‘एक देश, एक चुनाव’ की संविधान विरोधी कवायद पर हिंदी अख़बारों ने क्‍या भ्रम फैलाया

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
मीडिया Published On :


देश में भले ही मुजफ्फरपुर के अस्पताल में हो रही बच्चों की मौत की चर्चा या गिनती चल रही हो, लोग नहीं समझ पा रहे हों कि स्वास्थ्य मंत्री ने कार्रवाई के नाम पर पांच साल पहले जो आश्वासन दिए थे, घोषणाएं की थीं, उन्हें फिर दोहराने का क्या मतलब है और सरकार ने जब गरीबों के लिए आयुष्मान भारत जैसी योजना की घोषणा कर रखी है उसका भरपूर प्रचार किया गया है तो क्यों गरीब बच्चे मर रहे हैं और यह योजना दरअसल है क्या?

ऐसे समय में सरकार नोटबंदी जैसा एक और बड़ा काम करने जा रही है। कल उससे संबंधित एक बैठक थी। आज सभी अखबारों में उसकी खबर है। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’, ‘एक देश एक टैक्स’ का बाद छोड़ा गया 56 ईंची गुब्बारा है। इस पर बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में क्या हुआ यह तो बाद की बात है, एक शीर्षक ने मेरा ध्यान खींचा है जो बताता है कि इस मामले में (तमाम अन्य मामलों में भी) रिपोर्टिग कैसे हो रही है उस पर विचार किया जाए।

द टेलीग्राफ में इस खबर का शीर्षक हिन्दी में लिखा जाए तो इस प्रकार होगा, “सात बड़े दल एक चुनाव की बैठक से अलग रहे”। साफ है कि सात बड़े दल, ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पर बात करने की जरूरत नहीं समझते। और अगर ऐसा है तो क्या संविधान संशोधन जैसा यह काम करने की जरूरत है। क्या देश चलाने के लिए चुनी गई सरकार या पार्टी को यह हक है कि वह संविधान संशोधन जैसे काम करे?

मुझे नहीं लगता कि संविधान संशोधन बहुमत का मामला है। अगर ऐसा हो तो हर बार बहुमत पाने वाली सरकार संविधान संशोधन करके उसे अपने लिए अनुकूल बनाएगी और अगली सरकार फिर यही करेगी। अगर ऐसा होने लगा सरकारें काम कम करेंगी और अगला चुनाव जीतने की व्यवस्था करने में ज्यादा समय लगाएंगी। यह किसी भी तरह से उचित नहीं है और अखबारों का (टेलीविजन का भी) काम है जनता को आवश्यक सूचनाएं दी जाए जिससे सही जनमत बने। पर अभी चर्चा इस पर नहीं हो रही है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की जरूरत है कि नहीं, सरकार ऐसा कर सकती है कि नहीं बल्कि यह सूचना दी जा रही है कि सरकार इसके लिए क्या कर रही है।

टेलीग्राफ ने अगर लिखा है कि “सात बड़े दल एक चुनाव की बैठक से अलग रहे” तो इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा है, प्रधानमंत्री इसके लिए पैनल बनाएंगे। इसका मतलब हुआ, प्रधानमंत्री या सरकार पैनल के निर्णय को मानेंगे। जब सात बड़े दल बैठक में शामिल ही नहीं हुए तो प्रधानमंत्री या सरकार ऐसा कर सकती है इसपर तो बात ही नहीं हुई। इंडियन एक्सप्रेस में फ्लैग शीर्षक है, सर्वदलीय बैठक में एक देश एक चुनाव। देश में एक साथ चुनाव कराने पर विचार के लिए प्रधानमंत्री पैनल बनाएंगे।

हिन्दुस्तान टाइम्स ने इसी खबर का शीर्षक है, विपक्ष के विरोध के बीच प्रधानमंत्री एक देश एक चुनाव के लिए पैनल बनाएंगे। टाइम्स ऑफ इंडिया का शीर्षक प्रधानममंत्री को इसके लिए सर्वाधिकार संपन्न बताता लगता है, एक राष्ट्र एक चुनाव पर अध्ययन के लिए पैनल बनाउंगा : प्रधानमंत्री।

ये सब शीर्षक तो फिर भी वही बताते हैं जो कहा गया या जो निर्णय हुआ। हिन्दुस्तान का शीर्षक तो भले ही तथ्य बता रहा है पर भ्रम फैलाने वाला है। फ्लैग शीर्षक है, सर्वदलीय बैठक में 21 दल शामिल, कांग्रेस समेत 16 ने दूरी बनाई (टेलीग्राफ से सात बड़े लिखा है)। मुख्य शीर्षक है, ‘एक साथ चुनाव पर विपक्ष बंटा’। विपक्ष सत्ता पक्ष की तरह ना एक होता है और ना होगा। चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री विपक्षी गठजोड़ की कोशिशों को महामिलावट आदि बोल चुके हैं। ऐसे में सत्तारूढ़ दल को समर्थन करने वालों को सरकार में रहना है तो मजबूरी है कि वे सरकार का समर्थन करें। यह नैतिक रूप से भी जरूरी है। पर विपक्ष के साथ ऐसी बात नहीं है। वे अलग रह सकते हैं। अलग राय भी रख सकते हैं और प्रधानमंत्री तथा सत्तारूढ़ गठबंधन की तरह एक देश एक चुनाव के समर्थक भी हो सकते हैं पर विपक्ष बंटा से जो संदेश जाता है वह यह कि किसी एक मुद्दे पर अभी-अभी बंटा हो। जबकि वह पहले से, स्वभाव से बंटा ही हुआ है। गठजोड़ अगर हुआ था तो चुनाव के लिए ही था। कुछ विपक्षी दल बैठक में आए कुछ नहीं आए – यह विपक्ष का बंटना नहीं है। विपक्ष बंटा हुआ ही था।

नवभारत टाइम्स में शीर्षक है, एक चुनाव से विपक्ष को तनाव, नहीं दिखी एकता। मुझे नहीं लगता कि अभी कुछ महीने पहले मिलकर चुनाव लड़ने और हारने के बाद विपक्ष को इस मामले में मिलकर विरोध करने की कोई जरूरत है या उसका कोई अलग नतीजा निकलेगा। मुद्दा तो यह है कि देश चलाने के लिए चुनी गई सरकार संविधान बदल सकती है कि नहीं। बैठक में नहीं आना और आकर विरोध करना या पत्र लिखकर भेजना सब एक ही है और यहां कोई मतदान तो होना नहीं था कि जो नहीं आया उसने अघोषित रूप से समर्थन किया क्योंकि विरोध में मतदान नहीं किया। नवभारत टाइम्स ने शीर्षक से ऊपर दो बयान लगाए हैं। एक बयान तो रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का है (पता नहीं क्यों यह बयान रक्षा मंत्री ने दिया है) जो बैठक के निर्णय की सूचना है। दूसरा सीपीएम नेता सीताराम येचुरी का है। उन्होंने कहा है, यह विचार असंवैधानिक और संघीय व्यवस्था के खिलाफ है। यह संसदीय प्रणाली की जगह राष्ट्रपति शासन लाने की कोशिश है।

कहने की जरूरत नहीं है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की व्यवस्था संविधान की मूल भावना के खिलाफ है और यह कोई प्रशासनिक बदलाव नहीं है। इसलिए यह सरकार के कार्यक्षेत्र से बाहर का विषय है। सरकार सामान्य प्रशासन के लिए चुनी जाती है। संविधान संशोधन की मौजूदा व्यवस्था ऐसी है कि 56 ईंची सीना जैसी हवाई घोषणा या 15 लाख रुपए का कालाधन हरेक नागरिक को मिलने का सपना या घर में घुसकर मारने जैसी बहादुरी या बादल में विमान देखना मुश्किल होता है जैसी विद्वता दिखाकर सत्ता पाने वाला कोई व्यक्ति और दल तानाशाह न बन जाए।

आप जानते हैं कि लोकसभा में बहुमत के दम पर पास हुए संविधान संशोधन राज्य सभा में पास नहीं होते रहे हैं क्योंकि सत्तारूढ़ दल को वहां भी बहुमत हो इसके लिए एक चुनाव में बहुमत पाना पर्याप्त नहीं है। राज्यों में भी बहुमत होना चाहिए। इसीलिए कांग्रेस मुक्त भारत की बात की गई थी। चूंकि निर्णय बहुमत से ही होने हैं इसलिए एक समय की ‘हवा’ से मिले बहुमत का दुरुपयोग न हो इसकी पूरी व्यवस्था संविधान में है। लोकसभा के सदस्यों का कार्यकाल पांच साल और राज्यसभा के सदस्यों का कार्यकाल यूं ही छह साल नहीं होता है।

यह भाषण देकर, झूठ बोलकर और सपने दिखाकर लोकप्रिय होने वाले 56 ईंची गुब्बारों को मनमानी करने से रोकने के लिए ही है। बैठकों और पैनल का कोई मतलब नहीं है। आम जनता को संविधान की इस मूल भावना को बताने का काम अखबारों को करना चाहिए पर अखबार ऐसा कुछ करते नजर नहीं आ रहे हैं और यह स्पष्ट है। आइए, आज के बाकी शीर्षक भी देख लें।

नवोदय टाइम्स का फ्लैग शीर्षक है, ‘एक राष्ट्र एक चुनाव का ज्यादातर पार्टियों ने किया समर्थन’। कहने की जरूरत नहीं है कि संदर्भ बैठक में शामिल ज्यादातर पार्टियों का है और वह नहीं लिखा गया है और इससे पाठक को लगेगा कि ज्यादातर दल इसके समर्थन में हैं। फिर भी। मुख्य शीर्षक है, पीएम बनाएंगे समयबद्ध समिति। अखबार ने मिलिन्द देवड़ा, सीताराम येचुरी और मायावती का कोट छापा है। सीचाराम येचुरी का मैं पहले लिख चुका हूं।

मिलिन्द देवड़ा का इस प्रकार है, ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत का राजनीतिक वर्ग जिसका मैं हिस्सा हूं, तेजी से बहस, चर्चा और संवाद की कला को भूल रहा है। मेरी राय में यह भारत की लोकतांत्रिक प्रकृति के लिए गंभीर खतरा है। हमें यह बिल्कुल नहीं भूलना चाहिए कि 1967 तक देश में एक साथ चुनाव होते थे। पूर्व सांसद होने के नाते मैं मानता हूं कि लगातार होने वाले चुनावों की वजह से सुशासन में परेशानियां आती है और राजनेताओं का असल मुद्दे से ध्यान भटकता है।’

मायावती ने कहा है, ‘एक देश एक चुनाव फॉर्मूला गरीबी एवं अन्य समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए किया जा रहा छलावा है। आज यह बैठक ईवीएम के मसले पर बुलाई गई होती तो मैं अवश्य ही उसमें शामिल होती।’

अमर उजाला का शीर्षक नवोदय टाइम्स के मुकाबले लगभग उलट है। मुख्य शीर्षक है, ‘सर्वदलीय बैठक एक देश एक चुनाव पर नहीं बनी बात’, उपशीर्षक है, ‘कांग्रेस समेत 16 दल नहीं आए, वाईएसआर कांग्रेस और बीजद समर्थन में’। अखबार ने एक अलग खबर छापी है, येचुरी, ओवैसी , पवार बैठक में पहुंचे पर विरोध करने। मिलिन्द देवड़ा के बयान को अखबार ने कांग्रेस लाइन के उलट ‘देवड़ा आए पक्ष में’ शीर्षक से छापा है।

राजस्थान पत्रिका की खबर का शीर्षक है और स्पष्ट है तथा पूरी तरह उलट, “मंथन जारी : कांग्रेस, बसपा, सपा, तेदपा समेत कई पार्टियां विरोध में”। मुख्य शीर्षक है, “एक देश एक चुनाव पर राजी नहीं है विपक्ष, सर्वदलीय बैठक से किनारा”। अब आप सोचिए कि किस अखबार ने क्या – क्यों लिखा। आपका अखबार आपको कैसी सूचना दे रहा है।

दैनिक जागरण का शीर्षक है ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पर मोदी सरकार बनाएगी पैनल। उपशीर्षक है, “सर्वदलीय बैठक में अधिकतर दलों ने चर्चा के दौरान विचार का किया समर्थन: राजनाथ”। इंट्रो है, “बैठक में बीजद, राकांपा, नेकां, टीआरएस समेत 21 दल हुए शामिल”। जागरण ब्यूरो की इस खबर का पहला पैराग्राफ है, ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के मुद्दे पर सुझाव देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक पैनल का गठन करेंगे, जो तय समय के भीतर काम पूरा करेगा। इस मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक के बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने यह जानकारी दी। बैठक का कांग्रेस समेत तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा, द्रमुक जैसे कई दलों ने बहिष्कार किया, जबकि शिवसेना को छोड़कर राजग के सहयोगी दलों के साथ-साथ विपक्ष से राकांपा, नेकां, टीआरएस, बीजद और वाम दल बैठक में शामिल हुए। सूत्रों ने बताया कि पार्टी स्थापना दिवस होने की वजह से शिवसेना बैठक में शामिल नहीं हुई।

इसमें सूत्रों ने बताया ताकि आप गलत न समझें पर ध्यान देने वाली बात यह है कि भाजपा इस मामले में इतनी निश्चिंत है कि सहयोगी दल के स्थापना दिवस पर यह बैठक रखी गई थी।


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