल सके, समानता का विमर्श धार पा सके। निर्णय लेने में या अवसर पाने में जब तक जाति बाधा बनेगी तब तक जाति पर बात होती रहेगी और होती रहनी चाहिए। जाति व्यवस्था तो पाँच हज़ार साल से ज़्यादा पुरानी है पर जातिवाद की ज़ंजीरों से मुक्त होने का विमर्श तो बहुत नया है! तो क्यों थक रहा समाज इस जाति उन्मूलन के विमर्श से?
जब महाभारत में कर्ण और एकलव्य से सीखने का हक़ छीना जाता है, तब गुरु शिष्य के रिश्ते की अवहेलना होती है। इसी गुरु शिष्य के रिश्ते की अवहेलना का सिलसिला आज तक जारी है। यक़ीन करना मुश्किल है कि दिल्ली के दौलत कॉलेज की दलित तदर्श शिक्षिका डॉ.ऋतु सिंंह को इसलिए हटा दिया क्योंकि वे जाति के दंश पर मुखर थी। समानता के विमर्श को राष्ट्रनिर्माण के लिए ज़रूरी मान रही थीं जो कि डॉ.आम्बेडकर ने भी कहा था। लेकिन सांप्रदायिक प्रचार में जुटे शिक्षकों और छात्रों की ज़हरीली टोली के उत्पात में राष्ट्रवाद तलाश रहे प्रशासन को यह असहनीय हो उठा।
सुनिए हमारी असिसटेंट एडिटर सौम्या गुप्ता की डॉक्टर ऋतु सिंह और डॉक्टर लक्ष्मण यादव के साथ बातचीत। मंडल और पूना पैक्ट से आगे आम जीनव में होने वाले जातिउत्पीड़न की कहानी जिस पर कथित सवर्ण समाज में कोई जुंबिश नहीं होती। जिसे मीडिया संज्ञान लेने लायक़ भी नहीं समझता।