भुतखेला टाइम्स एक रीजनल अखबार के न्यूज रूम की कथा है. उस न्यूज रूम में एक रोज एक भूत प्रवेश कर जाता है और वह सारे संपादकीय फैसले खुद करने लगता है. अखबार की एडिटोरियल टीम जिन खबरों को इस वजह से रोक लिया करती थी कि उन खबरों के छपने से सरकार नाराज हो सकती है और वह सरकारी विज्ञापन की आमद पर रोक लगा सकती है. वह भूत उन्हीं खबरों को पहले पन्ने पर लीड बनाकर छापने लगता है. जाहिर सी बात है कि इस वजह से सरकार अखबार से बुरी तरह नाराज हो जाती है और अखबार को एक अनचाहे युद्ध में शामिल होना पड़ता है. वह भूत कौन है, किसका है, किस वजह से वह अखबार की खबरों के साथ छेड़-छाड़ करता है, और इन सबका अंजाम क्या होता है. यही इस उपन्यास का विषय है.
हालांकि यह सिर्फ कथा की पृष्ठभूमि है. लेखक का मकसद सरकारी विज्ञापनों के चंगुल में फंसे अखबारों की स्थिति को सामने लाना है. यह बताना है कि आखिर कैसे महज दो दशक पहले तक निर्भीक मानी जाने वाली पत्रकारिता इन दिनों सरकार के आगे रेंगने लगी है. अब अखबार पाठकों के लिहाज से नहीं, सत्ताधीशों के मूड के हिसाब से तैयार हो रहे हैं. ऐसे में मीडियोकर किस्म के दलाल पत्रकारिता की मुख्यधारा में हैं और असली पत्रकार हाशिये पर. कहानी में इस पूरे प्रसंग को बारीकी से सामने लाने की कोशिश की गयी है.
इस लिहाज से यह किताब अखबार, मीडिया और पत्रकारिता से जुड़े लोगों के लिए तो रुचिकर है ही. उनलोगों को भी पसंद आ सकती है, जो हाल के दिनों में पत्रकारिता के चरित्र में आये पतन को लेकर चिंतित रहते हैं. उन्हें उन अनकही सच्चाइयों का पता इस उपन्यास से गुजरने पर मालूम हो सकता है.
यह उपन्यास बिहार के पत्रकार पुष्यमित्र ने लिखा है. यह उनकी चौथी पुस्तक है. इससे पहले वे सुन्नैर नैका और रेडियो कोसी उपन्यास और जब नील का दाग मिटा-चंपारण 1917 नामक इतिहास कथा लिख चुके हैं. यह उपन्यास ई बुक के रूप में अमेजन पर प्रकाशित है.