प्रतिबद्ध वामपंथी पत्रकार एवं न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव से जुड़े हुए सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष गाताड़े ने हाल में संघ के विचारक और एकात्म मानववाद के प्रणेता कहे जाने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय पर बहुत अध्ययन कर के एक पुस्तक लिखी है। नवनिर्मिति, वर्धा, महाराष्ट्र द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का नाम है ”भाजपा के गांधी”। लेखक की सहर्ष सहमति से मीडियाविजिल अपने पाठकों के लिए इस पुस्तक के अध्यायों की एक श्रृंखला चला रहा है। इस कड़ी में प्रस्तुत है पुस्तक की आठवीं किस्त। (संपादक)
अध्याय 8
धारा 370, श्यामाप्रसाद मुखर्जी और भारतीय जनसंघ
एक दिन भी नहीं गुजरता है जब धारा 370 की मुखालिफ़त करने के लिए – जो जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करती है – भारतीय जनसंघ के संस्थापक रहे डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी का नाम भाजपा द्वारा लिया नहीं जाता। यह अलग बात है कि नए तथ्यों के सामने आने के बाद अब यह दावा भी प्रश्नों के घेरे में आया है। अब यह कहा जाने लगा है कि मुखर्जी की मौत जिन विवादास्पद परिस्थितियों में हुई थी, जब उन्हें कश्मीर को विशेष दर्जा देने का विरोध करने के लिए गिरफ्तार किया गया था – उन्होंने शुरुआत में धारा 370 की अनिवार्यता को स्वीकारा था।
इस मामले में ए.जी. नूरानी की किताब ‘आर्टिकल 370: ए कान्स्टिट्यूशनल हिस्टरी ऑफ जम्मू एण्ड कश्मीर’ /आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, पेज 480/ आज़ादी के तत्काल बाद के झंझावाती समय में जम्मू और कश्मीर की स्थिति को लेकर कई सन्देह दूर करती है।
आधिकारिक दस्तावेजों, पत्रों, ज्ञापनों, श्वेत पत्रों और संशोधनों पर आधारित लेखक का अध्ययन – जो खुद संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं – ने न केवल इस कालखण्ड के बारे में नयी अंतर्दृष्टि प्रदान की है बल्कि उस समय के घटनाक्रम का एक महत्वपूर्ण सारांश भी पेश किया है और विभिन्न स्टेकहोल्डर्स द्वारा निभायी गयी भूमिका पर भी रोशनी डाली है। जबकि हम आज धारा 370 के क्षरण की प्रक्रिया को लेकर चिंतित हैं, प्रस्तुत किताब इस क्षरण के पीछे निहित उस सियासत पर रोशनी डालती है, जिसे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला के बीच वार्ताओं के जरिए आकार दिया गया था और जिस पर सरदार पटेल तथा श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मुहर थी।
यह जानी हुई बात है कि सरदार पटेल ने जम्मू कश्मीर को लेकर विशेष दर्जे के प्रावधानों को संविधान सभा से मंजूरी दिलाने में अहम भूमिका निभायी। भाजपा द्वारा प्रसारित मत के विपरीत, पटेल ने कांग्रेस पार्टी के कुछ सदस्यों तथा जवाहरलाल नेहरू कैबिनेट के मंत्री / बिना पोर्टफोलियो के अलबत्ता जिन्हें इस मसले को सुलझाने की जिम्मेदारी दी गयी थी / गोपालस्वामी अयंगार के बीच विशेष दर्जे को लेकर उठे विवाद में हस्तक्षेप किया था ताकि धारा 370 पर / जिसे उन दिनों 306 कहा जाता था/ मुहर लगायी जा सके।
इसमें कोई दो राय नहीं कि धारा 370 को लेकर यह खुलासा – कि इसके प्रति मुखर्जी की भी पूर्ण सहमति थी तथा तत्कालीन ग्रहमंत्री सरदार पटेल की भी यही राय थी – बेहद विस्फोटक कहा जा सकता है। धारा 370 को लेकर उसके स्टैण्ड पर इस खुलासे के सम्भावित प्रभाव के बाद भी केसरिया जमात की तरफ से इसको खारिज नहीं किया गया। यह जरूर हुआ है कि किताब के प्रकाशन के बाद यही कहा गया था कि यह ‘‘छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी और छद्म बुद्धिजीवियों के हाथों इतिहास के विकृतिकरण की एक और कोशिश है।’’ दिलचस्प बात थी कि जनाब जितेन्द्र सिंह, जो उन दिनों जम्मू कश्मीर के लिए भाजपा के प्रवक्ता थे और उसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य थे, उन्होंने अप्रत्यक्ष तरीके से गोया लेखक की बात को स्वीकार किया था और कहा था ‘‘दिवंगत नेता ने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को यह सुझाया था कि वह धारा 370 पर समयसीमा तय कर लें और यह भी स्पष्ट कर दें कि कब तक उसको लागू रहने दिए जाने की योजना है।’’(http://www.siasat.com/english/news/shyama-prasad-mukherjee-never-endorsed-article-370
इस बात पर जोर देना भी जरूरी है कि यह कोई पहला वक्त़ नहीं था कि कश्मीर को पूर्ण स्वायत्तता के प्रति डॉ. मुखर्जी की सहमति का मसला उठा हो। जनाब बलराज पुरी, कश्मीर के अग्रणी पत्रकार ने ‘द ग्रेटर कश्मीर’ के अपने आलेख में /http://www.greaterkashmir.com/news/2010/aug/8/leaf-from-the-past-4.asp /इस मसले पर अधिक विवरण पेश किया था:
‘‘नेहरू और शेख अब्दुल्ला के साथ श्यामाप्रसाद मुखर्जी का राज्य की स्थिति को लेकर लम्बा पत्रव्यवहार, जिसे उस वक्त़ पार्टी ने प्रकाशित किया था, इस मुददे पर उनके स्टैण्ड का सबसे आधिकारिक सबूत है। मिसाल के तौर पर, 9 जनवरी 1953 को, दोनों को लिखे पत्र में वह लिखते हैं ‘‘हम इस बात पर तुरंत सहमत होंगे कि घाटी में शेख अब्दुल्ला की अगुआई में विशेष तरीके से चलने दिया जाए, तब तक जब तक वह चाहते हों अलबत्ता जम्मू और लद्दाख का भारत के साथ तुरंत एकीकरण करना चाहिए।’’ जबकि नेहरू ने इस विचार को सिरेसे खारिज किया तथा कश्मीर में उसकी प्रतिक्रिया को लेकर तथा उसके अंतरराष्ट्रीय परिणामों को लेकर, चेतावनी दी ; अब्दुल्ला ने एक विस्त्तृत जवाब भेजा जिसमें उन्होंने लिखा कि ‘‘आप शायद इस बात से नावाकिफ हैं कि पाकिस्तान एवं अन्य स्वार्थी तत्वों की तरफ से किस तरह की कोशिशें चल रही हैं ताकि राज्य की एकता को तोड़ा जाए। एक बार जब राज्य की अवाम की कतारों को विभाजित किया जाएगा तो किसी भी किस्म का समाधान उन पर थोपा जा सकेगा।’’
वह आगे जोड़ते हैं कि यह लम्बा पत्रव्यवहार डॉ. मुखर्जी द्वारा नेहरू को लिखे इस पत्र के साथ / 17 फरवरी, 1953/ समाप्त हुआ था जिसमें उन्होंने सुझाया था:
- दोनों पक्ष इस बात पर जोर दें कि राज्य की एकता को बरकरार रखा जाएगा और स्वायत्तता का सिद्धांत जम्मू प्रांत और लद्दाख तथा कश्मीर घाटी पर भी लागू होगा।
- दिल्ली करार पर अमल – जिसमें राज्य को विशेष दर्जा दिया गया था – उसे जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा के अगले सत्र से लागू किया जाएगा।
नेहरू ने जवाब दिया कि तीनों प्रांतों के लिए स्वायत्तता के प्रस्ताव पर उनके बीच तथा अब्दुल्ला के बीच जुलाई 1952 में ही सहमति हुई थी। अगर मुखर्जी को अपनी गलती का एहसास हुआ है तो उन्हें अपने आन्दोलन को बिना शर्त वापस लेना चाहिए। मुखर्जी इस बात के लिए तैयार नहीं थे क्योंकि यह उनकी हार मानी जाती। यह गतिरोध लम्बे समय तक बना रहा, जिसने एक तरह से जनसंघ के लिए ‘‘चेहरा बचाने’’ (face saving) का बहाना दिया।
यह नोट करना महत्वपूर्ण है कि मुखर्जी की आकस्मिक मौत के बाद, नेहरू ने जम्मू के लोगों से अपील की थी कि वह अपने आन्दोलन को वापस ले लें क्योंकि स्वायत्तता की उनकी मांग पूरी कर ली गयी है। राज्य सरकार ने इस अपील पर 2 जुलाई को सहमति जताई, जब प्रजा परिषद के नेताओं को रिहा किया गया, जब वह दिल्ली जाकर 3 जुलाई को नेहरू से मिले। इस तरह प्रजा परिषद के आन्दोलन को – क्षेत्रीय स्वायत्तता की गारंटी एवं दिल्ली करार पर तत्काल अमल – के वायदे के साथ वापस लिया गया।
मगर यहां तमाम किन्तु परन्तु मौजूद दिखते हैं। एक कारक जिसने इस करार पर अमल को रोका उसकी वजह प्रजा परिषद और जनसंघ का उससे बाहर होना था। बलराज मधोक, जो बाद में जनसंघ के अध्यक्ष बने, पार्टी ने राज्य की स्वायत्तता तथा क्षेत्रीय स्वायत्तता पर अपनी प्रतिबद्धता नागपुर / संघ का मुख्यालय / के निर्देश पर वापस ली थी। पार्टी ने क्षेत्रीय स्वायत्तता और धारा 370 के खिलाफ अपनी अनवरत मुहिम जारी रखी।
(http://www.greaterkashmir.com/news/2010/aug/8/leaf-from-the-past-4.asp))
आज तक भाजपा कहती आयी है कि अगर सरकार ने इस धारा के प्रति मुखर्जी के प्रस्ताव को माना होता तो कश्मीर आज अलग स्थिति में होता, मगर वह अभी यह कहने का साहस नहीं जुटा पायी है कि उन्होंने पहले इस प्रस्ताव पर अपनी लिखित सहमति दी थी। उदितमान भारतीय जनसंघ के अग्रणी नेताओं में शुमार दीनदयाल उपाध्याय – अपने सहयोगी बलराज मधोक की ही तरह – जमीनी स्तर पर इस पूरी परिस्थिति से, इस समूचे घटनाक्रम से निश्चित ही अवगत रहे होंगे, मगर उन्होंने ‘‘ऑफिशियल लाइन’’ पर टिके रहना मुनासिब समझा जो ‘‘नागपुर’’ से प्रभावित थी और एक तरह से कहें तो अपने अनुशासित प्रचारक होने का परिचय दिया।
और न केवल धारा 370, अगर हम मुखर्जी के असामयिक इन्तक़ाल के बाद भारतीय जनसंघ की यात्रा पर बारीकी से निगाह डालें – वह इस बात को अधिक स्पष्ट करता है कि संगठन निर्माण को लेकर मुखर्जी तथा संघ के नेतृत्व की समझदारी में गुणात्मक अंतर था। मुखर्जी की मृत्यु /23 जून 1953/ के बाद दीनदयाल खुद उसके सबसे महत्वपूर्ण नेता के तौर पर – उसके विचारक एवं सिद्धांतकार के तौर पर – उभरे ; वही जनसंघ आज की भारतीय जनता पार्टी का पूर्ववर्ती है। और 11 फरवरी 1968 को जब रेलवे यात्रा के दौरान उनकी हत्या हुई तब वही पार्टी के अध्यक्ष बने थे।
ध्यान रहे कि मुखर्जी की मौत के बाद संघ की तरफ से भेजे गए वरिष्ठ प्रचारक के नाते दीनदयाल उपाध्याय भी भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष पद सम्भाल सकते थे, अलबत्ता उन्होंने ऐसी औपचारिक जिम्मेदारी लेने से बार बार इन्कार किया क्योंकि वह संगठन निर्माण पर फोकस कर रहे थे। इस अन्तराल में अध्यक्ष के पद पर ऐसे ही लोग विराजमान होते रहे, जिनकी सार्वजनिक स्वीकार्यता अधिक थी, भले ही संघ से प्रत्यक्ष जुड़ाव रहा हो या न रहा हो।
लाजिम था कि जिन्होंने इस अलिखित श्रम विभाजन को ठीक से समझा, और पद की गरिमा के हिसाब से दावेदारी नहीं की, उनका कार्यकाल आसानी से सम्पन्न हुआ और जिन्होंने जनसंघ के संचालन में अधिक स्वायत्तता का प्रयास किया, उन्हें पद से हटना पड़ा या हटा दिया गया।
मुखर्जी के तत्काल बाद जनसंघ के अध्यक्ष बने मौलीचन्द्र शर्मा की अध्यक्ष पद से विदाई ऐसी ही परिस्थितियों में हुई।
(जारी)