अधिकांश न्यूज चैनल्स पर जो दिखाया जाता है उसे देखना भी अब प्रतिबंधित नशे जैसा अपराध लगता है। गांजे और चरस के नशे की तरह ये हमें सम्मोहित कर देते हैं। हमारी खुद की सोचने-समझने की सलाहियत कमजोर पड़ने लगती है।
सुशांत, रिया, कंगना.. पर चौबीसों घंटे जो न्यूज पैकेज दिखाये जा रहे हैं, ये खबरें भी चरस-गांजे की तरह हैं। और इत्तेफाक़ से खबरों के इस पहाड़ को खोदने के बाद गांजे-चरस के नशे की चुहिया ही दिखाई दे रही है। ऐसे नशे की आदतें फिल्म इंडस्ट्री के हर दस में पांच पर हावी हैं।
कभी नफरत तो कभी गांजे की खबरों की अति का आभामंडल देश की आम जनता को बांधे रखने की कोशिश करता है। जिन्दगी की बुनियादी जरुरतों से अलग इन बातों के नशे में हम इतना डूबे रहते हैं कि अपनी रोटी, भूख, नौकरी की जरूरतों पर गौर तक नहीं कर पाते।
जबकि अस्ल मीडिया का काम है कि वो बेरोजगार का दर्द बने। सरकार को भूखे की भूख का अहसास कराये। स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था की खामियों का आइना बने। लेकिन नब्बे प्रतिशत मीडिया ऐसा फर्ज नहीं निभाता।
दरअसल हम जिन्हें मीडिया कहते हैं ये मीडिया हैं ही नहीं। ये लोग पत्रकारिता के एक भी सिद्धांत का पालन नहीं करते हैं। स्टूडियो में बैठकर ये नारी सम्मान की बात करते हैं। कोरोना काल की एहतियातों और सोशल डिस्टेंसिंग का ज्ञान देते हैं। और खुद रिया नाम की एक महिला कलाकार/आरोपी/फौजी की बेटी पर सैकड़ों की तादाद में ऐसे टूट पड़ते हैं जैसे जंगल में पड़ी लाश पर गिद्धों के झुंड टूट पड़ते हैं।
जैसे पुराने जमाने में बारातों में लुटाये जाने वाले नोटों पर सड़क के आवारा लड़के टूट पड़ते थे। भीड़-भाड़, धक्का-मुक्की.. प्रतिस्पर्धा में बदहवासी इतनी की लग रहा है कि एक दूसरे पर चढ़ जायेंगे। कोरोना की इस मुश्किल घड़ी में क्या मीडिया पर्सन की भीड़ वाले इस ऐसे दृश्य देखकर दुनिया हम पर थूक नहीं रही होगी। कोरोना वारियर्स कहे जाने वाली ऐसी मीडिया जो खुद इतनी लापरवाह है वो आम इंसान को सोशल डिस्टेंसिंग की नसीहत देने का हक कैसे रखेगी!
सुशांस मडर मिस्ट्री की कवरेज में कई सौ लोगों की भीड़ की तस्वीरों ने सवाल खड़े कर दिये हैं कि क्या महामारी एक्ट के तहत इनके खिलाफ मुकदमें दर्ज होंगे!
क़ायदे के लोग अब टीवी पर ये सब देखकर मीडिया को गाली देने लगे हैं। हांलाकि मीडिया को कोसना या गाली देना गलत बात है। जिनकी खबरों का चयन, तौर-तरीक़े, अति, पराकाष्ठा.. देखकर आपको गुस्सा आता है ये लोग मीडिया के हैं ही नहीं। ना ये किसी मीडिया हाउस के लिए काम करते हैं। ये गैर जिम्मेदार और स्वार्थी पीआर एजेंसी संचालक जैसे हैं। मनोवैज्ञानिक तरीके से जनता का माइंडसेट कर समाज में अपना एजेंडा सेट करना इनका मुख्य कार्य है। इस काम की सुपारी के तौर पर मिलने वाली बड़ी रक़म से ये अपने बड़े खर्च चलाते हैं।
ये मीडिया के सिद्धांतों के बरक्स (विपरीत) चलते हैं।
इन्हें आप मीडिया कहना ही बंद कर दीजिए। गिद्ध मीडिया, सुपारी मीडिया, कठपुतली मीडिया, दलाल मीडिया… भी मत कहिये। सिर्फ गिद्ध कहिए। केवल नफरत फैलाने वाला गिरोह कहिए। लड़ाई कराने वाले, दलाल, एजेंडाधारी, चापलूस, चाटूकार, ब्लैकमेलर या किसी महिला का चीरहरण करने वाला दुशासन भी आप कह सकते है।
ऐसे लोगों की ऐसी हरकतों के चक्कर में एक साफ-सुथरे प्रोफेशन का नाम बदनाम मत कीजिए।
हमें अपनी परेशानी पर चिंता करने का मौका भी नहीं मिले। हम अकेले में भी चिंतन-मनन नहीं कर सकें। बेरोजगारी, गरीबी, मुफलिसी की फिक्र ना इन टीवी चैनल्स वालों को है और ना ये चाहते हो कि हम समाधान के लिए इस अहसास को जाहिर करें। इसलिए ये सच को दबाने के लिए झूठ की लाश को सड़ाते हैं। उस लाश को भूखे गिद्धों की तरह नोच-नोच कर खाते हैं। फिर इनकी खबरों के जरिये झूठ, बेअहसासी, गंदी सियासत और नफरत के नशे का वायरस घर-घर पंहुच जाता है।
नवेद शिकोह ,पत्रकार हैं और लखनऊ में रहते हैं।