अदालत के फैसले पर गृहमंत्री का ऐसा बयान, जो खबरें नहीं छपती हैं वो तो हैं ही
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आज के अखबारों में लीड तो अलग-अलग है पर द टेलीग्राफ को छोड़कर मेरे बाकी सभी अखबारों ने यह बताने की कोशिश की है कि नए संसद भवन का उद्घाटन नरेन्द्र मोदी द्वारा किए जाने और राष्ट्रपति से नहीं कराए जाने का विरोध दमदार नहीं है या नरेन्द्र मोदी द्वारा उद्घाटन किए जाने के समर्थन में भी कई राजनीतिक दल है। उसपर आने से पहले बता दूं कि ज्यादातर अखबार नरेन्द्र मोदी या भाजपा सरकार का न सिर्फ समर्थन करते हैं बल्कि उसके खिलाफ लगने वाली खबर या शीर्षक को भी स्थान नहीं देते हैं। उदाहरण के लिए आज इंडियन एक्सप्रेस में एक खबर है जिसका शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होता, “मणिपुर की हिंसा हाईकोर्ट के आदेश के कारण ….. सबको न्याय मिलेगा : असम में अमित शाह”। कहने की जरूरत नहीं है कि इस शीर्षक (या बयान) के खतरनाक राजनीतिक मायने हैं और शायद इसीलिये यह शीर्षक दूसरे अखबारों में नहीं है।
पहले तो हम इस शीर्षक को समझने की कोशिश करें। अदालत का काम किसी की नाराजगी की परवाह किये बिना न्याय करना है। जो न्याय हो उसे स्वीकार किया जाना चाहिए और व्यवस्था का काम है कि उसे लागू कराए। न्याय से असंतुष्ट रहने वाले के लिए अपील करने का विकल्प भी है। लेकिन व्यवस्था यह नहीं कह सकती कि वह न्याय को लागू नहीं करवा सकती है या न्याय को लागू करने से कानून व्यवस्था की समस्या हो जाएगी। अदालत ऐसी अपील सुने यह उसका विवेक है लेकिन अदालत के फैसले पर झड़प या हिन्सा हो जाए तो कारण फैसला नहीं, कानून व्यवस्था की खराब स्थिति है। लोगों में कानून का डर नहीं होना है। गृहमंत्री का यह बयान देश के मंत्री के बयान जैसा नहीं, अपने लोगों और अपने विभाग के बचाव में है।
मेरा मानना है कि अदालत का उपयोग अगर ‘क्लीन चिट’ लेने या दिलाने के लिए किया जाने लगे, सरकार अपने अधिकार हासिल करने के लिए करे और मुकदमे जनता से ज्यादा सरकार की ओर से दायर हों तो आम आदमी को न्याय वैसे भी नहीं मिलेगा। जज को पुरस्कार देने और बुलडोजर न्याय के समर्थक ऐसा बोलें तो समझ लेना चाहिए कि न्याय गंभीर खतरे में है। भले ही आज के शीर्षक या बयान में यह भी कहा गया है कि, सबको न्याय मिलेगा। पर जैसा कहा जाता है, न्याय होना ही नहीं चाहिए दिखना भी चाहिए। किसी को क्लीनचिट का न्याय, किसी को तड़ीपार कर दिये जाने का न्याय और किसी के साथ बुलडोजर न्याय – सब एक नहीं है। और जवाब हिंसा या झड़प तो नहीं ही है। खासकर तब जब एक मंत्री को (मनीष सिसोदिया दिल्ली में) पुलिस हिरासत में मीडिया से बात नहीं करने दिया जाता है। उसके साथ बदसलूकी होती है। दूसरी ओर, हिरासत में एक अन्य अभियुक्त को (इलाहाबाद में) बाइट देने का मौका दिया जाता है और फर्जी पत्रकार उसे मारे देते हैं।
जज को पुरस्कार देना, जज के संदिग्ध मौत की जांच न कराने के लिए तर्क देना, उसके लिए वकील की फीस में करोड़ों फूंक देना और सबूत को वसूली का प्रयास बताकर कमजोर को सजा दिलाने जैसी स्थितियों और पुराने उदाहरणों के मद्देनजर आज प्रकाशित यह बयान कहता है कि इस सरकार के राज में न्याय की उम्मीद तो छोड़ दो। मुझे लगता है कि मंत्री को अदालत के फैसले के खिलाफ इस तरह साफ-साफ बोलने की बजाय उनकी आलोचना करनी चाहिए थी जो कानून व्यवस्था को संभाल नहीं सके और हाईकोर्ट के आदेश से नाराजगी जनता पर या सरकारी संपत्ति पर निकाल पाये। डबल इंजन वाले उत्तर प्रदेश में तो फिलहाल ऐसा नहीं हो सकता है फिर मणिपुर में यह नजरिया क्यों? बाबरी मस्जिद मामले में फैसले से पहले, फैसले के आलोक में स्थिति खराब होने की आशंका के मद्देनजर पहले ही व्यवस्था की जाती रही है। यही नहीं, उस समय के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर मस्जिद का नुकसान नहीं होने देने का भरोसा दिया था लेकिन मस्जिद गिरा दी गई तो कल्याण सिंह पर अवमानना की कार्रवाई हुई, सरकार गई और उन्हें एक दिन की प्रतीकात्मक सजा भी हुई थी।
आज नवोदय टाइम्स की लीड का शीर्षक है, संसद के उद्घाटन में शामिल होंगे 25 दल। इस खबर के साथ नरेन्द्र मोदी द्वारा उद्घाटन के समर्थन में दल हैं उनका और जो समर्थन में नहीं हैं या विरोध में हैं उनका भी नाम छपा है। हिन्दुस्तान टाइम्स में इस खबर का शीर्षक है, विपक्ष के संसद बायकाट अभियान को भाजपा पीछे दबा रही है। अखबार ने इस खबर के साथ प्रधानमंत्री की तस्वीर छापी है जिसमें अकेले प्रधानमंत्री और उनके दोनों हाथ उठे हुए दिख रहे हैं। फोटो का कैप्शन है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दिल्ली में अपने समर्थकों का अभिवादन स्वीकार करते हुए। द टेलीग्राफ में इस फोटो का यह कैप्शन तो है ही, ‘देर से आने वालों के लिए’ बताया गया है कि यह तस्वीर नरेन्द्र मोदी के जापान, पापुआ न्यूगिनी और ऑस्ट्रेलिया दौरे से अपनी मात्रभूमि पर उतरने के बाद की है।
द टेलीग्राफ में इस फोटो के साथ पहले पन्ने पर छपी एक खबर का शीर्षक है, ऑस्ट्रेलिया में मोदी द्वारा लोकतंत्र की खोज। इस शीर्षक से अगर मामला समझ में नहीं आया का तो टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर और शीर्षक से आ जाएगा। टाइम्स ऑफ इंडिया में आज लीड का शीर्षक है, प्रधानमंत्री ने परोक्ष रूप से चुटकी ली, ‘ऑस्ट्रेलिया के विपक्षी सांसदों, पूर्व प्रधानमंत्री ने सिडनी के समारोह में हिस्सा लिया’। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस खबर के साथ नए संसद भवन के उद्घाटन की खबर भी छापी है और बताया है कि बीएसपी, जेडीएस और टीडीपी ने बायकाट की अपील को खारिज किया है। इस खबर के साथ प्रधानमंत्री का एक कोट भी है जो पालम हवाई अड्डे पर मौजूद लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा। हिन्दी में यह कुछ इस तरह होगा, मैं जब अपने देश की संस्कृति की बात करता हूं तो मैं दुनिया की आंखों में देखता हूं। यह आत्मविश्वास आया है क्योंकि आपने स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बनाई है। यहां आए हुए लोग वो हैं जो भारत से प्रेम करते हैं न कि पीएम मोदी से।
इसके साथ अमित शाह का कोट है जिन्होंने कहा है, आज मैं कांग्रेस के नेताओं से कहना चाहता हूं कि आपके बायकाट का कोई मतलब नहीं है क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी को पूरे देश के लोगों का आशीर्वाद प्राप्त है और पूरा देश चाहता है कि पीएम मोदी तीसरी बार 300 से ज्यादा सीटों के साथ प्रधानमंत्री बनें। मुझे नहीं लगता है कि इसपर किसी टिप्पणी की आवश्यकता है। यह विपक्ष और विरोध पर सरकार की टिप्पणी है। उस सरकार और उस प्रधानमंत्री के लिए जिसे पूर्व तड़ीपार को गृहमंत्री बनाने में कोई दिक्कत नहीं हुई, एक गृहमंत्री के बेटे पर लगे आरोपों के बावजूद उसे मंत्री पद से हटाने की जरूरत महसूस नहीं हुई और महिला पहलवानों के आरोपों के बावजूद एक सांसद के खिलाफ कार्रवाई नहीं हो रही है। इंडियन एक्सप्रेस ने इस खबर को लीड बनाया है। शीर्षक है, सरकार का समर्थन : बसपा, टीडीपी, जेडी(एस) बायकाट के खिलाफ। इसके साथ वाक्युद्ध शीर्षक से कई महत्वपूर्ण नेताओं के बयान हैं। पर इसका मतलब यह नहीं है कि विपक्ष का एतराज या मुद्दा बेमतलब है या उसपर चर्चा की जरूरत नहीं है। लेकिन अखबारों में ऐसा नहीं है।
कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे मामलों से मुद्दे गायब हो जाते हैं। द हिन्दू में आज एक खबर का शीर्षक है, चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा के पार मॉडल गांव बनवा रहा है। जाहिर है, यह खबर पर्याप्त महत्वपूर्ण और चिन्ताजनक है लेकिन सरकार के लिए विपक्ष का विरोध मुद्दा है और प्रधानमंत्री को उद्घाटन पुरुष बनाए रखना है। इसी तरह आज एक और खबर महत्वपूर्ण है। इसके अनुसार, 2018 में एक व्यक्ति की हत्या करने के आरोप में राजस्थान के चार गौरक्षकों को सात साल की जेल हुई है। यही नहीं, टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर के अनुसार आजम खान के खिलाफा घृणा फैलाने वाले मामले में शिकायतकर्ता अनिल कुमार चौहान, जो सरकारी कर्मचारी है, ने कहा है कि उससे डीएम ने शिकायत दर्ज कराने के लिए कहा था और इस आधार पर आजम खान के खिलाफ फैसला पलट गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसी हालत में, इन खबरों के बीच वास्तविकता समझना मुश्किल नहीं है। पर ये खबरें छपें, लोगों का मालूम हो तब ना? जहां तक अखबारों की बात है मुख्यमंत्री का चुनाव नहीं होने पर चिन्तित रहने वाले अखबार वहां की सरकार के फैसलों से संबंधित खबरें दे रहे हैं? उसपर फिर कभी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।