स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता की चिंता के बीच मुकदमेबाजी के लिए मजबूर करती सरकार 

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
मीडिया Published On :


 

इंडियन एक्सप्रेस में एक दिन में तीन जैकट और द टेलीग्राफ में कभी एक भी नहीं 

 

इंडियन एक्सप्रेस का पहला पन्ना आज (7 जुलाई 2023) ) सातवें पन्ने से शुरू हो रहा है। इससे पहले उसने आज तीन जैकेट पहने हैं। सबसे पहले एक कोचिंग संस्थान का विज्ञापन है जो अखबार के दूसरे पन्ने पर जारी है यानी दो पन्ने का विज्ञापन एक साथ। कहने की जरूरत नहीं है कि यह इंडियन एक्सप्रेस का अपना विज्ञापन है और उसके पाठकों के लिए दिया गया है या इंडियन एक्सप्रेस की कमाई है तथा विज्ञापनदाता की मजबूरी है कि उन पाठकों तक इंडियन एक्सप्रेस के जरिए ही पहुंचा जा सकता है। दूसरा विज्ञापन, इंडियन सेल्यूलर एंड इलेक्ट्रॉनिक्स एसोसिएशन (आईसीईए) का है जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अमेरिका की उनकी ऐतिहासिक यात्रा के लिए बधाई दे रहा है। मैं इस विज्ञापन की चर्चा की जरूरत नहीं समझता। चौथे पन्ने पर वर्गीकृत विज्ञापन और निविदाएं हैं जो ऐसे मामलों में रहती हैं। इसपर भी कुछ कहने की जरूरत नहीं है। तीसरा विज्ञापन उत्तर प्रदेश सरकार का है। इस बारे में भी कुछ बोलने की जरूरत नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस के बारे में बहुत पहले रामनाथ गोयनका ने कहा था वह बिल्डिंग के किराये से चलता है और इसीलिए स्वतंत्र रह पाता है। अब रामनाथ गोयनका रहे नहीं, संपत्ति का बंटावारा हो चुका और उसमें क्या किसके पास कैसे गया वह लंबी कहानी है पर सच यही है कि दिल्ली का एक्सप्रेस बिल्डिंग किराये पर है और जनसत्ता व इंडियन एक्सप्रेस उत्तर प्रदेश के नोएडा की अलग इमारतों से निकलता है। 

ऐसे में बहादुरशाह जफर मार्ग का नाम राम नाथ गोयनका मार्ग हो सकता है, होना चाहिए। इसके बिना नोएडा में राम नाथ गोयनका के नाम पर मार्ग होना उपलब्धि है या नहीं मैं नहीं कह सकता। इन विज्ञापनों के बावजूद इंडियन एक्सप्रेस की पत्रकारिता अभी तक काफी बची हुई है। बोफर्स के जमाने में खुद को सत्ता विरोधी कहने वाले संस्थान में उस समय अरुण शौरी समेत कितने प्रचारक थे यह अब सर्वविदित है। ऐसे में इंडियन एक्सप्रेस में अभी भी सरकार विरोधी खबरें छप जाना मायने रखता है और मौजूदा व भावी अखबार (मीडिया) मालिकों को इससे सीख लेनी चाहिए। जहां तक सरकार की बात है, उसे मैं स्वतंत्र पत्रकारिता का संरक्षक तब मानता जब कभी द टेलीग्राफ में संघ समर्थक किसी सरकार या संस्थान का विज्ञापन दिखता। कहने की जरूरत नहीं है कि है टेलीग्राफ के पाठकों तक पहुंचने का भी दूसरा तरीका नहीं है लेकिन कोचिंग संस्थान को छोड़िये सरकार को इसकी जरूरत भी क्यों पड़े। हालांकि, वह अलग मुद्दा है। जहां तक द टेलीग्राफ की बात है, मुझे याद नहीं है कि मैंने आज उसे किसी का जैकेट पहने देखा हो। और संभव है यही उसके निष्पक्ष बने रहने का कारण हो। उसकी बिल्डिंग और किरायेदारों के बारे में मैं नहीं जानता। 

विज्ञापनों की चर्चा इसलिए कि अभी हाल में एक खबर से पता चला कि सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार से उसके विज्ञापनों का ब्यौरा मांगा है। भारतीय जनता पार्टी ने इसका उपयोग आम आदमी के खिलाफ प्रचार के लिए किया है जबकि केद्र की भारतीय जनता पार्टी की सरकार के बारे में जाना जाता है कि वह विज्ञापनों का उपयोग मीडिया को नियंत्रित करने के लिए करती रही है। बाद में यही तरीका आम आदमी पार्टी ने अपनाया तो केंद्र की सरकार पर छापे और कार्रवाई का डर दिखाने का भी आरोप लगा है। बीबीसी की फिल्म पर प्रतिबंध और बीबीसी के दफ्तर पर छापा तथा कश्मीर फाइल्स तथा केरला स्टोरी का सरकारी प्रचार इसके उदाहरण हैं। ऐसे माहौल में सरकार सूचना तकनालाजी नियमों को ऐसा बनाना चाहती है कि सोशल मीडिया मंच पर वही खबर रहें जो सरकार चाहे। इससे संबंधित एक मामला मुंबई हाईकोर्ट में चल रहा है और इंडियन एक्सप्रेस ने आज इसकी खबर पहले पन्ने पर छापी है। शीर्षक है, “जब आपके पास पीआईबी है तो आपको फैक्टचेक यूनिट की जरूरत क्यों है …. केंद्र चुप : बांबे हाईकोर्ट”। उपशीर्षक है, “अगर कानून का प्रभाव असंवैधानिक है तो इसे जाना होगा भले उद्देश्य प्रशंसनीय हैं :पीठ।”

कहने की जरूरत नहीं है कि इस खबर के अनुसार सरकार जो स्थायी तौर पर करना चाहती है इमरजेंसी में सेंसर मतलब मोटा-मोटी यही अस्थायी तौर पर था। तब की सरकार नहीं चाहती थी कि इमरजेंसी में प्रतिकूल खबर छपे अब की सरकार नहीं चाहती है कि कभी उसके खिलाफ कोई खबर छपे और अगर कहीं कोई चर्चा भी हो तो वह बाद में देखने लायक रहे (जो इमरजेंसी के समय सोचा ही नहीं गया होगा)। इसलिए सरकार चाहती है कि समय रहते उसे हटाने की स्थायी व्यवस्था हो जाए। यहां दिलचस्प यह भी है कि सरकार अभी ही जिन खबरों को हटाने या हटवाने के लिए सक्रिय रहती है और जिनपर प्रतिक्रिया भी नहीं करती वह स्पष्ट रूप से सरकार के घोषित या अघोषित समर्थन में होती है या फिर स्पष्ट रूप से विरोध में। खबरों के मामले में सरकारी रवैया एक जैसा नहीं है जबकि स्वतंत्र प्रेस सुनिश्चित करना सरकार का काम है और इमरजेंसी  इंदिरा गांधी का विरोध इसके लिए भी किया जाता है। यही नहीं, सरकार को ही सुनिश्चित करना है कि किसी की भी मानहानि वाली खबरें न हों और मीडिया स्वतंत्र हो। 

यह दिलचस्प है कि इंडियन एक्सप्रेस में एक खबर सरकार के आईटी कानूनों की खामियों पर मुकदमे की चर्चा से संबंधित है तो आज की लीड यूनिफॉर्म सिविल कोड के बचाव में है और सूत्रों के हवाले से है। इसके साथ एक्सप्रेस एक्सप्लेन्ड भी है जो बताता है कि मामला यूनिफॉर्म है, कॉमन नहीं। मोटे तौर पर यह कि इसका मकसद सबके लिए एक कानून  नहीं, एक जैसा कानून है। पर इसका ड्राफ्ट कैसा होगा इसका अंदाजा आईटी ऐक्ट के मसौदे से लगता है और यहां याद आता है कि अनुच्छेद 370 हटाने के लिए जारी आदेश में 50 से ज्यादा टाइपिंग और हिज्जे की गलतियां थीं जिन्हें बाद में अलग आदेश निकाल कर सुधारा गया था और अब सुप्रीम कोर्ट की पीठ उसपर सुनवाई करेगा। इस तरह 18 घंटे काम करने वाली सरकार या काम करने वाले मुखिया की सरकार कानून बनाने, कार्रवाई करने और अदालतों में उसके बचाव में लगी है। जनहित पीछे रह गया है। पर वह मुद्दा ही नहीं है। सरकार (डबल इंजन वाली सरकारें) चुनाव के लिए माहौल बनाने और जहां जरूरी हो बचाव में लगी है और इसमें ब्रज भूषण सिंह का मामला शांत हो चुका है। धीरे-धीरे मणिपुर को भी लोग भूल जाएंगे। 

मणिपुर की स्थिति 

द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर छपी एक खबर के अनुसार मणिपुर दौर पर गए वामपंथी दलों के सांसदों की टीम के एक सदस्य ने कहा है कि वहां की स्थिति डराने वाली है तथा राज्य के लोगों ने सरकार और सशस्त्र सेना दोनों में विश्वास खो दिया है क्योंकि दोनों उनकी रक्षा में नाकाम रहे हैं। यूसीसी के संबंध में द टेलीग्राफ में एक अलग खबर है। शीर्षक है, तमिलनाडु में प्रतिद्वंद्वी यूसीसी के खिलाफ। इस खबर के अनुसार दक्षिण भारत में भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी एआईएडीएमके और सत्तारूढ़ डीएमके ने नरेन्द्र मोदी सरकार के यूसीसी के प्रस्ताव का विरोध किया है। दो कट्टर विरोधियों द्वारा एक रूख अपनाया जाना बताता है कि इस प्रस्ताव से पैदा हुई आशंकाएं कितनी गंभीर हैं। द्रमुक अध्यक्ष और एमके स्टालिन ने वीरवार को कहा, यूसीसी का मकसद उन लोगों को साधना है जो भाजपा के खिलाफ हैं। द्रमुक के राज्य सभा सदस्य और वरिष्ठ अधिवक्ता पी विलसन ने कहा है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू  किये जाने से देश की विविधता नष्ट हो जाएगी।   

नवोदय टाइम्स और द हिन्दू में पहले पन्ने पर प्रकाशित एक खबर के अनुसार दिल्ली सरकार के खिलाफ केंद्र सरकार के अध्यादेश के मामले में दिल्ली सरकार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में 10 जुलाई को सुनवाई होगी। आप जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा हारने के बाद केंद्र सरकार अध्यादेश ले आई थी और आम आदमी पार्टी की सरकार ने उसे चुनौती दी है। इससे पहले मुंबई में शिव सेना के विधायक दल में टूट और अब एनसीपी विधायक दल में टूट का लाभ भाजपा को है और भाजपा उसका लाभ उठा भी रही है। इससे मुकदमेबाजी को बढ़ावा मिल रहा है (या मजबूरी हो गई है)। दूसरी ओर, कल इंडियन एक्सप्रेस में खबर थी कि सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) को तकरीबन 50 साल से मिली टैक्स मुक्ति की स्थिति खत्म हो गई है। आयकर विभाग ने सीपीआर पर आरोप लगाया था कि वह ऐसे काम कर रहा है जो उसके उद्देश्य और शर्तों के अनुकूल नहीं है। अब आयकर मुक्ति रद्द करने के आदेश में इन शर्तों को दोहराया गया है और कहा गया है कि वह अनुसंधान की बजाय शिकायतें और मुकदमेबाजी में पैसे खर्च करता है। खबर के अनुसार आयकर विभाग के तर्क की खास बात यह है कि मुकदमेबाजी का समर्थन लोकोपकारी गतिविधि नहीं है और इसलिए सीपीआर को कर मुक्ति नहीं मिलेगी। 

ऐसे में एक अच्छी खबर यह हो सकती है कि केंद्र सरकार ने कितने लोगों को कितने मामले में मुकदमों के लिए मजबूर किया। कितने मामलों में मात खाई और कितने मामलों में अपने अधिकारों के उपयोग से मामले को फिर अदालत में ले जाने के लिए मजबूर किया और इसमें अदालतों का कितना समय जाया हुआ, वकीलों की कितनी फीस दी गई, किसे क्या लाभ या नुकसान हुआ आदि। एक मामला तो जज लोया की मौत की जांच से संबंधित है और आरटीआई के जवाब के अनुसार इसमें एक वकील की फीस सरकारी खजाने से 1.21 करोड़ रुपये से ज्यादा दी गई है। एक तरफ सरकार लोगों और संस्थानों को मुकदमों के लिए मजबूर कर रही है और दूसरी ओर नीतियों पर अनुसंधान करने वाली संस्थान से कह रही है कि मुकदमेबाजी जनहित नहीं है। अखबारों में ऐसी खबरें या शीर्षक दुर्लभ हैं सो अलग। 

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।