वर्णसंकर प्रयोगों से हिंदू नस्‍ल को ‘बेहतर’ बनाने की बात पर दीनदयाल सहमत थे

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प्रतिबद्ध वामपंथी पत्रकार एवं न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव से जुड़े हुए सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष गाताड़े ने हाल में संघ के विचारक और एकात्‍म मानववाद के प्रणेता कहे जाने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्‍याय पर बहुत अध्‍ययन कर के एक पुस्‍तक लिखी है। नवनिर्मिति, वर्धा, महाराष्ट्र द्वारा प्रकाशित इस पुस्‍तक का नाम है ”भाजपा के गांधी”। लेखक की सहर्ष सहमति से मीडियाविजिल अपने पाठकों के लिए इस पुस्‍तक के अध्‍यायों की एक श्रृंखला चला रहा है। इस कड़ी में प्रस्‍तुत है पुस्‍तक की पांचवीं किस्‍त। (संपादक)

अध्‍याय 5 

जाति याने स्वधर्म – दीनदयाल  

 

उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों के उभार के अलावा – जबकि तीसरी दुनिया के तमाम मुल्कों में ऐसे संघर्ष तेज हो रहे थे – उस कालखण्ड की क्या विशिष्टता कही जा सकती है जब एक साधारण प्रचारक के तौर पर दीनदयाल उपाध्याय ने सामाजिक-राजनीतिक जीवन का आगाज़ किया। याद करें कि यही वह दौर रहा है जब नात्सीवाद-फासीवाद का उभार समूचे यूरोप को ग्रसने को करीब था और दूसरी तरफ सोवियत रूस में कम्युनिस्टों की अगुआई में चल रहा समाजवादी निर्माण का दौर तथा उसके साथ ही कई मुल्कों में कम्युनिस्टों की अगुआई में जुझारू संघर्ष की लहरें एक नयी इबारत लिखती दिख रही थीं। पीछे मुड़ कर देखें तो विश्व इतिहास में वह एक ऐसा मुक़ाम था जब सामन्तवाद, उपनिवेशवाद की पुरानी दुनिया भहराकर गिर रही थी और नयी दुनिया आकार ले रही थीं।

और इस झंझावाती दौर में हिंदू राष्ट्र की सियासत किस दिशा में आगे बढ़ रही थी इसका अन्दाज़ा हम लगा सकते हैं कि किस तरह गोलवलकर – जो उन दिनों संघ के सुप्रीमो थे – चीज़ों को, आसपास की परिस्थिति को देख रहे थे और किस तरह की कार्रवाइयों में मुब्तिला थे। यह इस बात को स्पष्ट करेगा कि दीनदयाल उपाध्याय जैसे स्वयंसेवक/प्रचारक उन दिनों क्या कर रहे थे। और यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि अपने खास किस्म के विश्वदृष्टिकोण के चलते जिसका फोकस ‘‘हिंदू धर्म की गौरवशाली परम्पराओं पर आधारित हिंदू राष्‍ट्र के निर्माण पर था’’ और जिसमें बरतानवी उपनिवेशवाद के बरअक्स मुसलमानों को बड़ा दुश्मन समझा जा रहा था और जिसमें नात्सीवाद-फासीवाद के अन्तर्गत हाथ में लिए गए ‘‘नस्लीय शुद्धिकरण’’ के अभियानों की तारीफ की जा रही थी, गोलवलकर के लिए यह मुमकिन नहीं हुआ कि वह इतिहास की बदलती धारा पर अपनी नब्ज रख सके। यह वह अडियल रुख़ था जिसके चलते न केवल वह व्यक्तिगत तौर पर उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष से दूर रहे बल्कि उन्होंने अपने संगठन के लिए कोई ऐसा सकारात्मक कार्यक्रम नहीं बनाया ताकि वह उसमें सहभागी हो सके।

जैसा कि जानते हैं कि हिन्दुत्व  के फलसफे के प्रति उनका पहला प्रमुख सैद्धांतिक योगदान ‘‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’’ /1938/ के रूप में सामने आया। सतहत्तर पेज की इस किताब का एक उद्धरण यह बताने के लिए काफी है कि उसकी अन्तर्वस्तु के बारे में राय बनायी जाए। गोलवलकर ने लिखा था:

‘‘भारत की विदेशी नस्लों को चाहिए कि वह हिंदू संस्कृति और भाषा को अपना ले, उसे चाहिए कि वह हिंदू धर्म का सम्मान करना सीखे, हिंदू नस्ल और संस्कृति – अर्थात हिंदू राष्ट्र – के महिमामंडन के अलावा उसे अन्य किसी विचार पर गौर नहीं करना चाहिए और उन्हें अपने अलग अस्तित्व को भुलाकर हिंदू नस्ल में समाहित कर देना चाहिए या वे चाहे तो देश में रह सकते हैं, मगर उन्हें फिर हिंदू राष्ट्र के अधीन रहना पड़ेगा, किसी भी चीज़ पर दावा नहीं करना होगा, किसी भी तरह के विशेषाधिकार उन्हें हासिल नहीं होंगे – यहां तक कि नागरिक अधिकार भी नहीं मिलेंगे। कम से कम, उनके सामने और कोई रास्ता अपनाने के लिए नहीं होगा। हम एक प्राचीन मुल्क हैं; आईए एक प्राचीन मुल्क की तरह विदेशी नस्लों के साथ पेश आए, जिन्होंने इस देश में रहना तय किया है।

/माधव सदाशिव गोलवलकर, वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड/

जानने योग्य है कि 77 पेज की उपरोक्त किताब गोलवलकर ने तब लिखी थी जब हेडगेवार ने उन्हें सरकार्यवाह के तौर पर नियुक्त किया था। ‘गैरों’ के बारे में यह किताब इतना खुल कर बात करती है या जितना प्रगट रूप में हिटलर द्वारा यहूदियों के नस्लीय शुद्धिकरण के सिलसिले को अपने यहां भी दोहराने की बात करती है कि संघ तथा उसके अनुयायियों ने खुलेआम इस बात को कहना शुरू किया है कि वह किताब गोलवलकर की अपनी रचना नहीं है बल्कि बाबाराव सावरकर की किन्हीं किताब ‘राष्ट्र मीमांसा’ का गोलवलकर द्वारा किया गया अनुवाद है।

दिलचस्प बात है कि इस मामले में उपलब्ध सारे तथ्य इसी बात की ओर इशारा करते हैं कि इस किताब के असली लेखक गोलवलकर ही हैं। खुद गोलवलकर 22 मार्च 1939 को इस किताब के लिये लिखी गयी अपनी प्रस्तावना लिखते हैं कि प्रस्तुत किताब लिखने में राष्ट्र मीमांसा ‘मेरे लिये ऊर्जा और सहायता का मुख्य स्रोत रहा है।’ मूल किताब के शीर्षक में लेखक के बारे में निम्नलिखित विवरण दिया गया है: ‘‘माधव सदाशिव गोलवलकर, एमएससी. एल.एल.बी. (कुछ समय तक प्रोफेसर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)।’’ इसके अलावा, किताब की भूमिका में, गोलवलकर ने निम्नलिखित शब्दों में अपनी लेखकीय स्थिति को स्वीकारा था: ‘‘यह मेरे लिये व्यक्तिगत सन्तोष की बात है कि मेरे इस पहले प्रयास – एक ऐसा लेखक जो इस क्षेत्र में अनजाना है – की प्रस्तावना लोकनायक एम.एस. अणे ने लिख कर मुझे सम्मानित किया है।’’ (‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ गोलवलकर की भूमिका से, पेज 3 )

अमेरिकी विद्वान जीन ए कुरन – जिन्होंने पचास के दशक की शुरूआत में संघ पर अध्ययन किया तथा जो उसके प्रति सहानुभूति रखते हैं, अपनी किताब ‘‘‘मिलिटेन्ट हिन्दूइजम इन इंडियन पॉलिटिक्स: ए स्टडी आफ द आरएसएस ’ /1951/में इस बात की ताईद करते हैं कि किताब के रचयिता गोलवलकर ही हैं और उसे संघ की ‘बाइबिल’ के तौर पर संबोधित करते हैं। एजी नूरानी अपनी चर्चित किताब ‘द आरएसएस एण्ड द बीजेपी: ए डिवीजन आफ लेबर’/ पेज 18-19, लेफटवर्ड बुक्स/ बताते हैं कि वर्ष 1978 में सरकार के सामने प्रस्तुत अपने लिखित शपथपत्र में अनुच्छेद 10 में आधिकारिक तौर पर बताते हैं कि-

”भारत ऐतिहासिक तौर पर प्राचीन समय से ही हिंदू राष्‍ट्र रहा है, इसे वैज्ञानिक आधार प्रदान करने के लिए माधव सदाशिव गोलवलकर ने एक किताब लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’’। अनुच्छेद 7 में उन्होंने उनकी किताब ‘‘‘बंच आफ थॉटस/विचार सुमन/’’1966/ का उल्लेख भी किया ताकि ‘‘संघ के कामों एवं उसकी गतिविधियों के उद्देश्य, वास्तविक स्वरूप, दायरा आदि के बारे में स्पष्ट हुआ जा सके।’’

संघ सुप्रीमो के तौर पर गोलवलकर के विचारों का अन्य अहम मसला दलितों एवम स्त्रियों के प्रति तत्कालीन नेतृत्व का पुरातनपंथी नज़रिया रहा है जिस पर ब्राहमणवादी पुनरुत्‍थान का प्रभाव साफ दिखता है। यह अकारण नहीं था कि आज़ादी के वक्त जब नया संविधान बनाया जा रहा था, तब संघ ने उसका जोरदार विरोध किया था और उसके स्थान पर मनुस्मृति को अपनाने की हिमायत की थी। इस विरोध की बानगी ही यहां दी जा सकती है। अपने मुखपत्र  ‘आर्गेनायजर’ (30 नवम्बर, 1949, पृष्ठ 3) में संघ की ओर से लिखा गया था कि-

हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गयी थी। आज तक इस विधि की जो मनुस्मृतिमें उल्लेखित है, विश्वभर में सराहना की जाती  रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम -पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए  उसका कोई अर्थ नहीं है।’’

उन्हीं दिनों जब अम्बेडकर एवं नेहरू की अगुआई में ‘हिंदू कोड बिल’ के जरिए हिंदू स्त्रियों को सम्पत्ति एवं विरासत में सीमित अधिकार दिलाने की पहल हुई तब गोलवलकर एवं उनके सहयोगियों ने महिलाओं के इस ऐतिहासिक सशक्तिकरण के खिलाफ व्यापक आन्दोलन छेड़ा था। उनका कहना था: यह हिंदू परम्पराओं एवं संस्कृति के प्रतिकूल है।

निश्चित ही दीनदयाल उपाध्याय – जो संगठन के अनुशासित प्रचारक थे – इस समूचे घटनाक्रम के न केवल गवाह थे बल्कि उसमें सहभागी भी थे, उनकी इसी निष्ठा के चलते वह संघ सुप्रीमो के करीबियों में शुमार किए जाते थे। बाद के दिनों में भी दीनदयाल ने संघ सुप्रीमो के इन जाति के महिमामण्डन के विचारों पर सवाल नहीं उठाया बल्कि उसे अलग ढंग से औचित्य प्रदान करते रहे। उनके तर्कों में अलग किस्म का परिष्कार दिख रहा था, मगर जाति की वैधता पर कहीं भी प्रश्न नहीं थे बल्कि उसे स्वधर्म के समकक्ष रखा गया था।

‘‘हालांकि आधुनिक दुनिया में समानता के नारे उठते हैं, समानता की अवधारणा को सोच समझ कर स्वीकारने की जरूरत है। हमारा वास्तविक अनुभव यही बताता है कि व्यावहारिक और भौतिक नज़रिये से देखें तो कोई भी दो लोग समान नहीं होते …बहुत सारी उग्रता से बचा जा सकता है अगर हम हिंदू चिन्तकों द्वारा प्रस्तुत किए गए समानता के विचार पर गंभीरता से गौर करें। सबसे पहला और बुनियादी प्रस्थानबिन्दु यही है कि भले ही लोगों के अलग अलग गुण होते हैं और उन्हें उनके गुणों के हिसाब से अलग अलग काम आवंटित होते हैं, मगर सभी काम समान रूप से सम्मानजनक होते हैं। इसे ही स्वधर्म कहते हैं और इसमें एक स्पष्ट गारंटी रहती है कि स्वधर्म का पालन ईश्वर की पूजा के समकक्ष होता है। इसलिए स्वधर्म की पूर्ति के लिए सम्पन्न किए गए किसी भी कर्तव्य में, उच्च और नीच और सम्मानित तथा असम्मानित का प्रश्न उठता ही नहीं है।  अगर कर्तव्य को बिना स्वार्थ के पूरा किया जाए, तो करनेवाले पर कोई दोष नहीं आता।”

[vii]  [vii] C. P. Bhishikar, Pandit Deendayal Upadhyaya: Ideology and Perception: Concept of the Rashtra,vol. v, Suruchi, Delhi, 169

वैचारिक तौर पर गहरी नजदीकी हो या संगठन के उद्देश्यों को लेकर अनुशासित ढंग से कार्य करना हो, या नेतृत्व के हर आदेश को सर आंखों पर लेना हो, दीनदयाल उपाध्याय सभी परीक्षाओं में खरे उतरते गए। यह अकारण नहीं था कि संघ के एक वरिष्ठ नेता  ने लिखा है कि गोलवलकर गुरुजी तथा दीनदयालजी दोनों के बीच ‘‘काफी तादात्म्य था।’’ दत्तोपंत ठेंगडी, जो संघ के एक दूसरे वरिष्ठ नेता थे तथा जिन्होंने भारतीय मजदूर संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना में योगदान दिया, लिखते हैं कि

पंडितजी का सबसे महत्वपूर्ण एवं आत्मीयता का अलौकिक संबंध तत्कालीन सरसंघचालक परम पूजनीय श्री गुरूजी के साथ था। परम पूजनीय श्री गुरूरु तथा श्री दीनदयाल जी के संबंधों का वर्णन करने में शब्द असमर्थ हैं। यह बात सभी निकटवर्तियों के ध्यान में आती थी कि स्वयंसेवक, प्रचारक तथा कार्यकर्ता के नाते दीनदयाल जी से श्री गुरुजी विशेष अपेक्षा रखते थे। दोनों की ‘‘वेवलैंग्थ’’ /वैचारिक तरंग-दैर्घ्य/ एक ही थी। किसी भी घटना पर श्री गुरुजी की प्रतिक्रिया क्या होगी, इसकी अचूक कल्पना दीनदयाल जी कर सकते थे।’’

/पेज 11, तत्वजिज्ञासा, पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन, सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली 2016/

लाजिम था न दीनदयाल ने जाति के प्रश्न पर, न ही स्वतंत्राता संग्राम के प्रश्न पर और न ही नात्सीवाद के आकलन पर गोलवलकर से कुछ अलग बात कही थी और यही स्थिति तबभी थी जब गोलवलकर ने ‘‘संकर को लेकर हिंदू प्रयोगों’’ की बात करते हुए शेष हिन्दुओं की तुलना में उत्तर भारत के ब्राहमणों को वरीयता प्रदान की। उनका यह भी कहना था कि भारत में हिन्दुओं की एक बेहतर नस्ल मौजूद है और हिन्दुओं की एक कमजोर नस्ल मौजूद है, जिसे वर्णसंकर के माध्यम से बेहतर करना होगा।

गुजरात युनिवर्सिटी के समाज विज्ञान संकाय के विद्यार्थियों एवं शिक्षकों के सामने प्रस्तुत अपने इस व्याख्यान में / 17 नवम्बर, 1960/ गोलवलकर ने अपना यह नस्लवादी सिद्धांत पेश किया था / देखें, Organiser जनवरी 2, 1961, पेज 5/

आज के वक्त़ में  संकर  /क्रॉस ब्रीडिंग/ के प्रयोग सिर्फ जानवरों पर किए जाते हैं। ऐसे प्रयोगों को मनुष्य जाति पर करने  का साहस आज के कथित आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी नहीं किया। अगर आज कुछ हद तक मानवीय पार प्रजनन संभव हो सका है तो वह वैज्ञानिक प्रयोगों का नहीं बल्कि यौन सुख/कामुक वासना का ही परिणाम है। आइए अब देखते हैं कि हमारे पूर्वजों ने इस क्षेत्रा में किस तरह प्रयोग किए। क्रॉस ब्रीडिंग अर्थात वर्णसंकर के जरिए मानवीय नस्ल को बेहतर करने के लिए उत्तर के नम्बूद्री ब्राहमणों को केरल में बसाया गया था और यह नियम बनाया गया था कि नम्बूद्री परिवार का बड़ा बेटा वैश्य, क्षत्रिय या शूद्र समुदायों की बेटियों से ही ब्याह करेगा। इसके अलावा एक अन्य साहसी नियम था कि किसी भी वर्ग की शादीशुदा महिला की पहली संतान नम्बूद्री ब्राहमण से पैदा होगी और बाद में वह अपने पति से प्रजनन कराएगी। आज इस प्रयोग को व्यभिचार कह सकते हैं, मगर वह वैसा नहीं था, क्योंकि पहली सन्तान तक ही सीमित था।

कई सारे संदर्भों में अपमानजनक दिखनेवाले इस वक्तव्य पर चाहे दीनदयाल उपाध्याय हों या संघ के अन्य वरिष्ठ कार्यकर्ता हों, कहीं से असहमति नहीं प्रगट होती। बकौल डा शम्‍सुल इस्लाम / ‘‘गोलवलकर्स वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड ए क्रिटिक, 2006, फारोस मीडिया, दिल्ली पेज 30-31/ गोलवलकर का यह वक्तव्य बताता है कि वह हिन्दुओं में उत्तम नस्ल और हीन नस्ल की बात से इत्तेफाक रखते थे। दूसरे, उनका मानना था कि उत्तर भारत के ब्राहमण, विशेषकर नम्बूद्री ब्राहमण, ही उत्तम नस्ल से सम्बद्ध थे।


(जारी)

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