प्रवीण कुमार सिंह
ज़फरूद्दीन के साथ इस साल 31 जुलाई को गुड़गांव में दो लोगों ने मारपीट करके जबरदस्ती उसकी दाढ़ी कटवा दी थी। जफरूद्दीन को लगा कि दाढ़ी नहीं, उसके वजूद को काट कर फेंका जा रहा है। वे दोनों मोबाइल से विडियो खींचते रहे और अट्टहास करते रहे।
जफरूद्दीन कहता है- ‘’साहब मैंने तीन महीने पहले अपनी शादी में भी दाढ़ी नहीं कटवाया था, ये फोटो देखिये। दाढ़ी रखकर मैनें क्या गुनाह किया है?’’ इस घटना से वह अब तक उबर नहीं पाया है। सदमे और तनाव में है।
खेती-बाड़ी और पशुपालन घाटे का सौदा बन जाने से मेवात के तमाम लोग अपने पुश्तैनी पेशों को छोड़ नये-नये धंधे अपनाने लगे हैं। जफरूद्दीन गुड़गांव में छोटा सा ढाबा चला कर अपना गुजर बसर करता है। उसका गांव बादली नूह में है, जो मेवात का हिस्सा है। हरियाणा और राजस्थान में फैले मेवात का सामाजिक ढ़ांचा और मिलीजुली संस्कृति हमेशा से शोधकर्ताओं के दिलचस्पी का विषय रही है। बाहरी लोगों के लिए पगड़ीधारी मेवातियों में कौन हिन्दू और कौन मुसलमान, यह पहचान पाना कई बार मुश्किल हो जाता है।
दिल्ली से तीन घंटे की दूरी पर स्थित मेवात अब भी आधुनिकता और तरक्की से कोसों दूर है। यहां के ज्यादातर लोग अशिक्षित हैं। मेवातियों की रोजी-रोटी का मुख्य साधन खेती और पशुपालपन है। ज्यादातर मेवाती गौपालक हैं। बीती 20 जुलाई को अलवर में कथित गौरक्षको ने इसी क्षेत्र के गोपालक अकबर उर्फ रकबर को पीट-पीटकर मार डाला था। खेती-बाड़ी के अलावा उसके दूध बेचकर अपना पेट पालता था।
मुझे याद है कि 2005 में मेरे जिले मऊ में साम्प्रदायिक दंगा हुआ था। मेरे गांव में कुछ लोग जो हिन्दू कट्टरपंथी संगठन से जुड़े हुए थे, प्रचार करने लगे कि हिन्दुओं पर शहर में खूब अत्याचार हुआ है, हम शान्त नहीं बैठेंगे, चक्काजाम करेंगे। देखा-देखी ढेर सारे लोग उनके साथ हो लिए। दंगाई भीड़ गांव के बाजार में चक्काजाम कर साम्प्रदायिक नारे लगाने लगी। तभी एक सवारी जीप आयी। जीप में आगे एक मुस्लिम युवक बैठा हुआ था जिसने दाढ़ी रखी थी और टोपी लगायी थी। उस हुजूम में से किसी व्यक्ति ने मुस्लिम युवक को खींच लिया और मारने लगे। मैं दौड़ते हुए वहां पहुंचा और किसी तरह से उन्मादी भीड़ से उस युवक को बचाया।
उस वक्त ‘लिचिंग’ जैसा शब्द चर्चा में नहीं था। ऐसी घटनाएं बहुत कम होती थीं लेकिन इधर कुछ वर्षों में ऐसी खबरों की बाढ़ सी आ गई है। गाय के नाम पर पिछले कुछ वर्षों में 33 लोगों की हत्या हो चुकी है। दादरी के पास बिसहड़ा में एक अफवाह के आधार पर उन्मादी भीड़ ने अखलाक की हत्या कर दी थी। वह इस सिलसिले में पहली हत्या थी और रकबर इस सूची में आखिरी नाम था। अब बुलंदशहर में गोकशी के मामले में उन्मादी भीड़ ने एक इंस्पेक्टर की जान ले ली है, जो कि सबसे ताज़ा गौर गर्म मामला है।
सुप्रीम कोर्ट भीडतंत्र के उन्माद पर चिंता जाहिर कर चुका है। इसे रोकने के लिए सरकार और संसद को कठोर कानून बनाने का आदेश दे चुका है। उन्माद पर तो सभी सोच रहे है, लेकिन सवाल है कि इंसान ‘उन्मादी’ बनता कैसे है? हम अकेले होते हैं। फिर अफवाह सुनकर समूह बनते हैं। फिर भीड़! उसके बाद हम ‘उन्मादी’ बन जाते हैं। यह उन्माद केल साम्प्रदायिक वजह से नहीं पैदा होता है1 जातिवादी, क्षेत्रवादी और नस्ली भी हो सकता है। एक गैर सरकारी रिपोर्ट के अनुसार इन घटनाओं के शिकार 66 प्रतिशत मुस्लिम और 11 प्रतिशत दलित हैं।
सनद रहे कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में नौजवानों के बीच आजकल गले में केसरिया गमछा डालना और मोटरसाइकिल पर ‘योगी सेवक’ का विज्ञापन लिखवाना फैशन में शुमार हो चुका है। इसकी शुरूआत 2004 के बाद योगी आदित्यनाथ के राजनीतिक उभार के साथ हुई। आजकल तो कांवडि़ये भी उन्मादी हो गये हैं। इनके कांवड़ पर केसरिया के साथ-साथ तिरंगा झंडा और हाथ में डंडा होता है। अगर किसी ने इनके साथ बतकही की, तो आफत है।
रंगकर्मी शाहिद कबीर की ताजातरीन फिल्म ‘उन्माद’ प्रायोजित हिंसक भीड़ की मानसिकता और अन्य आयामों की बरीकी से जांच-पड़ताल करती है। वे फिल्म के माध्यम से बताते हैं कि सामूहिक उन्माद के पीछे की मुख्य वजह ‘हेट स्पीच’ यानी नफरत भरा प्रचार है। सुनने वाला उसको सत्य मानकर आंख बंद करके विश्वास कर लेता है। फिर वो उन्मादी बन जाता है। यह उन्माद सामने वाले का जाति, धर्म या पहचान नहीं देखता। भीड़ को एक शिकार की ज़रूरत होती है। कभी वह अख़लाक और रकबर को शिकार बनाती है तो कभी चंदन गुप्ता और सुबोध सिंह को।
उन्मादी भीड़ की राजनीतिक दीक्षा चाहे जो हो, अपनी प्यास बुझाने के लिए उसे एक अदद लाश की दरकार होती है। राहत इंदौरी गलत नहीं कहते:
लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में / यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है…