मैं नहीं जानता कि दिलीप मंडल प्रेस क्लब के चुनाव में किस उद्देश्य से खड़े हुए थे। मुझे अब भी नहीं पता कि खड़े होने के बावजूद वे क्यों अंत तक तकरीबन बैठे रहे। अपनी हार या जीत से निर्लिप्त रहते हुए कोई प्रत्याशी किसी भी स्तर के चुनाव में यदि स्वेच्छा से उतरता है तो उससे बड़ा रहस्य कोई नहीं होता। इस रहस्य के रहस्य बने रहने के बावजूद कुछ पत्रकारों ने स्वेच्छा से यदि दिलीप मंडल के समर्थन का बीड़ा उठाया, तो केवल इसलिए कि उनकी आस्था दो बातों में थी: पहली, क्लब के प्रबंधन में निचले स्तर पर ही सही, एक विश्वसनीय और वरिष्ठ पत्रकार को प्रवेश दिलवाना ताकि सात साल से लगातार कुर्सी पर बैठे-बैठे सुरसा का आकार ले चुकी प्रबंधन कमेटी की आंख का पानी न मरने पाए। एक किस्म का चेक एंड बैलेंस बना रहे, जो लोकतंत्र की शर्त है।
दूसरा कारण जाहिर है। दिलीप मंडल सामाजिक न्याय के खेमे से आते हैं। जिस तरह राष्ट्रीय मीडिया के न्यूज़रूमों में देश के हर समुदाय जाति, वर्ग का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व कायम है, बिलकुल वही सूरत देश के सबसे बड़े पत्रकारों के ठीहे प्रेस क्लब की है। यहां सदस्यता से लेकर चुनावी पैनल बनाने तक तमाम प्रक्रियाओं में सामाजिक न्याय क अनदेखी की जाती रही है। प्रत्याशियों को चुने जाने की श्रेणियां तो कई हैं, लेकिन वे भाषायी प्रेस के अधार पर बंटी हुई हैं- मसलन, पैनल बनाने में यह ध्यान रखा जाता है कि एक पत्रकार नॉर्थ-ईस्ट का हो, लेकिन यह कोई नहीं सोचता कि अगर एक सामान्य श्रेणी से है तो दूसरा आदिवासी होना चाहिए। ऐसे ही पैनल में एक मराठी, एक बंगाली, एक मलयाली, एक उर्दू प्रेस का प्रत्याशी होना ज़रूरी है। पैनल बनाने वाले इस प्रक्रिया में किसी दलित, पिछड़ा या पसमांदा को रखने का अपने ज़ेहन में खयाल तक नहीं लाते।
नतीजा, जो भी पैनल बनता है वह प्रमुखत: सवर्ण पत्रकारों का पैनल होता है। इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ। सत्ताधारी पैनल के 21 उम्मीदवारों में से 18 सवर्ण थे। इनमें भी 13 ब्राह्मण, दो हिंदू खत्री, एक राजपूत, दो मुसलमान व एक पिछड़ा थे। जो दूसरा खंडित पैनल विपक्ष में बना, उसमें भी पिछड़ा प्रत्याशी केवल एक था और बाकी सब सवर्ण थे। जो स्वतंत्र प्रत्याशी अलग-अलग पदों पर खड़े हुए, उनमें दो मुसलमानों को छोड़ सब सवर्ण हिंदू थे। सभी पदों पर कुल 40 पत्रकार खड़े हुए लेकिन इनमें एक भी दलित, आदिवासी, पसमांदा नहीं दिखा। दो-तीन पिछड़े बेशक रहे। इसी संदर्भ में दिलीप मंडल का खड़ा होना प्रेस क्लब के समकालीन चुनावों के इतिहास में एक परिघटना की तरह दर्ज किया जाना चाहिए क्योंकि वे पत्रकार होने के साथ सामाजिक न्याय की वैचारिकी और राजनीतिक को अपने साथ लेकर आते हैं, जिसे पचा पाना सवर्ण हिंदू पत्रकारों के लिए आसान नहीं होता, चाहे वे राजनीति के किसी भी खित्ते से आते हों। आम तौर से प्रेस क्लब में पिछले एक दशक से चुनाव विचारधारात्मक आधार पर होते रहे हैं, लेकिन दिलचस्प यह रहा है कि वाम विचारधारा और संघ विचारधारा दोनों ही एक-दूसरे का डर दिखाकर क्लब के शीर्ष पदों पर चुन-चुन कर ब्राह्मणों और सवर्ण हिंदुओं को बैठाते रहे हैं। पता नहीं ऐसा अब तक जाने में हुआ है या अनजाने में, लेकिन दिलीप मंडल की स्वतंत्र मौजूदगी और हार ने इस बार कम से कम इस तथ्य को तो साबित कर ही दिया है कि प्रेस क्लब के आंतरिक स्पेस में किसी पिछड़े, दलित या आदिवासी का अपने बल पर घुसना बहुत टेढ़ा और मशक्कत भरा काम है।
मीडियाविजिल पर प्रेस क्लब चुनाव से जुड़ी पिछली रिपोर्ट में हमने बताया था कि कैसे दिलीप मंडल को आखिरी मौके तक दोनों पैनल अपने साथ लेने को तैयार थे लेकिन अंतत: उन्हें अकेले ही स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर लड़ना पड़ा। इस रिपोर्ट पर सत्ताधारी पक्ष की ओर से कुछ आपत्तियां आई थीं। कहा गया था कि यह अधूरा सच है जिसमें रिपोर्टर असल बात को छुपा ले गया कि मंडल को पैनल में रखवाने का प्रस्ताव ही नामांकन रद्द होने की अंतिम तारीख को डिब्बा खुलने के बाद दिया गया। यह सच बात है। इसमें कोई दो राय नहीं। मंडल ने 30 नवंबर को परचा भरा था। उस वक्त तक न तो उनके दिमाग के किसी पैनल से जुड़ने की बात थी और न ही उनके प्रस्तावकों को इसका अहसास था। नामांकन की अंतिम तारीख 3 दिसंबर को एक पत्रकार के साथ चर्चा में इस बात का खयाल आया, तो सत्ताधारी पैनल से मंडल को लड़ाने का एक प्रस्ताव बढ़ाया गया। जाहिर है तब सूची अंतिम हो चुकी थी, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। हमेशा नामांकन की आखिरी तारीख के बाद पैनलों में बदलाव होता रहा है। यह परंपरा का हिस्सा है। दूसरे पैनल ने भी मंडल को पेशकश की और उसकी पेशकश तो बिलकुल वाजिब थी क्योंकि वहां लड़ने के लिए पर्याप्त प्रत्याशी भी नहीं थे, मंडल ने हां भी कह दिया था। सात तारीख को नामांकन रद्द होने की अंतिम तिथि के बाद भी सूची का बनना जारी रहा। आखिरकार सत्ताधारी पैनल ने उन्हें अपने साथ रखने के लिए किसी एक सदस्य को हटाना वाजिब नहीं समझा और इनकार कर दिया। विपक्षी पैनल लगातार उन्हें अपने में शामिल करने की बात करता रहा लेकिन जब उसकी प्रचार सामग्री आई तो उसमें दिलीप का नाम और चेहरा गायब था। यह तय हा चुका था कि दिलीप मंडल अकेले दम पर लड़ेंगे, लिहाजा उन्हें पैनल के वोट नहीं आएंगे और उनका हारना तकरीबन तय है।
वे उसी निर्लिप्त भाव से लड़े। नतीजा सामने है। प्रत्याशित भी है। इस बार भी प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में सत्ताधारी पैनल की ही जीत हुई। विपक्ष का इकलौता खंडित पैनल और कुछ स्वतंत्र उम्मीदवार सात साल से चले आ रहे विजय रथ को रोकने में नाकाम रहे। लोकतांत्रिक तकाजे के लिहाज से जीतने व हारने वाले सभी को बराबर शुभकामनाएं दी जानी चाहिए। अब नतीजे के आंकड़ों का थोड़ा पोस्टमॉर्टम करते हैं। विशेष रूप से दिलीप मंडल को मिले 301 वोटों का विश्लेषण, जिनके लिए कुछ सामाजिक न्यायप्रेमी पत्रकारों ने खुलकर प्रचार किया था।
अध्यक्ष पद पर तीन प्रत्याशी थे। दो हारने वाले प्रत्याशियों में से हबीब अख्तर को दिलीप मंडल से 50 फीसदी कम वोट मिले हैं। हबीब बिना पैनल के स्वतंत्र लड़े थे। दूसरे निर्निमेष कुमार जो विपक्षी पैनल से थे, 430 वोट ले आए हैं यानी पैनल से खड़े होने का कोई खास लाभ उन्हें नहीं मिला है। अकेले खड़े होते तब भी आसपास ही मिलता। महासचिव पर पांच प्रत्याशी थे, चार हारे हैं। चारों हारने वालों के वोट दिलीप मंडल से कम हैं। इन चारों में सबसे ज्यादा 177 वोट स्वतंत्र प्रत्याशी प्रदीप श्रीवास्तव को मिले हैं यानी मोटामोटी दिलीप मंडल का आधा। इसी तरह संयुक्त सचिव पर खड़े तीन प्रत्याशियों में से जो दो हारे हैं, दोनों के वोट मंडलजी से कम हैं। कोषाध्यक्ष पर दो ही प्रत्याशी थे, हारने वाले यशवंत सिंह के वोट दिलीप मंडल से बमुश्किल पचास ज्यादा हैं। इस अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि सत्ताधारी पैनल के सामने विपक्षी पैनल के वजूद का खास मतलब ही नहीं था क्योंकि बतौर स्वतंत्र प्रत्याशी, अकेले दिलीप मंडल विपक्षी पैनल के सेंट्रल पैनल से ज्यादा वोट ले आए हैं।
अब आइए प्रबंधन कमेटी पर जिनमें कुल 26 उम्मीदवार थे। सोलह चुने गए। इन 16 में कटऑफ वोट संख्या है 593 वोट यानी दिलीप मंडल को मिले वोटों का दोगुना। जो 10 हारे हैं, उनमें मंडल पांचवें स्थान पर हैं। उनके ऊपर चार और नीचे चार प्रत्याशी विपक्षी पैनल से हैं जबकि नीचे का एक स्वतंत्र उम्मीदवार है। इस तरह हम पाते हैं कि सभी पदों पर स्वतंत्र रूप से बगैर पैनल खड़े उम्मीदवारों में सबसे ज्यादा वोट दिलीप मंडल को मिले हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि दिलीप मंडल सेक्रेटरी जनरल के पोस्ट पर लड़ते तो वे दूसरे स्थान पर होते, अध्यक्ष पद पर लड़ते तो तीसरे, संयुक्त सचिव पर लड़ते तो दूसरे स्थान पर होते।
अब सोचिए, जिस प्रत्याशी ने चुनाव के एक दिन पहले सोशल मीडिया पर अपनी उम्मीदवारी की घोषणा की; जिसने मतदान की पूर्व संध्या पर अपने चाहने वालों के आग्रह पर संकोच तोड़कर महज आधा घंटा मतदाताओं से भेंट मुलाकात की, वह बैठे-बैठाए 301 वोट ले आया। पहली बार में इससे बेहतर प्रदर्शन क्या होगा। वो भी तब, जबकि सिर से लेकर पैर तक सवर्णवाद में पगे हुए मुख्य व विपक्षी पैनल दोनों ने कई गुजारिशों के बावजूद दिलीपजी अपने यहां जगह नहीं दी। विडंबना ही कहेंगे कि इतना सीनियर पत्रकार, जो एडिटर्स गिल्ड का सदस्य भी है, उसे अपने पैनल पर लेने में किसी को भी प्रतिष्ठा का अहसास होना चाहिए था, उसके उलट व्यवहार हुआ। अव्वल तो यह प्रवृत्ति प्रेस क्लब में बनने वाले चुनावी पैनलों की सामाजिक लोकेशन को बयां करती है, दूजे चुनाव में पैनलों के दिन लदने और स्वतंत्र प्रत्याशियों के दिन वापस आने की यह मुनादी है।
प्रतीक रूप में देखें तो दिलीप मंडल प्रेस क्लब का चुनाव हार कर भी जीत गए हैं क्योंकि सत्तर साल के इतिहास में पहली बार पत्रकारों के इस अड्डे के सामाजिक लोकेशन की कलई खुल गई है और बहुजन पत्रकारों को एक अदद निजी हस्तक्षेप की ताकत का अंदाज़ा लग सका है। दिलीप मंडल का इस चुनाव में खड़ा होना पत्रकारों के राष्ट्रीय ठीहे में सामाजिक न्याय के बीज का रोपण है जिसकी फसल आने वाले दिलों में लहलहाएगी। इस फसल का पैदा होना दो कारणों से ज़रूरी है। अव्वल तो मीडिया की आंतरिक ब्राह्मणवदी संरचना को बदलने के लिए यदि किसी किस्म का कोई कानूनी या विधायी हस्तक्षेप किया गया, तो यह काम पत्रकारों की एक ऐसी ही संस्था कर सकेगी जिसकी खुद की संरचना सामाजिक न्यायवादी हो। जान पड़ता है कि वह समय अब नज़दीक है क्योंकि मीडिया में आरक्षण का मुद्दे को पहली बार राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) ने इधर बीच लगातार अपने राजनीतिक एजेंडे में जगह दी है और एनडीए से अलग होकर उसने मुद्दे के प्रति अपनी राजनीतिक गंभीरता का भी परिचय दिया है।
मीडिया के आंतरिक ब्राह्मणवादी चरित्र के साथ ही प्रेस क्लब के प्रबंधन की अहंम्मन्यता का सवाल भी नत्थी है। जिस दिन मतदान चल रहा था, प्रेस क्लब के गेट के बाहर निवर्तमान अण्यक्ष गौतम लाहिड़ी से मेरी मुलाकात हुई। वे सामने पड़े, मैंने अभिवादन किया तो पलट कर उन्होंने कहा, ‘’तुम जो मेरी छवि खराब करने की कोशिश कर रहे हो यह ठीक नहीं है।‘’ जाहिर है, निवर्तमान कमेटी का निर्वाचित सदस्य होने के नाते मुझसे यही अपेक्षा की जाती रही है कि मैं कमेटी के फैसलो को चुप रह कर मानता रहूं, जो आज तक मैंने नहीं किया। साल भर के मेरे अनुभव ने बताया कि ब्राह्मणवादी प्रिविलेज और अंग्रेज़ीदा अभिजात का सम्मिश्रण सता पर कब्ज़ा रखने के लिए कितना मुफीद होता है कि वह असहमति के एक स्वर को भी नहीं पचा पाता। मेरे जवाब देने के बाद लाहिड़ी ने जो बात कही, वह सारी समस्या का मूल संदेश है: ‘’चाहे कोई जीते चाहे कोई हारे, क्लब को तो मैं ही चलाऊंगा।‘’ आसपास खड़े तीन-चार पत्रकारों ने इस गर्वोक्ति को सुना। ऐसा आत्मविश्वास आपकी सामाजिक लोकेशन के अलावा भला और कहां से आ सकता है?
संघ बनाम वाम की परस्पर विरोधी राजनीति के छद्म ने जिस तरीके से प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में जन्मजात कब्ज़े की अपारदर्शी, गैर-जवाबदेह और अराजक ज़मीन तैयार की है, उसे तोडने का इलाज केवल सामाजिक न्याय की राजनीति के पास ही है। यह राजनीति आज नहीं तो कल बेशक फलेगी, बात बस सही वक्त के आने और दिल्ली के बहुजन पत्रकार के चौकस होने का है।