जेपी का सुभाष को पत्र- चलो, क्रांति के लिए भूमिगत मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी बनाएँ!

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सुभाष चंद्र बोस  के जन्मदिन पर विशेष

29 अप्रैल 1939 को काँग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देने के बाद नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने 3 मई 1939 को काँग्रेस के अंदर ही फ़ॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की जिसका इरादा काँग्रेस के आंदोलन को एक वामपंथी मोड़ देना था। लेकिन जल्दी ही वे पार्टी से अलग हो गए।  जून 1940 में नागपुर में आयोजित दूसरे अखिल भारतीय सम्मेलन में फारवर्ड ब्लॉक को एक राष्ट्रीय पार्टी घोषित किया गया जिसका लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता के साथ एक आधुनिक, सेक्युलर और समाजवादी भारत की स्थापना करना था।

1940 में जब वे भारत से निकलने की तैयारी कर रहे थे, तब उन्हें जेल में बंद प्रख्यात समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण का एक गुप्त पत्र मिला। वे भी काँग्रेस के अंदर समाजवादियों के मंच सीएसपी (काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी) से जुड़े थे। यह पत्र बताता है कि जे.पी.सभी वाम ताक़तों को मिलाकर देश में एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी बनाना चाहते थे जो साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंके और मज़दूर किसानों का राज स्थापित करे। इसके लिए वे तमाम मतभेदों को दरकिनार करके पहल करने को तैयार थे। पेश है, इस लंबे पत्र के कुछ ज़रूरी अंश- संपादक

प्रिय कॉमरेड,

मैं यह पत्र यथेष्ट चिंता के बग़ैर नहीं लिख रहा हूँ। चिंता, क्योंकि मुझे पता नहीं है कि आपको इसे पाकर कैसा लगेगा। मुझे पता नहीं था कि जब मैं कहूँगा कि मेरे मन में कभी भी आपके प्रति दुर्भावना नहीं थी, तो आप इसे कितनी गंभीरता से लेंगे। कुछ राजनीतिक मतभेद थे, जिन्हें मैंने छिपाने की कोशिश नहीं की। लेकिन इससे अधिक कुछ नहीं था। दूसरी ओर, मैंने हमेशा आपके साहस और दृढ़ निश्चय की सराहना की है। और अब, जब मेरे मन में यह बात बैठ गई है, मैं आपकी दूरदर्शिता और पूर्वबोध की सराहना करता हूँ।

मैं अत्यंत महत्वपूर्ण सुझाव देने के लिए आपको लिख रहा हूँ और आपसे अनुरोध है, आप इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करें। यह सुझाव हमारे भावी कार्य की पूरी दशा-दिशा और भारत में क्रांतिकारी आंदोलन के विकास से संबंधित है।

अब तक हमारे काम की मूलभूत मान्यता थी कि कांग्रेस राजनीतिक कार्य का प्रमुख तंत्र है- साम्राज्यवाद के विरुद्ध बहुवर्गीय मोर्चा (मज़दूर और राष्ट्रीय बुर्जुआ जिसके दो छोर हैं।) अब से हमारा काम पूरी तरह इस विपरीत मान्यता के अनुसार आगे बढ़ेगा कि कांग्रेस, राजनीतिक कामकाज का अब मुख्य आधार नहीं रही।

कांग्रेस अब भी व्यापक आधार वाला जनसंगठन है, लेकिन इसका नेतृत्व एक ऐसे गुट के हाथों में सिमट गया है, जो जनविरोधी, (श्रमिक विरोधी, किसान विरोधी, कुछ हद तक लोकतंत्र विरोधी भी) और सिद्धांत तथा सहानुभूति के मामले में पूरी तरह बुर्जुआ है। किसान,मज़दूर और वाम राष्ट्रीय प्रभाव अलग-थलग पड़ गए हैं।

जो सत्ता श्री राजगोपालाचारी लाखों भारतवासियों के ख़ून-पसीने से ‘हथियाने’ की आशा करते हैं, वह पूर्ण स्वराज नहीं हो सकता। यह आज़ादी उतनी ही होगी, जितनी श्री राजगोपालाचारी और उनकी ‘कांग्रेस’ ब्रिटिश सैनिक और आर्थिक संरक्षण बनाए रखने की अपनी इच्छा के अनुरूप हिम्मत कर सकते हैं (ताकि विदेश के हमले से और देश के अंदर की ‘अव्यवस्था’ से ‘आज़ादी’ बचाए रख सकें और आर्थिक यथास्थिति बनाए रख सकें।) यह बहुत बड़ी आशा नहीं है कि इस तरह की व्यवस्था वैसी ख़ास परिस्थितियों में ब्रिटिश शासन वर्ग के लिए अरुचिकर नहीं होगी, जो देर-सवेर उत्पन्न हो।

इससे यह निषकर्ष निकलता है कि हम एक दौर के अंतिम मुकाम पर पहुँच गए हैं। साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारतीय जनता (राष्ट्रीय बुर्जुआ, शहरी मध्यवर्ग, किसान और मज़दूर) का संयुक्त अभियान एक छोर पर है। राष्ट्रीय बुर्जुआ और मध्य वर्ग का एक वर्ग (ऊपरी तबका) संघर्ष (राष्ट्रीय सुरक्षा आदि के नाम पर) छोड़ रहा है। वे साम्राज्यवाद से थोड़ी बहुत सत्ता हथिया कर उस पर काबिज़ हो सकते हैं, लेकिन उनसे साम्राज्यवाद के सभी अवशेषों से लड़ने क अपेक्षा नहीं की जा सकती। साम्राज्यवाद के अवशेषों और लोकतांत्रिक क्रांति चलाने का ज़िम्मा मज़दूरों, किसानों और निम्न मध्यवर्ग पर पड़ता है। इस तरह भारत जैसे देश में दूसरे दौर में किसान वर्ग की भूमिका सर्वाधिक होगी और यह दौर मुख्य रूप से भूमि-संबंधी क्रांति का दौर होगा। इसका तात्पर्य यह है कि बुर्जुआ क्रांति (भूमि संबंधी क्रांति भी इसका अंग है) की अवधि अभी समाप्त नहीं हुई है तथा सर्वहारा वर्ग की या समाजवादी क्रांति का दर अभी नहीं आया है। लेकिन बुर्जुआ लोकतांत्रिक क्रांति (साम्राज्यवाद के विरुद्ध संयुक्त मोर्चे क संघर्ष की अवधि) का पहला अध्याय समाप्त हो गया है, तथा दूसरा और अंतिम अध्याय, भूमि संबंधी क्रांति का, शुरू हो रहा है।

यहाँ फिर मैं यह सुझाव नहीं दे रहा हूँ कि भूमि संबंधी क्रांति इस मायने में सचमुच शुरू हो गई है कि किसानों ने ज़मींदारों की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने, गाँवों से उनको भगाने, बड़ी जोतों को अधिकार में लेने और उसे आपस में बाँटने के मामले में पहल की है। 1927 में चीन में जिस तरह हुआ, उस तरह का घटनाक्रम अभी वास्तव में शुरू नहीं हुआ है। लेकिन जो मैं बताना चाहता हूँ, वह यह है कि भारतीय क्रांति के इससे पहले का दौर समाप्त हो गया है, और हम दूसरे दौर का सूत्रपात करने के लिए सकारात्मक और स्पष्ट तौर पर तैयारी और काम करें।

कुछ हलकों में तत्काल परिषदों की स्थापना करने की बात चल रही है। स्टालिन के शब्दों में यह “पराजित करने की छलाँग” है-पूरे मंच पर छलांग भरना। निस्संदेह किसान सभाएँ बनी हुई हैं और वे ही जगह-जगह पर उठ खड़ी होंगी, इस समय सर्वाधिक भूमिका अदा करेंगी और वास्तविक किसान परिषदों (सोवियतों) की सुव्यवस्थित अग्रदूत होंगी (हमें इसके लिए सोवियत शब्द उधार लेने की ज़रूरत नहीं है। किसान सभा शब्द काफ़ी बढ़िया है, आसानी से समझ में आता है और इसकी क्रांतिकारी परंपरा है।)

इसका यह निहितार्थ है कि हमें मुख्य रूप से अपना ध्यान कांग्रेस से हटाकर किसान सभा की ओर देना है। यह तथ्य कि किसान सभाएँ बड़ी संख्या में नहीं हैं और उनका संगठन उतना व्यापक नहीं है जितना कि कांग्रेस का, हमारा इरादा बदल नहीं सकता। सही दृष्टिकोण और सही नारों के सहारे बड़े पैमाने पर जाल बिछाया जा सकता है।

किसान सभाओं पर मेरे जोर देने का तात्पर्य नहीं है कि  हम सर्वहारा वर्ग की क्रांति के लिए साथ-साथ होने वाले काम और अपनी गतिविधियों की अवहेलना करेंगे। मज़दूर वर्ग के आंदोलन पर हमें सर्वाधिक ध्यान देते रहना है।

पहली बात जो हमें करनी है वह है- एक क्रांतिकारी सिद्धांत तैयार करना अर्थात क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी। जहाँ तक मेरी अपनी पार्टी, सी.एस.पी का संबंध है, इसका ढाँचा हमारे उद्देश्य के लिए बहुत अनुपयुक्त हो गया है। यह समय सभी क्रांतिकारी तत्वों को एक साथ एक क्रांतिकारी पार्टी में लाने का स्वर्णिम अवसर है। इस बात पर कि हम सब कुछ नए सिरे से शुरू करेंगे, देश की अनेक क्रांतिकारी धाराओं को संगठित करना संभव होना चाहिए। मेरा सुझाव है कि सी.एस.पी, अनुशीलन, फ़ॉरवर्ड ब्लॉक, कीर्ति, लेबर पार्टी और दूसरे ऐसे दलों या तत्वों को लेकर हम एक नई क्रांतिकारी पार्टी बनाएँ। एक पार्टी जो पूरी तरह मार्क्सवाद-लेनिनवाद पर आधारित हो और अन्य सभी राजनीतिक संगठनों और पार्टियों से अलग हो। मेरा ख़्याल है कि अगर आप चाहें तो यह बिल्कुल संभव है।

जिन तत्वों को लेकर नई पार्टी बनाई जानी है, उनमें मैंने सी.पी (कम्युनिस्ट पार्टी) का उल्लेख नहीं किया है क्योंकि सी.पी अपने संविधान और सी.आई (कम्युनिस्ट इंटरनेशनल) के संविधान की वजह से किसी अन्य समाजवादी पार्टी में अपनी विशिष्टता का विलय नहीं कर सकती। अगर वे ऐसा चाहें तो वह केवल दूसरी पार्टी में प्रवेश पाने और अपने अधिकार में लेने (तोड़ने) के लिए अवसर प्राप्त करना होगा। इसलिए नई पार्टी को सी.पी. से भिन्न होना चाहिए, लेकिन दोनों के बीच कामचलाऊ गठबंधन होना चाहिए।

इसका तात्पर्य यह नहीं कि मैं नई पार्टी की कल्पना सी.आई विरोधी के रूप में करता हूँ। वास्तव में मास्को से हमारा सम्पर्क होना चाहिए और हमें अपनी क्रांति में सोवियत सहायता भी लेनी चाहिए। फिर भी, इसे अपनी नीतियों पर चलने को स्वतंत्र रहना है, मास्को के कहने पर नहीं।

मेरा सोचना है कि नई पार्टी पूर्णकालिक क्रांतिकारियों की पूरी तरह भूमिगत पार्टी हो। इसकी गतिविधों में ज़रूरी है (मैं यह वाक्य पूरा नहीं कर सकता, आप समझ जाएँगे।)

संक्षेप में यह मेरा प्रस्ताव है। मैं इसके बारे में बहुत गंभीर हूँ और आपसे इस पर पूरी गंभीरता से विचार करेन का अनुरोध करता हूँ। मैं अगले महीने के अंत तक बाहर आ जाऊँगा। मैं आपके मुक़दमे के दौरान आपसे मिलने की कोशिश करूँगा। इस बीच, वहाँ, कृपया मित्रों, ख़ासकर अनुशीलन के मित्रों से इस बात पर विचार-विमर्श करें।

इस पार्टी के अलावा हमें संघर्ष के लिए और सत्ता हथियाने के लिए जन साधनों की ज़रूरत है। इस सिलसिले में मेरी नज़र किसान और मज़दूर सभाओं पर मुख्य रूप से है। इन सभी को किसानों और मज़दूरों के संघों के एक शक्तिशाली संघ (किसानों और मज़दूरों की परिषदों की कांग्रेस) में संगठित करना होगा। इस संघ को बनाना, निकट भविष्य में हमारे उद्देश्यों में एक होना चाहिए।

आशा है आपका स्वास्थ्य ठीक है और आप आवश्यक विश्राम कर रहे हैं। हम सब यहाँ बिल्कुल ठीक हैं।

शुभकामनाओं के साथ,

आपका कॉमरेड

नेताजी सम्पूर्ण वाङ्मय (पृष्ठ 181-186, खण्ड 10), प्रकाशन विभाग, भारत सरकार।