भारतीय मीडिया से तुलना करते वक्‍त अमरीकी मीडिया की जंगबाज़ी के इतिहास को न भूलें…

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प्रकाश के रे

इराक़, अफ़ग़ानिस्तान और लीबिया पर हमलों की बात चली है, तो यह सनद रहे कि इन युद्धों में मीडिया की भूमिका को कभी भूला नहीं जाना चाहिए. इराक़ हमले में झूठ का पर्दाफ़ाश चिलकॉट कमिटी की रिपोर्ट ने कर दिया है.

इस बारे में एक अहम विश्लेषण ‘स्टॉप द वार’ का है.

मीडिया मॉनीटर नेटवर्क ने एक लेख में बीबीसी के जॉन वेयर के विश्लेषण का अध्ययन किया है.

जिन लोगों को सीएनएन व फ़ॉक्स न्यूज़ तथा युद्धों के अंतरसबंधों में दिलचस्पी हो, तो डेबोराह जारामिलो की किताब ‘अगली वार, प्रीटी पैकेजः हाउ सीएनएन एंड फ़ॉक्स न्यूज़ मेड द इन्वेज़न ऑफ़ इराक़ हाइ कॉन्सेप्ट’ देख सकते हैं.

सीएनएन ने इराक़ युद्ध का कैसे कवरेज़ किया था, इस पर शकेर महमदी का एक शोध-पत्र भी है, जो पिछले साल मार्च में ‘मेडिटेरेनियन जर्नल ऑफ़ सोशल साइंसेज़’ में छपा था.

Framing the Other in Times of Conflicts CNNs Coverage of the 2003 Iraq War”]

इस संबंध में जेम्स राइज़ेन का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है. राइज़ेन ने ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में खोजी रिपोर्टर के रूप में काम कर चुके हैं. उन्होंने जॉर्ज बुश प्रशासन द्वारा सत्ता के दुरुपयोग पर कई रिपोर्ट लिखी हैं. साल 2006 में छपी उनकी किताब ‘स्टेट ऑफ़ वार: द सेक्रेट हिस्ट्री ऑफ़ द सीआइए एंड द बुश एडमिनिस्ट्रेशन’ बहुत चर्चित हुई थी. इस किताब में एक अध्याय में उन्होंने सीआइए के किसी विफल ऑपरेशन के बारे में लिखा है. इस ख़बर के सूत्र के बारे में बताने के लिए उन्हें ओबामा प्रशासन की ओर से बहुत दबाव डाला गया था. उन्हें कचहरी में भी घसीटा गया था. इस साल के शुरू में ‘द इंटरसेप्ट’ में लिखे अपने लेख में उन्होंने लिखा है कि उनका मामला भी उस प्रक्रिया का हिस्सा था जिसमें बुश दौर में रिपोर्टरों और व्हिसिलब्लोवरों पर व्यापक दमन और दबाव का सिलसिला शुरू हुआ था और यह प्रक्रिया ओबामा प्रशासन के दौर में और अधिक सघन हुई थी.

इसी लेख में राइज़ेन ने बताया है कि ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने अमेरिकी ख़ुफ़िया जानकरी, ख़ासकर इराक़ और अल-क़ायदा के रिश्तों के बारे में, पर सवाल उठानेवाली उनकी रिपोर्टों को या तो काट-छाँट कर छापा जाता था या फिर दबा दिया जाता था या उस मसले पर चुप्पी लगा ली जाती थी. इस बाबत उन्होंने एक दिलचस्प कहानी लिखी है. राइज़ेन की कुछ ही ख़बरें पहले पन्ने पर छप पाती थीं. एक ख़बर जो छप सकी थी, उसमें इन्होंने उन ख़ुफ़िया बातों पर शंका जतायी थी जिनमें कहा गया था कि 9/11 की साज़िश रचनेवाले मोहम्मद अत्ता ने हमले से पहले प्राग में इराक़ी जासूस से मुलाक़ात की थी. न्यूयॉर्क में अख़बार के खोजी रिपोर्टों के संपादक डॉव फ़्रांज़ इस ख़बर को पहले पन्ने पर छापना चाहते थे, पर उन्हें यह चिंता थी कि वरिष्ठ संपादकों की बैठक में इसे नकार दिया जायेगा. सो, उन्होंने इस ख़बर को पहले पन्ने पर छापने के लिए रविवार का दिन चुना, जब वरिष्ठ संपादक अमूमन बैठक में शामिल नहीं होते थे. राइज़ेन ने लिखा है कि उस वक़्त अख़बार में कई लोग मानते थे कि तब के एक़्ज़ेक्यूटिव एडिटर होवेल रेनेस युद्ध को सही ठहरानेवाली ख़बरों को प्राथमिकता देते थे.

Judith Miller, former NYT

उन्हीं दिनों ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में जुडिथ मिलर लगातार रिपोर्टिंग कर रही थीं कि सद्दाम हुसैन के पास महाविनाश के हथियार हैं. साल 2002 में अख़बार की जिस टीम को पुलिट्ज़र पुरस्कार मिला था, उसमें मिलर भी थीं और राइज़ेन भी. राइज़ेन के इस लम्बे आलेख को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए. इससे अमेरिकी सरकार, मीडिया और पत्रकारिता के बारे में बहुत कुछ जानने को मिल सकता है. बहरहाल, मिलर की बात चली है, तो कुछ उनके बारे में भी. मिलर बहुत अरसे से अमेरिकी पत्रकारिता की स्टार रिपोर्टर रही हैं और उन्होंने तमाम बड़े पुरस्कार जीते हैं. इराक़ हमले के दौरान जहाँ बुश प्रशासन में भीतर तक उनकी पहुँच ने उनकी रिपोर्टिंग में मदद पहुँचाया, वहीं उन्हें इराक़ के चालाक राजनेता अहमद चलाबी से भी ख़ूब सनसनीख़ेज़ ख़बरें मिलीं. चलाबी सद्दाम हुसैन के बाद इराक़ की गवर्निंग काउंसिल का मुखिया बना था. बाद में वह तेल मंत्री हुआ, उप-प्रधानमंत्री हुआ और फिर प्रधानमंत्री भी बना. वह इतना धूर्त था कि आख़िर में उसे उसके अमेरिकी आक़ाओं ने भी पीछा छुड़ा लिया. उसकी कहानी के सामने अच्छे से अच्छा थ्रिलर भी फीका पड़ जायेगा. यही चलाबी ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ की जूडिथ मिलर का सबसे बड़ा, बल्कि एकमात्र ‘सोर्स’ था, जो बताता था कि सद्दाम हुसैन के पास महाविनाश के हथियार हैं. यही बुश प्रशासन का सबसे बड़ा तर्क बना और हमारी शब्दावली में ‘डब्ल्यूएमडी’ आया. सालों बाद जब इस अख़बार के कवरेज़ की निंदा होने लगी, तो अख़बार ने अपनी छवि में सुधार की कोशिश के रूप में अहमद चलाबी पर अनेक रिपोर्ट और लेख छापे, लेकिन उसने कभी यह स्वीकार नहीं किया कि चलाबी के ज़रिये ही उसने महाझूठ का कारोबार किया था.

साल 2004 में दबाव बहुत बढ़ने पर दसवें पन्ने पर तत्कालीन एक़्ज़ेक्यूटिव एडिटर बिल केलर ने एक नोट लिखा और कवरेज़ में सद्दाम हुसैन को हटाने पर आमादा उनके राजनीतिक दुश्मनों पर अपनी निर्भरता के लिए खेद जताया. उसमें चलाबी को तो इंगित किया गया था, किंतु मिलर का कोई उल्लेख नहीं किया गया था. ‘द न्यूयॉर्क रिव्यू ऑफ़ बुक्स’ में माइकल मैसिंग ने तो 2004 में यहाँ तक लिख दिया कि मिलर युद्ध के कवरेज़ में मीडिया के ‘दब्बूपन’ का सबूत हैं.

मैसिंग के लेख में अमेरिकी मीडिया के अन्य कुछ पत्रकारों, चैनलों और अख़बारों की भूमिका पर भी टिप्पणी की गयी है. जूडिथ मिलर के इराक़ युद्ध पर रिपोर्टों और उनके स्टार पत्रकार बनने की कहानी को ‘न्यूयॉर्क मैगज़ीन’ में छपे फ़्रैंकलिन फ़ोएर के लम्बे लेख में पढ़ा जा सकता है.

अमेरिकी मीडिया का ख़तरनाक चरित्र कोई नयी बात नहीं है. क़रीब सौ साल पहले 1920 के की दहाई में जब इटली में बेनितो मुसोलिनी का दौर आया, तो देश से बाहर उसकी साख बनाने में अमेरिकी अख़बारों की सबसे अहम भूमिका रही थी. जर्मनी में हिटलर को उभार को ‘जर्मन मुसोलिनी’ कहकर सुर्ख़ियाँ बनायी गयीं. साल 2016 में ‘द कनवरसेशन’ में प्रकाशित एक लेख में उस समय प्रेस के रवैये को खंगाला गया है. आज जब हमारे देश में और दुनिया के कई हिस्सों में नव-फ़ासीवाद उफान पर है, तो यह लेख मीडिया की भूमिका को समझने में हमारी मदद कर सकता है.

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(जारी)