लेबर की बढ़त को पचा नहीं सका ब्रिटिश मीडिया, जेरेमी कॉर्बिन पर फिर साधा निशाना

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प्रकाश के रे 

सोशल मीडिया और न्यू मीडिया के जरिये फर्जी खबरें फैलाने या सूचनाओं को संदर्भ से काटकर परोसने की कवायद से हम सब वाकिफ हैं, लेकिन सबसे बड़ा खतरा कथित रूप से मुख्यधारा के अखबारों, चैनलों और वेबसाइटों से हैं, जो अपनी साख और पहुंच का नाजायज फायदा उठाकर गलत खबरें देने और तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने के काम में जुटे हुए हैं. यह भारत में भी हो रहा है और ब्रिटेन एवं अमेरिका जैसे देशों में भी. बीते महीनों में लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कॉर्बिन के खिलाफ बीबीसी से लेकर टेबलॉयड अखबारों ने तरह-तरह के बेबुनियाद आरोप लगाए हैं और लेबर पार्टी से जुड़े विवादों को खूब उछाला गया है, जबकि कई तरह के संकट का सामना कर रहीं प्रधानमंत्री थेरेसा मे और उनकी सरकार पर संभल कर रिपोर्टिंग की जा रही है. हद देखिए, बीबीसी ने ब्रिटिश चुनावों में रूसी दखल पर एक कार्यक्रम में क्रेमलिन की पृष्ठभूमि में कॉर्बिन को फोटोशॉप के जरिये रूसी टोपी में खड़ा कर दिया तथा द सन ने बड़ी रिपोर्ट छापी कि कॉर्बिन रूसी राष्ट्रपति पुतिन से मदद ले रहे हैं. ब्रिटिश मीडिया के गैरजिम्मेदाराना रवैये की ताजा नजीर इंग्लैंड के स्थानीय निकायों के हालिया चुनावों की रिपोर्टिंग और विश्लेषण हैं.

क्या रहे इंग्लैंड चुनाव के नतीजे
आइए, पहले चुनाव के नतीजों पर एक नजर डालते हैं. ब्रिटेन के सबसे बड़े घटक इंग्लैंड के छह शहरों- शेफील्ड, हेकनी, लेवीशैम, न्यूहैम, टावर हैमलेट्स एवं वाटफोर्ड- के मेयरों के सीधे चुनाव के लिए वोट डाले गए. शेफील्ड में पहली बार मेयर का चुनाव हुआ है और इसे लेबर पार्टी के डान जार्विस ने जीता है. पहले चरण में उन्हें 47 फीसदी से कुछ अधिक वोट मिले थे और इस कारण दूसरी पसंद के वोटों की गिनती करनी पड़ी थी. इस गणना में उन्हें कंजरवेटिव उम्मीदवार से करीब तीन गुना अधिक मत मिले और वे विजयी घोषित किये गये. वाटफोर्ड पहले से लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के कब्जे में था और उनका कब्जा बरकरार रहा है. यहां भी दूसरी पसंद के मतों की गिनती करनी पड़ी थी और यहां लेबर पार्टी दूसरे स्थान पर रही है. अन्य चार शहरों पर बड़े अंतर से लेबर पार्टी का कब्जा कायम रहा है.
इन छह शहरों के मेयर के अलावा 150 कौंसिलों के लिए भी मतदान हुआ था. कंजरवेटिव पार्टी को चार कौंसिलों पर कब्जा मिला है, जबकि छह पर वह हार गई है. लेबर को तीन कौंसिलों का फायदा हुआ है और तीन का नुकसान हुआ है. लिबरल डेमोक्रेट को सीधे चार कौंसिलों का फायदा मिला है. पहले छह ऐसी कौंसिलें थीं, जिन पर किसी भी दल का नियंत्रण नहीं था. इस बार ऐसी चार कौंसिलें हैं जिनमें से दो ऐसी हैं जो पहले लेबर के पास थीं.
काउंसिल की सीटों के लिहाज से नतीजें इस प्रकार हैं- कंजरवेटिव को कुल 1332 सीटें मिली हैं और उसे 33 सीटों का नुकसान हुआ है. लेबर पार्टी को 2350 सीटें मिली हैं और उसे 77 सीटों का लाभ हुआ है. लिबरल डेमोक्रेटिक 75 सीटों के फायदे के साथ 536 के आंकड़े पर है. ग्रीन पार्टी को 39 सीटें आई हैं और उसे आठ सीटों का फायदा है. यूकिप 123 सीटों के नुकसान के साथ तीन सीटों पर सिमट गई है. अन्यों को चार सीटों का नुकसान है और उनके खाते में 144 सीटें आई हैं. लंदन में 1971 के बाद से लेबर पार्टी को सबसे बड़ी बढ़त मिली है.  बर्मिंघम, मैनचेस्टर और लीड्स जैसे बड़े कौंसिलों में लेबर ने कब्जा कायम रखते हुए भारी जीत दर्ज की है. कस्बाई इलाकों में कंजरवेटिव पार्टी की बढ़त है, पर वहां भी लेबर ने अपने वोटों में इजाफा किया है.
क्या लिखा और बोला मीडिया ने
ऊपर जो नतीजें हैं, वे साफ बता रहे हैं कि अन्य सभी पार्टियों को मिले सीटों से कहीं अधिक सीटें लेबर पार्टी के खाते में हैं. इसका एक सीधा मतलब यह है कि जेरेमी कॉर्बिन के नेतृत्व में लेबर पार्टी अपनी बढ़त बरकरार रखे हुए है और 2014 के चुनावों की जीत को बनाये रखने की कम-से-कम उनमें क्षमता तो है ही. पर बीबीसी समेत कई अहम मीडिया संस्थाओं ने इसे ‘मिलाजुला नतीजा’ बताया. इसका एक आधार उन्होंने लंदन के वांडस्वर्थ और वेस्टमिंस्टर में कंजरवेटिव जीत को बनाया. ये इलाके पहले से ही कंजरवेटिव वर्चस्व के इलाके हैं और यहां भी लेबर का वोट बढ़ा है. साल 1986 के बाद इन दो इलाकों में लेबर पार्टी ने सबसे अच्छा प्रदर्शन किया है. जैसा कि ऊपर लिखा गया है कि लंदन में 1971 के बाद की लेबर की सबसे बड़ी जीत है और उसने 2014 के नतीजों को बेहतर किया है.
जैसा कि बेन गेलब्लम और अन्य टिप्पणीकारों ने रेखांकित किया है कि लेबर पार्टी को मिले वोटों के आधार पर यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि संसदीय चुनाव में उसे बहुमत मिला सकता है. इसके बावजूद मीडिया और पार्टी के भीतर कुछ विरोधी यहां तक कहने लगे कि कॉर्बिन आम चुनाव नहीं जीता सकते या यह कि कॉर्बिन का प्रभाव अपने चरम पर पहुंच चुका है, अब इससे आगे वे पार्टी को नहीं ले जा सकते. द टेलीग्राफ ने यह लिखते हुए यह भी लिख दिया कि पार्टी को यहूदी मतदाताओं ने वोट नहीं दिया है, जबकि ऐसे निष्कर्षों के लिए कोई ठोस आधार नहीं बताया गया.
पिछली कैमरन सरकार में दूसरे अहम पद सेक्रेटरी ऑफ एक्सचेकर रह चुके जॉर्ज ऑस्बॉर्न द्वारा संपादित द इवनिंग स्टैंडर्ड ने ‘ओह नो जेरेमी कॉर्बिन’ की हेडलाइन तक लिख डाली. अखबार का कहना था कि पार्टी ने लंदन में खराब प्रदर्शन किया है. मजे की बात है कि नतीजों के बिल्कुल साफ हो जाने के बावजूद ऐसे विश्लेषणों का सिलसिला जारी है. लेकिन कॉर्बिन और इस चुनाव में बड़ी भूमिका निभाने वाला मोमेंटम अभियान इन बातों से परेशान नहीं है. लेबर नेता ने कहा है कि पूरे देश में पार्टी ने सीटें जीती हैं और ऐसे इलाकों में वोट हासिल किया है, जहां पहले उसका वजूद नहीं था.
नतीजों पर कुछ बातें
पत्रकार ओवन जोन्स ने मोमेंटम की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि इसने 47 साल में सबसे बड़ी जीत हासिल करने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है. द स्पेक्टेटर ने लिखा है कि दक्षिणपंथी कॉर्बिन के पीछे खड़ी ताकत का अंदाजा लगाने में चूक गए. चूंकि काउंसिल चुनावों में स्थानीय मुद्दों की प्रमुखता रहती है, इसलिए पार्टियों के कार्यकर्ताओं पर प्रचार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती है. हाउस ऑफ कॉमन्स लाइब्रेरी के आंकड़ों के हवाले से स्पेक्टेटर ने लिखा है कि कंजरवेटिव पार्टी की सदस्यता में करीब सवा लाख की कमी आई है. इस पार्टी के लोग प्रचार में सक्रियता दिखाने के मामले में भी ढीले हैं. ऐसे में लेबर पार्टी में कॉर्बिन समर्थकों के समूह मोमेंटम का महत्व काफी बढ़ जाता है. मोमेंटम पार्टी के भीतर और बाहर कॉर्बिन की नीतियों का प्रचार-प्रसार करता है. आज लेबर पार्टी यूरोप की सबसे बड़ी पोलिटिकल पार्टी है. अभी लेबर पार्टी के सदस्यों की संख्या साढ़े पांच लाख से अधिक है. मोमेंटम की अपनी सदस्यता 40 हजार से अधिक है जो कि यूकिप और ग्रीन पार्टी से अधिक है. मोमेंटम अभी अभियान चला रहा है कि 2022 तक उसकी सदस्यता कंजरवेटिव पार्टी से अधिक हो जाये.
मोमेंटम और कॉर्बिन की सफलता तथा स्थानीय निकायों के चुनावों के विश्लेषण में एक अहम बात यह भी रेखांकित की जानी चाहिए कि धुर और आक्रामक दक्षिणपंथ, जो कि फासीवाद के बेहद करीब है, की बढ़त को निर्णायक चोट लगी है. इसमें कॉर्बिन की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है. काउंसिल चुनावों में यूकिप, ब्रिटिश नेशनल पार्टी और फॉर ब्रिटेन मूवमेंट का तंबू पूरी तरह उखड़ गया है. यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि ब्रेक्जिट के भारी समर्थन वाले इलाकों में कंजरवेटिव पार्टी को (यूकिप के न होने से) फायदा हुआ, वहीं ब्रेक्जिट विरोधी इलाकों और युवा मतदाताओं के क्षेत्रों में लेबर को वोट मिला है.
आने वाले दिनों में लेबर की बढ़त बने रहने के आसार भी इन नतीजों में हैं. सामाजिक विषमता की खाई और दरारों ने इंग्लैंड को बांट दिया है. कामकाजी और कम आय के मतदाताओं में लेबर के प्रति भरोसा बढ़ा है, हालांकि कॉर्बिन को एक बार फिर पार्टी के भीतर विरोधियों से जूझना है, पर वे अपनी नीतियों पर ही चलते रहेंगे, जो कि वे तीन दशकों से अधिक समय से कर रहे हैं. ब्रेक्जिट की चुनौतियों का कैसे थेरेसा मे सामना करेंगी, उनकी पार्टी के भीतर खलबली का क्या होगा, कॉमनवेल्थ को पुनर्जीवित कर आर्थिक साझा बनाने की कोशिशों का क्या होता है, अमेरिका और फ्रांस के साथ क्या संतुलन बनता है, लेबर पार्टी कितना दबाव बना पाती है, ऐसे कई मसले हैं जिन पर आगे की राजनीति तय होगी. और, सबसे अहम यह कि ब्रिटिश मुख्यधारा का मीडिया मतदाताओं को कॉर्बिन के खिलाफ बरगलाने में किस हद तक कामयाब या नाकामयाब होता है.

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं 


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