आज की प्रमुख खबरों में एक खबर है, दल बदलने वाले 11 विधेयक फिर जीत गए। कर्नाटक उपचुनाव के नतीजों की यह खास बात है और दलबदल करने वाले 17 में से 11 का फिर जीत जाना मतदाताओं के व्यवहार से संबंधित गंभीर सवाल उठाता है। और अगर ये सवाल चर्चा करने योग्य नहीं हैं तो यह सोचना चाहिए यह मतदाता व्यवहार है या ईवीएम का कमाल। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर शंका शुरू से रही है और यह शंका भारतीय जनता पार्टी ज्यादा जोर-शोर से उठाती रही है। अब भले ही कुछ कार्रवाई के बाद, भाजपा उसपर चर्चा नहीं करती है लेकिन भाजपा समर्थक भाजपा की हार के बाद यह याद दिला ही देते हैं कि अब ईवीएम की चर्चा नहीं हो रही है। ईवीएम का मुद्दा राजनीतिक कारणों से उठाना यह बात है और चुनाव परिणामों की निष्पक्षता के लिए उठाना बिल्कुल अलग है।
अमूमन मतदान के अलावा जनता का रूझान जानने का कोई दूसरा पक्का तरीका नहीं है। इसलिए यह कहना या साबित करना बहुत मुश्किल है कि ईवीएम सही काम कर रहे हैं कि नहीं। वीवीपैट इस दिशा में एक कदम है पर तकनीक के इस जमाने में तकनीकी तौर पर कुछ भी संभव है। इसलिए ईवीएम से निश्चित नहीं हुआ जा सकता है। कर्नाटक का चुनाव मतदाताओं के रुझान को समझने के लिए एक टेस्ट केस था और उससे साफ जाहिर है कि मतदाता भाजपा के पक्ष में हैं। पर क्या मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में होना चाहिए? मुझे लगता है कि भाजपा ऐसा कोई काम नहीं कर रही है या किया है जिसके दम पर उसे दल बदल के इस मामले के बावजूद समर्थन मिलना चाहिए। पर मिला है। इसलिए चुनाव की निष्पक्षता की चिन्ता करने वालों का दायित्व है कि इसपर विचार करें और सुनिश्चित करें कि नतीजे वाकई निष्पक्ष हैं।
नतीजे बताते हैं कि मतदाताओं ने दलबदल करने वाले 14 में से सिर्फ तीन को सजा दी है। क्या 11 जनों ने दल बदल कर भाजपा की सरकार बनवाकर सही किया? क्या मतदाताओं की नजर में दलबदल गलत नहीं था कि उन्होंने इन्हें फिर विजयी बना दिया। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दिनेश गुंडु राव और कांग्रेस विधायक दल के नेता पीसी सिद्धारमैया ने हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया है। दोनों ने कहा कि उन्हें उम्मीद थी कि जनता दल बदलने वालों को सीख देगी। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। और यही चौंकाने वाली बात है। इस संबंध में आज के अखबारों के शीर्षक भी देखने लायक है। मुझे नहीं लगता कि किसी शीर्षक या खबर से भी इस मामले की गंभीरता बताई गई है।
हिन्दी अखबारों में नवोदय टाइम्स अपवाद है। इसमें खबर का शीर्षक जो है सो है पर अकु श्रीवास्तव का एक विश्लेषण भी है जो मामले की गंभीरता बताता है। दैनिक भास्कर में एजेंसी की खबर का शीर्षक है, कर्नाटक उपचुनाव में भाजपा 15 में से 12 सीटें जीती, येदुरप्पा सरकार सुरक्षित। नवभारत टाइम्स में यह खबर पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में है बाकी अंदर। शीर्षक है, कर्नाटक में अब मजबूत हो गई येदि की कुर्सी। हिन्दुस्तान का शीर्षक है, येदियुरप्पा कामयाब, 15 में से 12 सीटें भाजपा जीती। दैनिक जागरण का शीर्षक है, कर्नाटक उपचुनाव के नतीजों से येदियुरप्पा को मिला बहुमत। अमर उजाला ने लिखा है, कर्नाटक उपचुनाव में भाजपा ने जीतीं 12 सीटें, अब पूर्ण बहुमत। राजस्थान पत्रिका का शीर्षक है, बहुमत में येडि सरकार, 15 में से 12 सीटों पर जीती भाजपा।
मैं यह कहना चाह रहा हूं कि सभी शीर्षक बहुत रूटीन हैं और सिर्फ सूचना दे रहे हैं। इसमें द टेलीग्राफ के शीर्षक जैसी कोई प्रतिभा नहीं है जो कह रहा है, दल बदल करने वाले 11 फिर जीते। टाइम्स ऑफ इंडिया के शीर्षक में भी कुछ खास नहीं है। इसे हिन्दी में लिखा जाता तो कुछ इस तरह होता, कर्नाटक के 15 उपचुनावों में भाजपा ने 15 पर बाजी मारी, बहुमत मिला। हिन्दुस्तान टाइम्स ने लिखा है, कर्नाटक उपचुनाव में बड़ी जीत के साथ भाजपा ने बहुमत हासिल की। दि एशियन एज में इस खबर का शीर्षक है, बीएसवाई के लिए कामयाबी : कर्नाटक के 15 उपचुनावों में भाजपा ने 12 जीतीं।