बारिश का इश्क़ से सदियों पुराना रिश्ता है। सदियों का मतलब अनंतकाल भी हो सकता है। पता नहीं बारिश पहले आई या प्रेम! पता नहीं पहले कौन भीगा…
कालिदास ने प्रेम-सन्देश भिजवाने के लिए कभी मेघों को दूत बनाया था। बॉलीवुड के सबसे खूबसूरत प्रेम गीत बारिश में फिल्माए गए हैं। नरगिस और राजकपूर की छतरी के नीचे फिल्माई वह अधभीगी तस्वीर देखने वाले की देह का नमक निचोड़ लेती है। कभी अमिताभ और स्मिता पाटील उसी बारिश में रपटने को होते हैं तो कभी मौशुमी चटर्जी रिमझिम गिरते सावन में बिना चप्पलों के बंबई की सड़कों पर सूटबूटधारी लंबोदर नायक की बाहों में लड़खड़ाती सी जान पड़ती है। ऐसी हज़ारों तस्वीरें हमारे ज़ेहन में ऐसे टंकी हुई हैं गोया आकाश में चांद। आज इन स्मृतियों पर खतरा है। किसी का बस चले तो मेघों को प्रेम संदेश ले जाने के लिए गोली मार दे और बारिश में इश्क़जदा जोड़ों को फिल्माने वाले कैमरामैन की नौकरी छीन ले। निर्देशक की पिटाई हो सो अलग।
बांग्लादेश से एक तस्वीर वायरल हो रही है। क्या खूबसूरत तस्वीर है। इस तस्वीर के लिए जान भी दी जा सकती है। एक प्रेमी जोड़ा बारिश में सीढि़यों पर बैठा है। उसकी देह अनायास रूप से सहज है। लड़की का एक हाथ लड़के के घुटनों पर टिका हुआ है। दोनों की देहमुद्रा बिलकुल सामने की ओर है सिवाय होठों के, जिसके लिए उन्हें अपनी गरदन एक दूसरे की ओर मोड़नी पड़ी है। नाक की पोर से नाक और होठ से होठ सटे हैं। सटे भी क्या हैं, सटने को हैं। न कोई हरक़त, न कोई जल्दी… न कोई डर, न संकोच। न चिंता कि कोई देख रहा होगा। और वाकई… कोई नहीं देख रहा।
पीछे बाईं ओर एक शख्स छतरी के नीचे शायद खैनी जैसा कुछ बनाने में व्यस्त है। बगल में दो लड़के हैं। एक की पीठ और दूसरे का चेहरा सामने है। दो केतलियां रखी हैं चूल्हे पर। तीन गैलन हैं। कमी है तो बस चूल्हे पर रखी केतली से निकलने वाली भाप की। वो भाप इश्कजदा जोडों के जुड़े हुए लबों के बीच से उठता है। उसकी महक एक फोटोग्राफर को लगती है। वह ऐन उसी क्षण को अपने लेंस में कैद कर लेता है। अपने संपादक के पास ले जाता है। कहता है इसे छापो। संपादक नानुकुर करता है। वह इसे अपने फेसबुक पर डाल देता है। बारिश का इश्क़ वायरल हो जाता है। इसके बाद जो होता है, वह इतिहास नहीं है क्योंकि हमारे यहां ऐसा रोज़ हो रहा है।
इस घटना के अगले दिन ढाका के पत्रकार जिबान अहमद को उसके कुछ साथी पत्रकार नैतिकता की दुहाई देते हुए पीट देते हैं। उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है। जिबॉन का कहना है कि जब मीयां बीबी राजी तो क्या करेगा काज़ी, मतलब प्रेमरत जोड़े ने इस तस्वीर को खींचने पर कोई आपत्ति नहीं जताई है और जो लोग नैतिकता की विकृत परिभाषा दे रहे हैं वे उनके सामने झुकने वाले नहीं हैं।
जिबॉन 30 साल के हैं। नफ़रत और उन्माद से भरी दुनिया में प्रेम की एक अदद छवि फैलाना चाहते थे। उन्होंने अपने संपादकों के इनकार करने पर उनसे कहा, ”मैंने कहा, आप इस तस्वीर को नकारात्मक नहीं दिखा सकते, मैं तो इसे खालिस इश्क़ का प्रतीक मान रहा हूं।” संपादकों को इश्क़ विश्क़ नहीं समझ आता। उन्होंने तस्वीर अपने इंस्टाग्राम और फेसबुक पर डाल दी। वहां यह पांच हज़ार से ज्यादा बार शेयर हो चुकी है।
अगले दिन कुछ साथी पत्रकारों ने उनको धुन दिया। उनके बॉस ने उनसे उनका लैपटॉप और और उनकी आइडी वापस मांग ली। कारण नहीं बताया, जैसा अखबारों में अकसर होता है।
ढाका ट्रिब्यून में तनीम अहमद लिखते हैं कि आज इतना बुरा दौर है कि एक अदद बोसा हमारे भीतर के शैतान को बाहर ला देता है। यह बांग्लादेश का हाल है। अपने यहां तो गले लगाना भी सियासी विवाद का हिस्सा बन जाता है। राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री को गले लगाया। प्रधानमंत्री सोचे कि उनकी कुर्सी छिनने वाली है। गले लगाना, प्यार करना, चुम्बन, इनकी उलटी प्रतिक्रियाएं हो रही हैं। लोग सीधे-सीधे दैहिक मुद्राओं को समझना भूल चुके हैं।
याद करिए। कुछ साल पहले वैंकूवर में एक दंगे के बीच सड़क पर एक प्रेमी जोड़े की किस करती हुई तस्वीर वायरल हुई थी। एक जोड़े को पुलिस ने मारकर ज़मीन पर गिरा दिया था। लड़का अपनी प्रेमिका को शांत कराने की कोशिश कर रहा था। दोनों के बीच हुआ चुम्बन इसी का एक हिस्सा था। दंगाई भीड़ और पुलिस की पृष्ठभूमि में सड़क पर चुम्बन करते प्रेमी जोड़े की यह तस्वीर दुनिया भर में एक झटके में पागल प्रेमियों का आदर्श बन गई। इस एक तस्वीर से कनाडा के फोटोग्राफर रिच लैम को दुनिया जान गई।
वह कनाडा था। यह बांग्लादेश है। रिच लैम प्रसिद्ध हो गए। जिबॉन पिट गए। अपने यहाँ गले मिलने वाले का मज़ाक बन गया।
ढाका ट्रिब्यून ने जिबॉन की खींची हुई तस्वीर में से प्रेमी जोड़े को हटाकर एक तस्वीर छापी है। बिलकुल वही फ्रेम है। एकदम वही लोकेशन। यह तस्वीर शायद बाद में खींची गई होगी क्योंकि इसमें छतरी के नीचे खैनी खाता आदमी गायब है और फ्रेम थोड़ा दाहिने खिसका हुआ है। आप इसे देखिए और सोचिए कि इसमें ऐसा क्या हो सकता था जो इस तस्वीर को अर्थपूर्ण, जीवंत बनाता। इस तस्वीर में एक ऊब है, एक रोजमर्रापन का भाव। गोया बारिश होने के चलते लोग दुकान बढ़ा रहे हों। बारिश यहां खींचती नहीं, धकेलती है, भगाती है।
अब दोबारा जिबॉन की तस्वीर को देखिए। दो बिलकुल एक जैसे फ्रेमों का फर्क समझ आएगा। इसी फ़र्क को कहते हैं प्रेम, मोहब्बत, इश्क़। इस इश्क़ में बारिश जवान हो उठती है। आलोक धन्वा लिखते हैं (बारिश):
“बारिश एक राह है / स्त्री तक जाने की…!”
पता नहीं बारिश स्त्री तक ले जाती है या स्त्री बारिश तक… अपना-अपना तजुर्बा अलग हो सकता है। हां, एक बात तय है- जैसा कि इस कविता की आखिरी पंक्ति कहती है:
”बारिश की आवाज़ में / शामिल है मेरी भी आवाज़!”
यहां ”मेरी भी आवाज़” से आशय है जिबॉन की आवाज़, रिच की आवाज़, उन हज़ारों प्रेमियों की आवाज़ जिन्होंने ढाका की इस तस्वीर को आगे बढ़ाया, पत्रकार एनी गोवेन की आवाज़ जिन्होंने इस तस्वीर और इसके पीछे की कहानी को और इसके खींचने वाले को वॉशिंगटन पोस्ट की स्टोरी के लायक समझा, और एक आवाज़ अपनी भी।
ख़बर हमेशा बुरी नहीं होती। ख़बर अच्छी भी हो सकती है। जैसे बारिश में इश्क़ करते दो जन। इसके लिए ढाका जाने की ज़रूरत नहीं है। अपने आसपास देखिए। बारिश हो रही है। नज़र घुमाइए। बारिश में भीगा बोसा दिख जाएगा!