प्रिय पाठकों, चार साल पहले मीडिया विजिल में ‘आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म’ शीर्षक से प्रख्यात चिंतक कँवल भारती लिखित एक धारावाहिक लेख शृंखला प्रकाशित हुई थी। एक बार फिर हम ये शृंखला छाप रहे हैं ताकि आरएसएस के बारे में किसी को कोई भ्रम न रहे। पेश है इसकी तीसरी कड़ी जो 6 जुलाई 2017 को पहली बार छपी थी- संपादक
आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म–3
राष्ट्र जागरण अभियान के पत्रक में डा. हेडगेवार के संदर्भ से कहा गया है, ‘इतिहास का अध्ययन तत्कालीन महापुरुषों से संपर्क कर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत एक सनातन और पुरातन राष्ट्र है. परम्परा से रहता चला आ रहा इसका पुत्रवत समाज हिन्दू है, जिसके प्रयास और परिश्रम से इस राष्ट्र की उन्नति हुई और भारतमाता जगद्गुरु कहलाई. इसकी वीरता, ज्ञान और समृद्धि ने विश्व को चमत्कृत किया था. इसी हिन्दू समाज ने इस देश की रक्षा के लिए अनेक बलिदान किये. विश्व में इस राष्ट्र की पहचान हिन्दू के साथ जुड़ी है.’
डा. हेडगेवार के इस कथन में भ्रमित करने वाली बात यह है कि भारतमाता जगद्गुरु कहलाई, या ब्राह्मण को जगद्गुरु कहा गया? यह शब्दों का भयानक जाल है, जिसमें भावुक हिन्दू फंस जाता है. हमने भारतमाता को जगद्गुरु कहते हुए किसी विदेशी को नहीं सुना, परन्तु भारत में कुछ ब्राह्मण जरूर जगद्गुरु की हास्यास्पद उपाधि लगाए घूम रहे हैं. इनसे यह कोई भी पूछने वाला नहीं है कि जगद्गुरु की उपाधि उन्हें भारत के सिवा, विश्व के किस संगठन ने दी है? लेकिन भारत में ही, जब हिन्दुओं के सिवा, उन्हें कोई जगद्गुरु नहीं मानता, तो वे किस आधार पर अपने को जगद्गुरु कहते हैं ? जगद्गुरु का मतलब तो यही है कि पूरा जगत उन्हें धर्म-दर्शन और ज्ञान-विज्ञान में अपना गुरु माने. पर कोई भी देश उन्हें अपना गुरु नहीं मानता. तब वे जगद्गुरु कैसे हो गए? इस जगद्गुरु की हास्यास्पद उपाधि पर सबसे पहला प्रहार छह सौ साल पहले कबीर ने किया था. उन्होंने ब्राह्मणों की आँखों में आँखें डालकर कहा था—
ब्राह्मण गुरु जगत का, साधु का गुरु नाहिं.
उरझि-पुरझि के मरि रह्या, चारों वेदा माहिं.
(कबीर ग्रंथावली, श्याम सुन्दरदास, चाणक को अंग, साखी-10,)
कबीर का कहना था कि तुम मानते रहो अपने को जगद्गुरु, पर तुम तो मेरे साधु के भी गुरु नहीं हो सकते, क्योंकि सिर्फ वेदों में ही उरझ-पुरझ कर मरने वाला प्राणी कैसे सारे संसार का गुरु हो सकता है ? लेकिन असल में जिस तरह आरएसएस का हिन्दूराष्ट्र संकुचित है, उसी तरह उसकी जगद्गुरु भारत माता भी संकुचित है. जिस तरह हिन्दूराष्ट्र द्विजराष्ट्र है, जिसमें दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदाय शामिल नहीं हैं, उसी तरह जगद्गुरु भारतमाता भी जगत के द्विजों तक ही संकुचित है, उसमें अन्य नागरिक शामिल नहीं हैं. इसलिए, जगद्गुरु बने हुए ब्राह्मणों ने एक बार भी इस हकीकत पर विचार नहीं किया, और वे जगद्गुरु ही बने रहे. इन्हीं में से एक जगद्गुरु ने कुछ साल हुए, अस्पृश्यता को धर्मविहित ठहराते हुए दलितों के मंदिर-प्रवेश का विरोध किया था. जो भारतमाता दलितों को नहीं अपना सकती, वह जगद्गुरु कैसे हो सकती है?
‘इसी हिन्दू समाज ने इस देश की रक्षा के लिए अनेक बलिदान किये’- यह कथन भी स्वीकार करने योग्य नहीं है. क्योंकि मुख्य सवाल यह है कि ये बलिदान किन तत्वों से देश की रक्षा के लिए किए गए? अगर वे मुसलमान या ईसाई थे, तो कहाँ रक्षा हुई ? देश में मुस्लिम राज कैसे आ गया ? अंग्रेजों ने उसे अपना उपनिवेश कैसे बना लिया ? इस पत्रक में उन तत्वों पर प्रकाश क्यों नहीं डाला गया, जिन्होंने देश को गुलाम बनाया ? पत्रक की यह बात और भी हैरान करने वाली है कि ‘विश्व में राष्ट्र की पहचान हिन्दू के साथ जुड़ी हुई है.’
शायद इसीलिए आरएसएस के नेता ताजमहल को भारत की पहचान मानने से इनकार कर रहे हैं ? चलिए, ताजमहल को छोड़ देते हैं, क्योंकि वह सचमुच भारत का एक दर्शनीय ऐतिहासिक स्थल है, उसकी पहचान नहीं है. लेकिन वे इस सच्चाई पर क्यों पर्दा डाल रहे हैं कि विश्व में भारत की पहचान एक बौद्ध राष्ट्र के रूप में भी है. विश्व के अनेक देश बौद्ध राष्ट्र हैं, जो भारत को अपनी पुण्यभूमि मानते हैं, और बुद्ध की धरती का दर्शन करने के लिए हर वर्ष भारत आते हैं. असल मायने में देखा जाये तो बुद्ध ही जगद्गुरु हैं. लेकिन आरएसएस उन बुद्ध को, जिन्होंने सम्पूर्ण जगत को समता, करुणा और मैत्री का ज्ञान दिया था, हिन्दूराष्ट्र के मार्ग में बाधक मानता है. (इस पर आगे किसी लेख में विचार करेंगे) एक और दिलचस्प बात यह है कि आरएसएस की जो राष्ट्र की परिभाषा है, वह, (गोलवलकर के अनुसार) एक देश, एक जाति (हिन्दू), एक धर्म (हिन्दू), एक संस्कृति (हिन्दू) और एक भाषा (संस्कृत)– इन पांच चीजों से बनता है. इस विचार से भारत की पहिचान हिन्दू राष्ट्र के साथ जुड़ ही नहीं सकती, क्योंकि ज्ञात इतिहास के किसी भी काल-खंड में भारत हिन्दू देश, हिन्दू जाति, हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू भाषा–संस्कृत का देश कभी नहीं रहा है. इसकी सीमाएं हमेशा घटती-बढ़ती रहीं हैं, और कभी भी यह एक भाषा के रूप में संस्कृत से नहीं जुड़ा रहा है. संस्कृत कभी भी भारत की मातृभाषा नहीं रही है. यहाँ तक कि वेदव्यास से लेकर याज्ञवल्क्य तक, और शंकराचार्य से लेकर वाल्मीकि तक किसी भी आचार्य की मातृभाषा संस्कृत नहीं थी, जिस प्रकार भारत के किसी भी अंग्रेजी विद्वान की मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है. हर प्रान्त की अलग भाषा थी, जो आज भी है. इसी प्रकार भारत में न एक धर्म रहा है और न एक संस्कृति. यह अनेक धर्मों और संस्कृतियों का देश रहा है.
आरएसएस अच्छी तरह जानता है कि इतिहास से भारत की हिन्दू पहचान साबित नहीं की जा सकती. उसके पास पृथ्वीराज, राणाप्रताप और शिवाजी जैसे कुछ राजाओं का ही इतिहास है, जिन्होंने मुगलों से युद्ध किया था, और एक सीमित क्षेत्र में ब्राह्मणशाही कायम की थी. पर उस ब्राह्मण राजशाही में भी संस्कृत मातृभाषा नहीं थी. वहाँ भी संस्कृत केवल ब्राह्मणों तक ही सीमित थी. अन्य जातियों को इसे पढ़ने का अधिकार प्राप्त नहीं था. उसी मराठा राज में, जिसे आरएसएस हिन्दू पहचान वाला राष्ट्र कहता है, डा. आंबेडकर ने लिखा है कि ब्राह्मण के सिवा अगर कोई अन्य वेदमंत्र बोलता था, तो उसकी जीभ काट ली जाती थी. और हकीकत में पेशवा के आदेश पर अनेकों सुनारों की जीभें काट दी गईं थीं. (Dr. Babasaheb Ambedkar writtings and speeches, vol.12, p, 721)
अत: आरएसएस का यह कहना कि विश्व में भारत की पहचान हिन्दू के साथ जुड़ी हुई है, सरासर मिथ्या प्रचार है.
पत्रक आगे कहता है कि ‘डा. हेडगेवार ने लक्ष्य रखा, अपना कार्य सम्पूर्ण हिन्दू समाज का संगठन करना है. किसी की उपेक्षा नहीं. सबसे स्नेहपूर्ण व्यवहार चाहिए. जातिगत ऊँच-नीच का भाव हमारे मन को कभी स्पर्श न करे. हिन्दुस्थान के प्रति भक्ति रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति हिन्दू है, और प्रत्येक हिन्दू मेरा भाई है.’
क्या इससे बड़ा झूठ कोई हो सकता है? अगर प्रत्येक हिन्दू को भाई समझा होता, तो क्या दलित जातियों पर हिन्दुओं का अत्याचार बढ़ता ? अगर आरएसएस दलितों को भाई समझता होता, तो क्या वह दलितों और आदिवासियों पर हिन्दुओं के अत्याचारों का विरोध नहीं करता ? क्या उसने दोषियों को सजा दिलाने के लिए सरकार पर दबाव नहीं बनाया होता. अभी ताज़ा घटना सहारनपुर की है, जहाँ महाराणा प्रताप के बाँकुरों ने पूरी दलित बस्ती को जलाकर अपनी राजपूती शान दिखाई थी. क्या आरएसएस ने उसकी निंदा की? इसलिए यह कैसे मान लें कि प्रत्येक हिन्दू आपका भाई है? या तो दलित आपका भाई नहीं है, या दलित को आप हिन्दू नहीं मानते हैं? और सच यही है कि दोनों बातें सही हैं– न दलित आपका भाई है, और न दलित को आप हिन्दू मानते हैं.
लेकिन, जैसा कि हम पीछे बता चुके हैं कि आरएसएस जाति-व्यवस्था का समर्थन करता है, परन्तु छुआछूत का विरोध करता है, और दलितों के मंदिर-प्रवेश का भी समर्थन करता है, तो इस रहस्य को ठीक से समझना होगा. अभी कुछ माह पहले देहरादून में आरएसएस के एक नेता ने अछूतों को मन्दिर-प्रवेश कराने का प्रयास भी किया था, जिसमें वे बुरी तरह असफल हुए थे. आरएसएस डॉ. आंबेडकर की जयंतियाँ भी जोरशोर से मना रहा है. अवश्य ही यह विरोधाभास हैरानी पैदा करता है ! जातिवाद और दलित-प्रेम एक साथ कैसे चल सकता है ? कुछ तो संघ-जाल है और यह संघ-जाल धर्मान्तरण-विरोध, घरवापसी, लवजिहाद और दलित इतिहास की शुद्धि से समझ में आ जाता है. इसके पीछे कोई सद्भाव का विचार नहीं है, न दलितों से भाईचारे का विचार है, और न उनको हिन्दुत्व से जोड़ने का विचार है. फिर क्या विचार है ? असल में रहस्य यह है कि आरएसएस दलितों को ईसाईयों और मुसलमानों से दूर रखना चाहता है, और इसलिए दूर रखना चाहता है, क्योंकि उसे हिन्दुओं के अल्पसंख्यक होने का खतरा सता रहा है. उसे यह भय है कि दलित अगर मुसलमान बन गए, तो वे बहुसंख्यक हो जायेंगे, और हिन्दू अल्पसंख्यक बन जायेंगे, जिस तरह वे कश्मीर में हैं. इससे उसका हिन्दूराष्ट्र का मिशन खतरे में पड़ जायेगा. अत: अल्पसंख्यक बनने का खतरा ही आरएसएस को दलितों और आंबेडकर के करीब लाता है. इसके सिवा उसे इन दोनों से कोई लगाव नहीं है.
(आगे जारी…)
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