कमाल की बात ये है कि अग्निपथ योजना का विरोध शुरु होते ही तमाम राज्य सरकारें ”भाजपा शासित” और निजी क्षेत्र के कई कोरपोरेट इस योजना के समर्थन में ये कहते हुए सामने आने लगे कि जिन 75 प्रतिशत “अग्निवीरों” की छंटनी की जाएगी, उन्हें वे नौकरी देने के लिए तैयार हैं। अच्छी बात है कि देश के बेरोज़गारों की इतनी चिंता इन राज्य सरकारों और निजी क्षेत्र के पूंजीपतियों को हो रही है। ये अचानक इतने सारे हितचिंतक अग्निवीरों के निकल आए हैं, बस एक सेना ही है जो उन्हें कायम नहीं रखना चाहती है। सवाल ये उठता है कि आखिर अग्निवीरों को नौकरी देने को इत्ते आतुर ये सारे लोग, राज्य सरकारें अब तक कौन चीज़ का इंतजार कर रही थीं, असम पुलिस में जो पोस्ट अब तक खाली पड़ी हैं, उन पर भर्ती क्यों नहीं हुई। सरकारें लगातार स्थाई पदों को ठेके पर चढ़ाती जा रही हैं, सरकारी नौकरियों को खत्म करने की कवायद जोर-शोर से चल रही है, तब इस अग्निपथ योजना के आते ही इतनी पोस्टें कहां से आ जाएंगी कि आप सेना से छंटनी किए गए, 75 प्रतिशत नौजवानों को रोजगार दे दोगे, और अगर दे सकते हो तो अब तक दिया क्यों नहीं। महेन्द्रा कम्पनी के मालिक आनंद महेन्द्र का कहना है कि वे अपनी कंपनी में इन अग्निवीरों को नौकरी देंगे। मज़ा तो तब आता जबकि वे दिखाते कि देखो भाई महेन्द्रा कंपनी हमेशा, नियमित तौर पर सैनिकों को नौकरी देती है, और अब भी यही करेगी।
अग्निपथ के नाम पर देश के बेरोज़गारों की मजबूरी का फायदा उठाने के साथ-साथ, देश की सेना को कमजोर करने की कवायद, असल में किसका मास्टरस्ट्रोक है, ये किसी टी वी चैनल ने अब तक नहीं बताया लगता। 2014 में हर साल दो करोड़ नौकरियों का वादा करने वाले मोदी, इस योजना से किसका भला करने की सोच रहे हैं, वो या तो मोदी जानते हैं, या हो सकता है कि अमित शाह जानते हों, क्योंकि वो गृहमंत्री हैं। लेकिन ये सच है कि और कोई ऐसा शख्स इस देश में नहीं है कि जो जानता हो कि इस योजना की असल मंशा क्या है। आर्मी चीफ्स ने जो प्रेस कांफ्रेंस की, उसमें उन्होने इस योजना को लागू करने की प्रतिबद्धता के साथ-साथ नौजवानों को धमकी भी दे डाली, कि जिसने भी इस योजना के विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया होगा, उसे सेना में भर्ती नहीं किया जाएगा। वाह रे वाह सेना के चीफ साहब, और वाह इस देश के मूक दर्शक नीति नियंता और न्यायवेत्ता। ज़रा सोचिए, उनका कहना है कि नौजवानों को इस योजना में भर्ती के लिए शपथपत्र देना होगा कि उन्होने इस योजना के विरोध प्रदर्शनों में हिस्सेदारी नहीं की है। मूढ़मतियों को कौन ये समझाए कि जब तक किसी ने आपकी मातहती में नौकरी ना की हो, तब तक वो आपके नियमों पर चलने का जिम्मेदार नहीं है। क्या ये कानूनन देश के नागरिकों पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में रोक लगाने का रास्ता नहीं खोलता है। आज आर्मी के चीफ कह रहे हैं कि यदि किसी ने सरकारी कानून से अंसतोष जाहिर किया है तो उसे सेना में भर्ती होने का अधिकार नहीं है। कल से देश की अन्य नौकरियों में ये प्रचलन बनेगा कि यदि किसी ने भी, कभी भी, कहीं भी, सरकार से विरोध दर्ज करवाया हो, यानी लोकतंत्र में हिस्सा लिया हो, तो उसे सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी। यानी अब आर्मी का ये संदेश है कि सरकार को विरोध करना, देश का विरोध करना माना जाएगा, और इस तरह सरकार के विरोध को दबाया जाएगा।
कमाल ये भी है कि आर्मी चीफ के ये कहने पर किसी के कान खड़े नहीं हुए, किसी ने उन्हें नहीं टोका, कि वे किसी नौजवान से, भारत के स्वतंत्र नागरिक से ऐसे किसी शपथपत्र की मांग नहीं कर सकते, ये उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है, ये लोकतंत्र के खिलाफ सेना की साजिश माना जाएगा। किसी भी स्वतंत्र देश में नागरिकों को ये कहना कि यदि उन्होने किसी सरकारी कानून के खिलाफ अपना असंतोष जाहिर किया हो, प्रदर्शन किया हो, उन्हें किसी भी तरह से दंडित किया जाएगा, तो फिर लोकतंत्र का मतलब क्या हुआ। सुप्रीम कोर्ट तो ख़ैर अब कुछ भी कर लीजिए, किसी चीज़ पर स्वतः संज्ञान नहीं लेगा। बल्कि जनहित याचिका पर ये रोक लगा कि, यदि आप सीधे इस मामले से ना जुड़े हों तो आप जनहित याचिका दायर ही नहीं कर सकते, जनहित याचिका का शब्दशः अर्थ ही खत्म कर दिया गया है। बताइए, आप जनहित यानी जनता के हित वाली याचिका दायर ही नहीं कर सकते, जब तक उसमें आपके किसी हित का सीधे हनन ना हो रहा हो। यानी यदि सरकार किसी जंगल को काटने का हुक्म दे, तो आप तब तक उसके खिलाफ याचिका दायर नहीं कर सकते, जब तक आप उस जंगल के रहवासी ना हों। तो माई-बाप जनहित याचिका का नाम ही क्यों ना बदल दिया जाए, और इसे स्वहित याचिका कर दिया जाए।
इस तथाकथित लोकतांत्रिक देश में ऐसे-ऐसे हास्यास्पद कमाल हो रहे हैं, कि प्रहसन के लिए गुंजाइश ही नहीं बची है। जिस तरह लोग नोटबंदी के मानवनिर्मित हादसों के पक्ष में विविध रंगों के तर्क पेले जा रहे थे, उसी तरह राष्ट्रभक्ति के नाम पर अग्निपथ के चूल्हे पर अग्निवीरों की रोटियां सेंकी जा रही हैं। एक नेता तो ये कहते हुए पाए गए कि वे अपनी राजनीतिक पार्टी के दफ्तर की सुरक्षा इन्हीं अग्निवीरों से कराना बेहतर समझते हैं। किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए इससे बड़ा नुक्सान कोई नहीं हो सकता, जब उसके नागरिकों को ये कहा जाए कि यदि वे प्रतिरोध प्रदर्शन में हिस्सेदारी करेंगे तो उन्हें दंडित किया जाएगा, और जब ये बात सीधे सेना के चीफ कहें तो बात और गंभीर हो जाती है। बाकी आप खुद समझदार हैं….लोकतंत्र लुट गया है, बाकी जो चिथड़े बचे हैं, वो अग्नीवीरों को पहनाए जा रहे हैं। जयहिंद