आज सुबह नींद खुली तो लगा कुछ जल्दी है। कमरे में अंधेरा था, समय देखने के लिए लाइट जलाने की बजाय मैंने फोन उठा लिया। छह बज रहे थे। अमूमन छह बजे ही उठता हूं पर आज इतवार है, थोड़ी देर और सो सकता था। इसी उधेड़ बुन में फोन पर पहले व्हाट्सऐप्प मैसेज देखा फिर फेसबुक देखने लगा। बालाकोट हमले के बारे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कल प्रसारित इंटरव्यू में जो कहा उसे कई लोगों ने शेयर और पोस्ट किया था। यह रात 12 बजे सोने से पहले मुझे नहीं दिखा था। जो लिखा था वह यकीन करने लायक नहीं था पर इतने लोगों ने लिखा था कि गलत मानकर छोड़ना भी संभव नहीं था। नींद खुल गई।
वीडियो मिल गया और काफी समय बाद आंखों व कानों पर यकीन नहीं हुआ। कल मैंने फेसबुक पर लिखा भी था कि अमूमन मैं टेलीविजन इंटरव्यू नहीं देखता हूं। अक्सर लगता है कि ये सवाल नहीं पूछा, इस सवाल का क्या मतलब या जवाब तो आया ही नहीं आदि। इसी चक्कर में कल जब देखा कि दीपक चौरसिया ने सवाल किया कि आप बटुआ रखते हैं कि नहीं तो उसका साफ जवाब नहीं मिला। पर वे आगे बढ़ गए। इसलिए मैंने यह इंटरव्यू नहीं देखा।
सुबह पता चला कि कमाल उसी में था। गुजरात भाजपा के ट्वीट का स्क्रीनशॉट देखकर लगा कि मामला हवा-हवाई नहीं – सच ही है। फिर ट्वीटर पर गया तो उमर अब्दुल्ला के ट्वीट से लगा कि इसे डिलीट करना शुरू किया जा चुका है। पर मुझे यह स्क्रीनशॉट मिल गया। मैंने वीडियो भी देख लिया। भाइयों और बहनों, पाठकों और मितरों अपने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वाकई कहा है कि, “वे एक्सपर्ट नहीं हैं …. बादल है, बारिश हो रही है तो एक बेनिफिट है कि हम रडार से बच सकते हैं। मेरा रॉ विजडम है कि क्लाउड बेनीफिट भी कर सकता है । अल्टीमेटली मैंने कहा कि ठीक है करिए …. चल पड़ा।” यह बालाकोट हवाई हमले से पहले की चर्चा है जो प्रधानमंत्री ने पहली बार बताई है। इसपर एक ट्वीटर उपयोगकर्ता ने लिखा है, “अच्छा हुआ यह सुझाव नहीं दिया गया कि विमान को उल्टे गीयर में चलाया जाए ताकि पाकिस्तान समझे कि विमान जा रहा है ….।”
आपको आज यह खबर किसी अखबार में दिखी क्या? मुझे तो नहीं दिखी। सिर्फ द टेलीग्राफ ने इस खबर को पहले पन्ने पर लगभग आधी जगह दी है। फ्लैग शीर्षक है, नेशनल टेक्नालॉजी डे पर मोदी ने रडार विज्ञान की नए सिरे से खोज की। मुख्य शीर्षक है, प्रधानमंत्री ने बालाकोट का राज खोला : मैंने सोचा बादल हैं, “हम रडार से बच सकते हैं। ओके, आगे बढ़ो। चल पड़े।” अखबार की खबर बताने से पहले आपको बता दूं कि कांग्रेस नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने आज अपने साप्ताहिक कॉलम, अक्रॉस दि आइल में फिर मोदी के अर्थशास्त्र ज्ञान पर लिखा है।
इसमें वे कहते हैं, “2014 के चुनावों में नरेंद्र मोदी ने अर्थव्यवस्था को लेकर बहुत ही विचारहीन टिप्पणी की थी। उसका मैंने यह कहते हुए जवाब दिया था कि श्री मोदी को अर्थशास्त्र की जितनी समझ है उसे एक डाक टिकट के पीछे लिखा जा सकता है। यह टिप्पणी उचित ही थी। लेकिन मेरा मानना है कि मोदी ने उस टिप्पणी के लिए मुझे माफ नहीं किया है। कोई बात नहीं, वक्त ने साबित कर दिया है कि मैं सही था।”
उन्होंने आगे लिखा है, “जब अर्थशास्त्र का प्रबंधन किसी नौसिखिए या निरंकुश के हाथ में सौंप दिया जाता है तो उसके नतीजे भी जल्दी ही सामने आने लगते हैं। नोटबंदी इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है। किसी इंटरपास अर्थशास्त्री ने भी प्रधानमंत्री को चलन में जारी मुद्रा का छियासी फीसदी हिस्सा अवैध घोषित करने की सलाह नहीं दी होगी। फिर भी ऐसा किया गया। चूंकि अरुण जेटली ने कभी भी सार्वजनिक रूप से इस बात की जिम्मेदारी नहीं ली, इसलिए यही निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि यह प्रधानमंत्री का फैसला था। उनको श्रेय देने की बजाय प्रधानमंत्री ने ही जिम्मेदारी अपने पर ले ली, लेकिन उन्होंने यह मानने से इनकार कर दिया कि नोटबंदी से अर्थव्यवस्था पटरी से उतर गई, छोटे और मझौले उद्योग खत्म हो गए, नौकरियां चली गईं और कृषि क्षेत्र में संकट गहरा गया।”
मैं आपको यही बताना चाहता हूं कि ज्यादातर अखबार नरेन्द्र मोदी की छवि बनाने में लगे हुए हैं और यह अभियान इस हद तक है कि उनका कोई विकल्प नहीं है और असल में वे कैसे हैं यह बताने का काम अखबार अपनी ओर से तो नहीं ही करते हैं जब वे खुद बताते हैं तो उसे भी छिपा जाते हैं। 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद से अखबारों ने ऐसा माहौल बनाया है जैसे उनपर बहुत दबाव है और विज्ञापन के लिए वे सरकार विरोधी खबरें नहीं करते हैं। पर ध्यान से देखिए तो पता चलेगा कि वे सरकार के खिलाफ खबरें तो नहीं ही करते हैं पक्ष में गलत और गैर जरूरी खबरों को भी प्राथमिकता देते हैं और प्रधानमंत्री की छवि खराब करने वाली खबर नहीं छापते हैं।
आज आखिरकार कोई ना कोई तो यह बतायेगा ही कि यह खबर अखबारों में क्यों नहीं छपी। आम चूसने की छपी थी, कल के इंटरव्यू में एक सवाल था, आप बटुआ रखते हैं कि नहीं। जब ऐसी खबरें आती रही हैं तो इसे नहीं छापने पर स्पष्टीकरण तो मांगा ही जाएगा और देना भी पड़ेगा। यही बात अखबारों ने उन्हें नोटबंदी के बाद बता दी होती तो कोई शक नहीं है कि देश की अर्थव्यवस्था का यह हाल नहीं होता। और दोबारा जीतने के लिए 1984 के दंगों का सहारा लेने की जरूरत नहीं पड़ती।
अब तो यह स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री किसी की राय नहीं लेते और जो आदेश देते हैं उसका पालन होता है। ऐसे में यह कहना और बताना कि उनका कोई विकल्प नहीं है – और उनकी छवि खराब करने वाली खबर नहीं छापना। आज यह साबित हो गया कि देश का मीडिया प्रधानमंत्री की पीआर एजेंसी की तरह काम कर रहा है।
एक तरफ तो यह हाल है दूसरी ओर इंडियन एक्सप्रेस ने आज दिल्ली में मतदान के दिन प्रधानमंत्री का इंटरव्यू पहले पन्ने पर छापा है। कायदे से इसमें कुछ गलत नहीं है। किसी और अखबार ने छापा होता तो मैं चर्चा भी नहीं करता। पर इंडियन एक्सप्रेस से एक अपेक्षा होती है कि वह आंख मूंदकर गलत का साथ नहीं देगा। सही का साथ देने में कोई बुराई मैं नहीं मानता। ऐसा नहीं है कि इंडियन एक्सप्रेस में लोग नरेन्द्र मोदी को नहीं जानते होंगे और आज रडार के बारे में उनका जो ज्ञान छपा है वैसा कोई पहली बार हुआ है। फिर भी मतदान के दिन पहले पन्ने पर इंटरव्यू छापकर अखबार ने वही किया है जो चुनाव आयोग उन्हें लगातार क्लीन चिट देकर कर रहा है।
यही नहीं, इंडियन एक्सप्रेस में आज एक और दिलचस्प खबर है। भाजपा युवा शाखा की महिला नेता, प्रियंका शर्मा को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की फोटोशॉप की हुई फोटो छापने के लिए गिरफ्तार किया गया। उपशीर्षक है, 25 साल की महिला को 14 दिन की हिरासत; भाजपा ने कहा इमरजेंसी जैसी स्थिति। खबर के रूप में यह एक सामान्य खबर है और पहले पन्ने पर छपी है वह भी कोई खास बात नहीं है। पर दिल्ली में कोलकाता भाजपा की खबर पहले पन्ने पर छपे तो दिल्ली में भाजपा ने आम आदमी पार्टी के नेताओं के साथ कैसा सलूक किया यह याद करना बनता है। ठीक है, हर खबर पर संपादकीय नहीं लिखे जाते पर एक्सप्रेस में एक्सप्लेन्ड (स्पष्ट किया गया) छपता है।
यहां इंडियन एक्सप्रेस से यह अपेक्षा थी कि वह आम आदमी पार्टी के साथ भाजपा के सलूक को याद करता या फिर यह बताता कि महिला नेता ने जो किया उस पर गिरफ्तारी ज्यादा है। नहीं होना चाहिए था। या ऐसा ही कुछ। अखबार ने ऐसा कुछ नहीं किया है। भाजपा नेताओं ने जो कहा उसे छाप दिया है जैसे 25 साल की लड़की को जेल नहीं भेजने या अपराध करने पर कोई राहत मिलनी चाहिए थी। सिद्धांत रूप से इससे भी सहमत हुआ जा सकता है पर वह सिर्फ भाजपा नेता के लिए नहीं हो सकता है और इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबार से अपेक्षा की जाती है कि वह भाजपा के लिए नहीं, आम आदमी के लिए स्टैंड ले। पर स्थिति ऐसी है जैसे सोशल मीडिया नहीं होता तो अखबारों ने नरेन्द्र मोदी को भगवान बना दिया था।