दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में 30 जून को महाराष्ट्र पुलिस एक आयोजन के लिए हॉल बुकिंग से सम्बंधित जानकारी लेने आई थी. यह भीमा कोरेगांव हिंसा के मामले में दर्ज मुक़दमे कि तफ्तीश का हिस्सा था जिसने शुरुआती आशंकाओं को जन्म दिया कि हॉल बुकिंग के आधार पर पुलिस कुछ गिरफ्तारियां भी कर सकती है, जैसा उसने 6 जून को दिल्ली से ही किया था. इस घटना के बाद पत्रकारों और नागरिक समाज कि तरफ से मिश्रित प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं. इस बीच अपनी सुरक्षा को ख़तरा भांप कर दिल्ली के पत्रकार विश्वदीपक ने भी विवेकपूर्ण फैसला लेते हुए तत्काल कुछ नहीं कहा क्योंकि प्रेस क्लब कि घटना के सन्दर्भ में उनका नाम उछला था. घटना को एक हफ्ता बीत जाने के बाद विश्वदीपक ने घटना और उसके आलोक में अपनी तरफ से अपने फेसबुक पर एक बयान जारी किया है. इस बयान का अविकल हिंदी अनुवाद नीचे प्रस्तुत है: (संपादक)
मुझे लगता है कि जब तक हमारी आज़ा़दी में काटछांट न की जाए, तब तक हमें उसका मूल्य समझ में नहीं आता। मैं मानता हूं कि जब हमारी आज़ादी ख़तरे में हो, तब हमें अपने अस्तित्व मात्र से ऊपर उठकर उसके बचाव में खड़ा होना चाहिए।
आज़ादी न तो विलासिता है और न ही कोई ऐसी सुविधा जो सरकार हमें अपनी स्वेच्छा से देती हो।
लोकमान्य ने कहा था, ”आज़ादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है”। जन्मसिद्ध इसलिए क्योंकि वह इंसानी जिंदगी के लिए अनिवार्य है और एक विचार-सक्षम मनुष्य के होने की पूर्व शर्त भी है। आज हालांकि आज़ादी के इस बुनियादी खयाल को ही आपराधिक करार दिया जा रहा है।
हम बेशक यह जानते हैं कि नागरिकों द्वारा अपने हक के लिए आवाज़ उठाए जाने को अधिकतर सरकारें नापसंद करती हैं, लेकिन मुझे लगता है कि हमारे खयालों को आपराधिक ठहराने की कोशिश अब संगठित रूप में की जा रही है। यह एक खतरनाक परिकल्पना की पैदाइश है।
खुद से असहमत आवाज़ों को दबाने के लिए मौजूदा सत्ता एक नीति के बतौर विचारों को आपराधिक ठहराने का काम कर रही है और खुद उसके पीछे छुप गई है। मुझे आजकल ऐसा महसूस हो रहा है कि असमान खयालात और आलोचनात्मक विवेक को एक आपराधिक कृत्य की संज्ञा दी जा सकती है।
यह मेरे लिए निजी से कहीं ज्यादा एक राजनीतिक मसला है। एक पत्रकार के बतौर मेरी राजनीति है सच की रक्षा करना, खुलकर बोलना और सोचना, उनके पक्ष में लिखना जिनके पास अपनी आवाज़़ नहीं है और जब कभी ज़रूरत पड़े, सत्ता से सवाल करना।
साल भर से ज्यादा वक्त हुआ जब मैंने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एक सभागार को बुक करने का अनुमोदन किया था, जहां का मैं कई साल से सदस्य हूं। जिस कार्यक्रम के लिए सभागार बुक करवाया गया था, वह एक सेमिनार था जो जीएन साइबाबा की रिहाई के लिए प्रेस में समर्थन जुटाने तथा नागपुर जेल में उनकी गिरती हुई सेहत को प्रकाशित करने के लिए आयोजित किया गया था। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के नियमों के तहत यह प्रावधान है कि यदि किसी को यहां सभागार लेना हो तो क्लब के एक सदस्य से उसका अनुमोन करवाना अनिवार्य होता है। उक्त सेमिनार के लिए अनुमोदन अगर मैंने नहीं किया होता तो मेरी जगह कोई और सदस्य होता। यह केवल मेरी उपलब्धता और संयोग का मामला है।
साइबाबा पूरी तरह विकलांग हैं। यह शख्स हर गुज़रते दिन के साथ तिल-तिल कर अपनी मौत के करीब जा रहा है। इन्हें राष्ट्र के लिए खतरा बताया गया है। मैं यह समझना चाहूंगा कि एक पूर्णत: विकलांग व्यक्ति हमारे जैसे एक महान राष्ट्र के लिए खतरा कैसे बन जा सकता है।
तीन साल पहले अंग्रेज़ी की पत्रिका आउटलुक में अरुंधति रॉय ने अपने एक लेख में लिखा था, ”उनकी शारीरिक हालत को और ज्यादा बिगड़ने देने से रोकने के लिए ज़रूरी है कि उनकी लगातार देखभाल की जाए, उन्हें दवाएं दी जाएं और फिजि़योथेरपी मुहैया करायी जाए। इन सब के बजाय उलटे उन्हें अंडा सेल के एकांतवास में डाल दिया गया (जहां वे आज भी हैं) जहां उन्हें शौच जाने के लिए मदद करने वाला भी कोई नहीं है। उन्हें अपने हाथों-पैरों से रेंग कर जाना पड़ता है।”
उनकी राजनीति से हम सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन मैं कुछ बातें जानने का इच्छुक हूं (जिन्हें यह देश नहीं जानना चाहता; ऐसा लगता है वह लंबी नींद में चला गया है):
- क्या एक कैदी को जीने का अधिकार नहीं है और क्या स्वास्थ्य के आधार पर ज़मानत का अनुरोध करना गलत है, खासकर तब जबकि मामला जिंदगी और मौत से जुड़ा हो?
- यदि साइबाबा जैसा एक व्यक्ति- जो मौत के कगार पर है- देश के लिए खतरा है, तो आप हत्यारी भीड़, ऑनलाइन ट्रोलरों और उन तमाम लोगों को क्या संज्ञा देंगे जो परदे के पीछे हमारा संविधान बदलने की ख्वाहिश पाले छुपे बैठे हैं?
- उस शख्स को आप क्या नाम देंगे जो राजनीतिक हत्याओं में कथित रूप से लिप्त है और जज लोया के केस में जिसकी भूमिका संवालों के घेरे में है?
- उन्हें आप क्या संज्ञा देंगे जिन्होंने हमारे समाज के सांप्रदायीकरण और विभाजन के लिए राम के नाम का इस्तेमाल एक सियासी औज़ार के तौर पर किया है (ध्यान रहे, गांधी ने कहा था राम का नाम मेरे लिए सत्य की पहचान है)?
- उन्हें आप क्या कहेंगे जिन्होंने पत्रकार गौरी लंकेश, लेखक कलबुर्गी, दाभोलकर और पानसरे की हत्या की है?
मैंने हॉल की बुकिंग का अनुमोदन यह मानते हुए किया था कि मैं एक लोकतांत्रिक देश में रहता हूं जहां लोगों को एक वैध मंच पर अपनी राय रखने का नूरा अधिकार है। आज इस अनुमोदन को ही सत्ता आपराधिक कृत्य के रूप में देख रही है। कभी-कभार मुझे शक होता है कि हम एक लोकतांत्रिक देश में जी रहे हैं या फिर एक ऐसे देश में जिसे राजनीतिक माफिया चलाता है? हमारे महान स्वतंत्रता सेनानियों ने क्या इसी दिन के लिए संघर्ष किया था?
चूंकि मैं उस सेमिनार में नहीं गया था, इसलिए मैं नहीं जानता कि उसमें कितने ”माओवादी/नक्सलवादी” आए थे या यह कि वहां कितने ”देशद्रोही” मौजूद थे। हां, मैं यह जानता हूं कि उस कायक्रम में समाजविज्ञानी नंदिनी सुंदर और प्रो. हरगोपाल का संबोधन होना तय था और ये दोनों देश के लिए कोई ख़तरा नहीं हैं। ये बड़े मेधावी लोग हैं। हमें इनकी बातें सुननी चाहिए।
वरना विचारों का आपराधीकरण आखिरकार इस लोकतंत्र को नष्ट कर डालेगा।
एक स्वस्थ और गतिमान लोकतंत्र के लिए प्रेस की आज़ादी अनिवार्य है- यह बात अब भी अप्रासंगिक नहीं हुई है, भले कई बार कही जा चुकी हो और इसे सुनने में ऊब होती हो। यह हताश करने वाली बात है कि हम इस मोर्चे पर भी नाकाम रहे हैं।
सत्ता में बैठे लोगों को लगता होगा कि वे पत्रकारों और असहमत स्वरों को मार कर चुप करा देंगे और हकीकत को छुपा ले जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं होने वाला।
मैं पूछना चाहता हूं, ”विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की बदतर रैकिंग के लिए कौन जिम्मेदार है?” मुझे कहने में शर्म आती है कि मेरा प्यारा देश 2018 की विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक रिपोर्ट में म्यांमा, नेपाल और श्रीलंका से भी नीचे है।
मेरा मानना है कि हिंसा पर आधारित किसी भी विचारधारा से देश में बदलाव/इंकलाब नहीं लाया जा सकता लेकिन साथ ही यह भी सच है कि आप इंकलाब के खयाल को नाजायज़ नहीं ठहरा सकते। हमें उसकी रक्षा करनी होगी।
हम सभी इंसान हैं। ज़ाहिर है, हम सब के भीतर एक सपना होगा। एक आदर्श। हो सकता है कि आपका आदर्श मेरे वाले से अलहदा हो लेकिन दोनों एक साथ मौजूद हैं और रहने चाहिए। आज़ादी इसी को कहते हैं। यही तो भारत है! मेरे खयाल से यदि हम अपने बीच मौजूद वैचारिक भिन्नताओं के साथ सहज होकर जीना नहीं सीख पाए तो हम मुर्दों के देश में तब्दील हो जाएंगे।
वाल्टेयर के इन शब्दों के साथ मैं अपनी बात खत्म करना चाहूंगा:
”मैं आपके विचार से असहमत हो सकता हूं, लेकिन आपकी अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा करने के लिए अपनी जान भी दे सकता हूं!”
विश्वदीपक
रविवार, 8 जुलाई 2018
अपराह्न 2 बजे