जज के खिलाफ सीबीआई जांच की मंजूरी इस्तीफे के बाद क्यों?

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
मीडिया Published On :


वैसे भी, सीबीआई को मंजूरी की क्या जरूरत? मद्रास हाईकोर्ट से मेघालय तबादला। कारण बताया गया – आरोप हैं। सवाल है – तो जांच और महाभियोग पहले क्यों नहीं? गुजरात मामले में सरकार के खिलाफ फैसला देने वाले जजों को लेकर इतने विवाद क्यों? न्याय प्रणाली पर भरोसा रखने की अपील छापने वाले अखबार इन खबरों को क्यों नहीं छाप रहे हैं। बिलकिस बानो मामले में फैसला बनाए रखने वाली जज विजया के ताहिलरमानी के खिलाफ मामला है तो जांच इस्तीफे के बाद क्यों?

मद्रास हाईकोर्ट की पूर्व जज विजया ताहिलरमानी ने मेघालय हाईकोर्ट में ट्रांसफर के खिलाफ इस्तीफा दे दिया था जिसे राष्ट्रपति मंजूर कर चुके हैं। बंबई हाईकोर्ट की कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के पद पर काम करते हुये जस्टिस ताहिलरमानी ने मई, 2017 में बिलकिस बानो सामूहिक बलात्कार मामले में सभी 11 व्यक्तियों की दोषसिद्धि और उम्र कैद की सजा को बरकरार रखा था। शीर्ष अदालत ने इस मामले को गुजरात की अदालत से महाराष्ट्र स्थानांतरित किया था।

मेघालय तबादले के समय उनकी या मध्यप्रदेश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बनाए गए अकिल कुरैशी की किसी गलती का कोई जिक्र नहीं किया गया था। न्यायमूर्ति कुरैशी ने अमितशाह को हिरासत में भेजा था। मुंबई हाईकोर्ट के जज कुरैशी का मध्यप्रदेश तबादला किया गया पर बाद में उनसे त्रिपुरा जाने के लिए कह दिया गया। न्यायमूर्ति ताहिलरमानी ने अपने तबादले पर विचार करने की भी अपील की थी।

इस पर अपने प्रस्ताव में कोलेजियम ने कहा था, कॉलेजियम ने प्रतिनिधित्व के मामले को बहुत ध्यान से देखा और सभी प्रासंगिक कारकों को ध्यान में रखा। उनके अनुरोध को स्वीकार करना संभव नहीं है। इसलिए, कॉलेजियम 28 अगस्त, 2019 को मेघालय हाईकोर्ट में जस्टिस वीके ताहिलरामनी के स्थानांतरण की अपनी सिफारिश को दोहराता है। इस बारे में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) नेता बृंदा करात ने कहा है, ‘75 न्यायाधीशों वाली अदालत से केवल दो न्यायाधीशों वाले मेघालय में (मुख्य न्यायाधीश के रूप में) स्थानांतरण करना सामान्य नहीं माना सकता है। यह एक तरह से पद को छोटा किया जाना है।

उन्होंने आगे कहा, इस घटना से एक बार फिर असंतोषजनक और गैर पारदर्शी न्यायिक नियुक्ति और स्थानातंरण व्यवस्था रेखांकित हुई है। ऐसे में हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाए जाने के ये दोनों मामले पहले से विवाद में हैं। कल खबर आई थी कि मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई ने मद्रास हाईकोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश विजया के ताहिलरमानी के खिलाफ सीबीआई को कानून सम्मत कार्रवाई करने की इजाजत दे दी है। हिन्दी अखबारों में ऐसी खबरें छपती ही नहीं हैं पर द टेलीग्राफ ने इस मामले को आज लीड बनाया है। शीर्षक ही है, जजों के तबादले पर सवाल। सात कॉलम में छपी इस खबर का फ्लैग शीर्षक है, अगर वाकई आरोप हैं तो महाभियोग की प्रक्रिया क्यों नहीं? उत्तर पूर्व में तबादला क्यों?

जस्टिस ताहिलरमानी ने अगस्त 2018 को मद्रास हाईकोर्ट में बतौर चीफ जस्टिस अपना कार्यभार संभाला था। वह अक्टूबर, 2020 में अपने पद से रिटायर होने वालीं थी। हाईकोर्ट के जजों ने इससे पहले भी इस्तीफे दिए हैं, लेकिन कॉलेजियम से विवाद के चलते इस्तीफा देने के मामले बहुत कम हैं। इससे पहले साल 2017 में कर्नाटक हाईकोर्ट के जज जयंत पटेल ने भी कोलिजयम द्वारा उन्हें इलाहाबाद हाईकोर्ट ट्रांसफर करने के फैसले के बाद इस्तीफा दे दिया था। हालांकि जज जयंत पटेल ने अपने इस्तीफे की कोई वजह नहीं बतायी थी। जज जयंत पटेल ने ही गुजरात हाईकोर्ट के जज रहते हुए इशरत जहां मामले में सीबीआई जांच के निर्देश दिए थे।

द टेलीग्राफ में आज प्रकाशित खबर के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (एससीबीए) के पूर्व प्रेसिडेंट और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने न्यायमू्र्ति ताहिलरमानी के खिलाफ सीबीआई जांच की मंजूरी दिए जाने पर कहा है, एक हफ्ते पहले ही तो कॉलेजियम ने उनका तबादला मेघालय हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में किया था। अब अगर वे मेघालय हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाने के लिए उपयुक्त थीं और उन्होंने तबादला स्वीकार कर लिया होता तो क्या सीबीआई जांच की मंजूरी दी जाती?

एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने कहा है कि वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि सीबीआई को मंजूरी क्यों चाहिए। किसी जज को अभियोजन से प्रतिरक्षा की कवच तभी तक उपलब्ध होती है जब तक वह पद पर होता या होती है जैसा कि न्यायमूर्ति के वीरस्वामी के मामले में 1991 में कहा जा चुका है। अखबार ने लिखा है कि इस मामले में न्यायमूर्ति ताहिलरमानी से संपर्क करने की उसकी कोशिशें नाकाम रहीं और उनके फोन पर घंटी जाती रही, किसी ने उठाया नहीं। श्री दवे ने कहा कि उत्तर पूर्व में जजों को सजा देने के लिए नहीं भेजा जाना चाहिए। मेरा मानना है कि उत्तर पूर्वी राज्यों के मामले में बेहद संवेदनशील ढंग से कार्रवाई किए जाने की जरूरत है। वरना कानून का शासन खत्म होने की बहुत गंभीर समस्या खड़ी हो जाएगी।