विशेष संवाददाता, मीडियाविजिल
दिल्ली स्थित पत्रकारों की प्रतिष्ठित संस्था प्रेस क्लब ऑफ इंडिया का वार्षिक चुनाव 15 दिसंबर को है। इस दिन कुल 21 पदों की प्रबंधन कमेटी के लिए मतदान होना है जिसमें पांच पद अध्यक्ष, महासचिव, उपाध्यक्ष, कोषाध्यक्ष और संयुक्त सचिव के हैं जबकि बाकी 16 कार्यकारी सदस्य हैं। बीते 3 दिसंबर को जब नामांकन समाप्त होने के बाद प्रत्याशियों की पहली सूची सामने आई तो हर पद पर प्रत्याशियों की संख्या को देखकर ऐसा लगा कि इस बार मुकाबला बहुकोणीय होगा और कई पैनल बनेंगे। शुक्रवार को नामाकंन रद्द कराने की अवधि समाप्त होने के बाद आई आखिरी सूची हतप्रभ करने वाली थी। उपाध्यक्ष पद पर दिनेश तिवारी निर्विरोध विजयी घोषित कर दिए गए थे क्योंकि बाकी सभी छह प्रत्याशियों ने अपने नामांकन वापस ले लिए। नतीजतन, जो विपक्ष्खी पैनल बना वह परकटा साबित हुआ। निर्निमेष कुमार की अध्यक्षता वाले इस पैनल में उपाध्यक्ष पद पर कोई नहीं है जबकि कार्यकारी समिति के 16 स्थानों में से केवल छह प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। माना जा रहा है कि सत्ताधारी पैनल इस वजह से एक बार फिर स्वीप कर जाएगा।
इस बार के चुनाव में दरअसल शुरू से ही मुकाबला एकतरफा और निर्विरोध रहने की आशंका जतायी जा रही थी। इसकी जड़ में नए प्रेस क्लब की वह ज़मीन है जो अब तक प्रेस क्लब प्रबंधन को सरकार ने नहीं सौंपी है जबकि उक्त ज़मीन का बकाया पैसा क्लब ने कथित रूप से चुका दिया है। निवर्तमान अध्यक्ष गौतम लाहिड़ी इस ज़मीन को लेकर काफी बेचैन थे। इसका पता इस बात से चलता है कि 7 सितंबर 2018 को प्रबंधन कमेटी की जो बैठक आहूत की गई थी उसी के एजेंडे में अगले चुनाव की तारीखें तय करने का प्रस्ताव था, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से यह मसला दो महीने तक टाला जाता रहा और प्रबंधन कमेटी का कार्यकाल खत्म होने की तय तारीख 27 नवंबर से ठीक तीन दिन पहले अगले चुनाव की अधिसूचना जारी की गई। वास्तव में यह अधिसूचना भी जारी नहीं हो पाती क्योंकि अध्यक्षमंडल चुनाव कराने के मूड में ही नहीं था। इसीलिए प्रबंधन कमेटी की एक बैठक जो 26 नवंबर को बुलायी गई थी उसके एजेंडे में चुनाव नहीं था, लेकिन जाने किन दबावों के चलते इस बैठक को दो दिन पहले ही आपात नोटिस भेजकर 24 नवंबर को बुला दिया गया और देर शाम चुनाव की अधिसूचना जारी हो गई।
जाहिर है, 7 दिसंबर तक जारी राज्यों के विधानसभा चुनावों में पत्रकारों की व्यस्तता के चलते यह तय था कि आनन-फानन में कोई भी चुनाव की तैयारी नहीं कर पाएगा। बिलकुल वही हुआ। पहले से कमर कस के बैठे सत्ताधारी पैनल के अलावा कोई भी पैनल मुकम्मल नहीं बन सका। 24 नवंबर की देर शाम जारी अधिसूचना के बाद 3 दिसंबर तक नामांकन भरने की तारीख थी। गौरतलब है कि 28 नवंबर को मध्यप्रदेश के चुनाव थे, 29 और 30 को देश भर से दिल्ली आई किसानों की यात्रा थी और इसी दौरान अयोध्या में राम मंदिदर के मसले पर साधुओं की धर्मसभा थी। इतनी खबरों के बीच एक भी पैनल बनाने के लिए हफ्ता भर नाकाफी था। सत्ताधारी पैनल की यह तरकीब काम कर गई और उपाध्यक्ष पद पर दिनेश तिवारी को वाकओवर मिल गया।
प्रेस क्लब चुनाव की असल कहानी 7 सितंबर 2018 तक पीछे जाती है जब प्रबंधन कमेटी की एक बैठक बुलायी गई। उसके एजेंडे में छठवें बिंदु पर चुनाव का जिक्र था। जब बैठक शुरू हुई तो अध्यक्ष गौतम लाहिड़ी ने प्रेस क्लब के मैनेजर जितेंद्र सिंह को बहुत बुरी तरह लताड़ते हुए कहा, ‘’आखिर तुम्हारा हिम्मत कैसे हुआ अपने मन से चुनाव का एजेंडा डालने का?” इस बात पर अध्यक्ष इतने आगबबूला थे कि उन्होंने मैनेजर को नौकरी से निकालन तक की धमकी दे डाली। जितेंद्र सिंह ने स्पष्टीकरण दिया कि दो महीने में इस कमेटी का कार्यकाल खत्म हो रहा है इसलिए चुनाव पर बात करना ज़रूरी है। इस पर सभी के सामने अध्यक्ष ने उनके साथ गाली-गलौज करते हुए कहा- ‘या तो आप साजिश कर रहे हो या आप अक्षम हो। साजिश कर रहे हो तो इस्तीफा देना पड़ेगा। अक्षम हो तो सोचना पड़ेगा।‘’
चूंकि बैठक का नोटिस महासचिव की ओर से जारी किया जाता है, तो जितेंद्र सिंह ने यही बात रखी कि महासचिव विनय कुमार को संज्ञान में लाने के बाद ही एजेंडा भेजा गया। इस पर लाहिड़ी ने कहा, ‘’हमारा जनरल सेक्रेटरी इतना भोला भाला है कि जो चाहे इसको समझा दो समझ जाएगा।‘’ लाहिड़ी ने चिल्लाते हुए कहा, ‘सारे जगह से मेरे पास फोन आ रहा है कि आप लोग अक्टूबर में चुनाव करवा रहे हो। कानून जो भी हो, अब चुनाव 2024 से पहले नहीं होगा। जब तक ज़मीन नहीं मिलेगा, चुनाव नहीं होगा। मैं यहां का अध्यक्ष हूं, मैं तय करूंगा।‘’
इस बात पर कमेटी की बैठक में कुछ लोगों की हंसी छूट गई तो एकाध ने आपत्ति भी जतायी। एकाध सदस्यों ने जब उन्हें कानून का हवाला दिया तो वे बोले, ‘’हमसे ज्यादा कानून कोई नहीं जानता है यहां। जिसको जो करना है कर ले, चुनाव नहीं होगा।‘’
इस बैठक में एजेंडे पर बातचीत होने के बजाय इतना हंगामा हुआ कि कुछ सदस्यों ने बैठक खत्म होने के बाद खुले में आकर वहां हुई बातों का जिक्र किया। जब कमेटी के सदस्य और वरिष्ठ पत्रकार सुधी रंजन सेन ने कहा कि यह तो दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रेसिडेंट को लूप में नहीं रखा गया जबकि सेक्रेटरी जनरल को एजेंडे का पता है, तो अध्यक्ष ने उन्हें डांटते हुए कहा, ‘’चुप… यहां मैं ही प्रेसिडेंट हूं और मैं ही जनरल सेक्रेटरी… ये वाला सेक्रेटरी जनरल केवल नाम का है।‘’ अध्यक्ष चुने जाने के दसवें महीने में लाहिड़ी का यह व्यवहार बहुत से कमेटी सदस्यों को नागवार गुजरा। इस पूरे हंगामे के बीच सेक्रेटरी जनरल विनय कुमार बेहद विनय की मुद्रा में अध्यक्ष को सहलाते रहे और बाकी सदस्य मौज लेते रहे।
इसी बैठक से ही तय हो गया था कि गौतम लाहिड़ी की प्राथमिकता अपने रहते प्रेस क्लब की नई ज़मीन लेना है और वे किसी दूसरे को ज़मीन का मुद्दा नहीं छूने देंगे। सेन ने इसी बैठक में जब लाहिडी से पूछा कि ज़मीन की कानूनी स्थिति क्या है, तो उनका जवाब था, ‘’गौतम लाहिड़ी जो कहेगा वही लीगल पोजीशन है।‘’ इसके बाद वे बोले, ‘’मैंने कानूनी सलाह ले लिया है कि चुनाव को कैसे टाला जा सकता है। चुनाव तो होगा नहीं और जिसको आपत्ति है वो अदालत में जाए।‘’ इस पर सेन ने आपत्ति जताते हुए कहा, ‘’यह संवैधानिक स्पिरिट में नहीं है।‘’ लाहिडी ने डपटते हुए जवाब दिया, ‘’स्पिरिट गया गांड़ में…।‘’ पत्रकार महुआ चटर्जी ने इस भाषा को ‘’असंसदीय’’ करार दिया, फिर सब हंस दिए।
दरअसल, निवर्तमान कमेटी चुने जाने के बाद से ही बैठकों में ऐसी भाषा और शैली का प्रदर्शन होता रहा है। इतना ही नहीं, लगातार हर बैठक में जिन दो सदस्यों के खिलाफ कडी कार्रवाई करने और नोटिस भेने की बात लाहिडी करते रहे, वे वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडि़या और निर्निमेष कुमार हैं। इस कमेटी को चलाने वाले अच्छे से जानते हैं कि चुनाव में इन्हीं दो पत्रकारों से उन्हें चुनौती मिलनी है। इसीलिए लगातार अनिल चमडि़या और निर्निमेष के खिलाफ बैठकों में जहर उगला जाता रहा।
7 सितंबर की इस बैठक में बाद जनरल बॉडी मीटिंग की अधिसूचना 11 सितंबर को जारी की गई। आम तौर से परंपरा रही है कि हर चुनाव के दिन ही सुबह सालाना आम सभा बुलायी जाती रही है। इस बार ऐसा नहीं होगा क्योंकि अध्यक्ष का मानना है कि सितंबर में बुलायी गई सभा पर्याप्त थी।
16 नवंबर को जब प्रबंधन कमेटी की बैठक दोबारा आहूत की गई, तो एजेंडे में चुनाव का नामोनिशान नहीं था जबकि सब जानते थे कि मौजूदा कमेटी का कार्यकाल 27 नवंबर को समाप्त हो रहा है। उस दिन देर शाम तक मीटिंग चली और तय पाया गया कि चुनाव जनवरी में करवाए जाएंगे। फिर जाने क्या हुआ कि हफ्ते भरा बाद ही 26 नवंबर को एक आपात बैठक बुला ली गई और नोटि भेजकर इस बैठक की तारीख 24 नवंबर कर दी गई। बताया गया कि चूंकि निर्निमेष कुमार नई सदस्यता सूची को लेकर अदालत में जा चुके हैं इसलिए और कोई कोर्ट केस न हो, इसके लिए ज़रूरी है कि चुनाव समय से करवा दिए जाएं। उसी 24 नवंबर की बैठक में कानूनी सलाह के बाद आनन-फानन में 15 दिसंबर को चुनाव करवाने का फैसला लिया गया- यह जानते हुए कि 12 दिसंबर तक पत्रकार चुनावों में व्यस्त रहेंगे।
नियमों के हिसाब से चूंकि गौतम लाहिडी और विनय कुमार दोबारा चुनाव नहीं लड़ सकते थे तो पुरानी कमेटी के ही अनंत बगैतकर और महुआ चटर्जी को अयक्ष और महासचिव पद के लिए खड़ा कर दिया गया। अनंत अनुशासन सब-कमेटी देखते थे जिनकी अनुशंसा पर कमेटी की निर्वाचित सदस्य अनिता चौधरी की सदस्यता खत्म की गई, निर्निमेष कुमार और अनिल चमडि़या के खिलाफ नोटिसों की सिफारिश की गई। उपाध्यक्ष पर दिनेश तिवारी जीत ही चुके हैं और बाकी दो पदों में संयुक्त सचिव पर संजय सिंह और ट्रेजरार पर नीरज ठाकुर लड़ रहे हैं, जो पहले से ही इस कमेटी के भीतरी गोल का हिस्सा रहे हैं। इस तरह कुल मिलाकर जो नई कमेटी बनाई गई है, वह मोटे तौर पर उन पुराने लोगों की ही है जो अब तक क्लब को पिछले कुछ वर्षों से चलाते रहे हैं। बाकी ने पैनल खड़ा करने की कोशिश की, लेकिन एक तो उन्हें तैयारी का वक्त नहीं मिला और दूसरे, कई ने यथास्थिति से थक हार कर कदम पीछे खींच लिए।
इस चुनाव में केवल एक बदलाव जो देखने के लायक होगा वह है कि वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल का कार्यकारिणी के सदस्य के लिए प्रत्याशी होना। दिलीप मंडल इंडिया टुडे के संपादक रह चुके हैं और हाल ही में एडिटर्स गिल्ड के सदस्य बने हैं। कायदे से उनकी वरिष्ठता को देखते हुए किसी पैनल को उन्हें अपने में शामिल होने का आमंत्रण देना चाहिए था, लेकिन इसके ठीक उलट जब मुख्य सत्ताधारी पैनल के नियंताओं से कुछ पत्रकारों ने उन्हें शामिल करने का आग्रह किया तो उधर से जवाब आया कि उनसे परचा रद्द करने को कह दीजिए क्योंकि हम नहीं चाहते वे इस बार हारें। दूसरा अधूरा पैनल अब भी दिलीप मंडल को अपने में शामिल करने से हिचक रहा है। कुल मिलाकर दिलीप मंडल के खड़े होने से प्रेस क्लब के नेतृत्व का ब्राहमणवादी चरित्र पूरी तरह खुलकर सामने आ गया है। अगर इस बार सत्ताधारी पैनल से खड़े हुए प्रत्याशियों की जाति जांची जाए तो साठ फीसदी से ज्यादा ब्राह्मण मिलेंगे। मुस्लिम को ‘उर्दू प्रेस’ की एक कैटेगरी के रूप में छोड़ दें तो बाकी सब सवर्ण हैं। इस मामले में विपक्षी पैनल भी कोई दूध का धुला नहीं है।
प्रेस क्लब में पैनल के वोट के बगैर किसी स्वतंत्र प्रत्याशी का जीतना आसान नहीं होता, लिहाजा दिलीप मंडल की अकेली लड़ाई कठिन है। यह लड़ाई आसान भी हो सकती है बशर्ते सदस्यों को यह बात समझ में आ सके कि बदलाव के नाम पर हर साल उनके साथ धोखा किया जाता है और प्रेस क्लब में दक्षिणपंथियों के कब्ज़े का हौवा दिखाकर दरअसल एक तानाशाही ब्राह्मणवादी गिरोह ही लगातार ऑपरेट करता रहा है। यह बात अब छुपी नहीं रह गई है कि हर साल जीतने वाले पैनल के नियंता दरअसल कुछ ऐसे बड़े पत्रकार हैं जो क्लब पर अपनी सत्ता को बरकरार रखना चाहते हैं और संघ को रोकने के नाम पर सरोकारी पत्रकारों की नादानी का फायदा उठाते हैं।
ध्यान रहे यह वही पैनल है जिसके राज में पहले अली जावेद को निकाला गया था, बाद में पत्रकार विश्वदीपक को खतरे में डाला गया। यह वही पैनल है जिसके अध्यक्ष और महासचिव ने बसंत बहार के कार्यक्रम में भाजपा सांसद मनोज तिवारी के साथ केवल इसलिए गलबहियां की थीं ताकि ज़मीन दिलवाने में वे अपना पौवा लगा सकें। यह वही पैनल है जिसके महासचिव पद की प्रत्याशी महुआ चटर्जी ने इस साल हुई आपात आम सभा में किसी के हिंदी में सवाल पूछने पर खुलेआम चिल्लाकर कहा था कि ‘’प्रेस क्लब की भाषा हिंदी नहीं है।‘’ जाहिर है, प्रेस क्लब की निर्वाचित कमेटी के भीतर यह सोच खुले रूप में सामने आती रही है जब ऊपर के चार पदाधिकारी बांग्ला में संवाद करते रहे हैं और बाकी को उनका मुंह देखना पड़ा है।
प्रेस क्लब दिल्ली में असहमति और अभिव्यक्ति की आखिरी जगह बची है। पत्रकार चाहें तो इसे बचा सकते हैं। इसके लिए करना बस इतना है कि कुछ साल पहले बदलाव के नाम पर आए उस सत्ताधारी पैनल को उखाड़ फेंकना होगा जो लगातार संघ का डर दिखाकर यहां अपनी रोटियां सेंकता रहा है। फिलहाल यदि दिलीप मंडल जैसे वरिष्ठ पत्रकार को ही 21 लोगों की कार्यकारिणी में एक जगह दिलायी जा सके, तो यह असल बदलाव की शुरुआत होगी।