रवीश-राणा के बहाने: शुक्र मनाइए कि डायन की नज़र अब तक आप पर नहीं पड़ी है!

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जितेन्द्र कुमार

जब किसी इंसान की जान पर पड़ी हो और आप चुप्पी लगा दें तो समझिए कि आप ज्यादा संकट में है या फिर आपमें कोई समस्या है! अन्यथा यह कैसे हो सकता है कि टीवी के एक एंकर को देश के सबसे संगठित आपराधिक गिरोह के सदस्यों द्वारा खुलेआम जान से मार देने की धमकी दी जा रही हो, दूसरी तरफ एक महिला पत्रकार राणा अय्यूब को सामूहिक बलात्कार और घसीटकर जान मार दिए जाने की बात हो रही हो और आप यह कहकर निकल जाएं, ‘यार, रवीश और राणा अय्यूब ने भी अति कर दी है! उसको हमेशा मोदी-शाह में ही समस्या दिखती है’ तो समझिए कि अपराध में आपकी मौन सहमति है। और न सिर्फ मौन सहमति है बल्कि आप अपराधी को अपराध करने में मदद कर रहे हैं। हो सकता है कि कानूनी रूप से आपका कोई अपराध न बनता हो, लेकिन एक पत्रकार और नागरिक के रूप से आप अपराधी के साथ खड़े हैं!

आज रवीश या राणा अय्यूब के साथ जो हो रहा है वह आपके साथ नहीं हुआ है तो यह तय है कि अभी तक आप पर अपराधियों की नजर नहीं गई है। और दूसरा, आपने सोचना बंद कर दिया है और तीसरा, अपने हित के सिवा और कभी कुछ सोचते नहीं हैं। मैं यह भी मानने को तैयार हूं कि आपकी मजबूरी बहुत है लेकिन क्या आपकी मजबूरी उस हद तक पहुंच गई है कि किसी को सरेआम मौत की धमकियां दी जा रही है और आप रवीश कुमार के ‘अति’ को देख रहे हैं!

जान से मार देने की धमकी की छोड़िए, क्या आपने कभी यह भी सुना है कि अर्णव गोस्वामियों, सुधीर चौधरियों, नविका कुमारों, रजत शर्माओं या दीपक चौरसियाओं को किसी सत्ताधारी पार्टी के नेता या उसके सहयोग से पलनेवाले किसी अपराधियों ने ‘देख लेने’ तक की बात कही है? आपने नहीं सुना होगा! इसका कारण सिर्फ और सिर्फ यह है कि ये वो खबरनवीस हैं जो सत्ता और सत्ताधारियों के दुर्गंध को सुवास के रूप में देश के सामने परोसते हैं। जबकि रवीश, राणा अय्यूब और उनके जैसे छोटे-मोटे बहुतेरे पत्रकार अपने सीमित दायरे में  ‘पावरफुलों’ की कारगुजारियों को जनता से रूबरू कराते रहते हैं।

रवीश-राणा को मारने की धमकी सिर्फ रवीश को नहीं दी गई है, बल्कि यह धमकी पत्रकारिता को दी गई है क्योंकि इसका मतलब समझिए! अपराधियों का यह संदेश भी साफ है- अगर रवीश कुमार और राणा अय्यूब को हम शांत कर सकते हैं तो तुम्हारी क्या औकात है!

मैं यह जानता हूं कि हमारे कई पेशेवर जातिवादी और सांप्रदायिक मित्र इस कृत्य का मौन और कभी-कभी ‘किंतु-परंतु’ लगाकर समर्थन कर रहे हैं। इसका जातीय और साप्रदायिक एकजुटता के अलावा दूसरा महत्वपूर्ण कारण उनका रवीश की मकबूलियत से खुंदक खाने का भी है। लेकिन शायद वे भूल जा रहे हैं कि किसी की मकबूलियत आपको इस बात की इजाजत नहीं देती कि आप अपराधी के साथ खड़े होकर उसमें भागीदारी करने लगें। दूसरा, आप भी वर्षों से इसी प्रोफेशन में हैंः आपको किसने मना किया था कि आप उस मुकाम को हासिल करें जिसे रवीश कुमार ने किया है। और अगर आप उस मुकाम पर नहीं पहुंचे हैं तब भी क्या आपकी चुप्पी और अपराधियों के साथ खड़े होने को जायज ठहराया जा सकता है?

हम यह क्यों भूल जा रहे हैं कि अकेले प्रधानसेवक जी ने वडनगर रेलवे स्टेशन पर चाय नहीं बेची थी! या फिर प्रधानसेवक जी ने अकेले ही एमए पॉलिटिकल साइंस की पढ़ाई नहीं की थी, बल्कि उनके साथ चाय बेचने और एमए करनेवालों की संख्या तो काफी रही होगी, लेकिन मोदी जी अकेले प्रधानसेवक बन पाए! तो क्या सभी चाय बेचनेवालों और एमए राजनीतिशास्त्र करनेवालों को प्रधानसेवक मोदी से ईर्ष्या करनी चाहिए!

रवीश कुमार और उनके परिवार को दी जानेवाली धमकी, धमकी भर नहीं है बल्कि कुछ भी कहने की आजादी को दबाने की साजिश है। आज रवीश या दूरदराज में काम में लगे व्यक्ति अपना कर्तव्य निर्वाह कर रहे हैं तो इन्हें धमकी दी जा रही है, कल कुछ और लोग होंगे। हो सकता है कि परसों आप न हों, लेकिन थोड़े दिनों के बाद तो आप होंगे ही! इसलिए यह मत भूलिए कि आपकी आज की चुप्पी आपको कुछ देर के लिए राहत दे सकती है, अभयदान नहीं दिला सकती है। जब कोई नहीं होगा तब तो सिर्फ आप ही होंगे क्योंकि यह कहावत अब पुरानी हो गई है कि डायन भी एक घर को छोड़ देती है। अब तो स्थिति यह हो गई है कि डायन सबसे पहले अपने को खत्म करती है! बस शुक्र मनाइए कि अब तक आप पर उसकी नजर नहीं गई है…!


लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और मीडियाविजिल के सम्पादकीय सलाहकार हैं