अयोध्या: दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना, राम नाम का मरम न जाना….!

डॉ. पंकज श्रीवास्तव डॉ. पंकज श्रीवास्तव
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करऊँ कहा लगि नाम बड़ाई।

राम न सकहि नाम गुण गाई।।

तुलसीदास की ये पंक्तियाँ राम के प्रति भक्ति की पराकाष्ठा हैं। तुलसी कह रहे हैं कि स्वयं राम भी राम नाम के महात्म्य की व्याख्या नहीं कर सकते। 16वीं सदी में  गोस्वामी तुलसीदास ने अवधी भाषा में ‘रामचरित मानस’ रचकर वाल्मीकि कृत संस्कृत महाकाव्य रामायण के नायक, अयोध्या के राजकुमार राम की कथा को हिंदी भाषी समाज की जातीय चेतना का अनिवार्य हिस्सा बना दिया। पुत्र, भाई, पति, मित्र आदि के रूप में राम का कार्य-व्यहार आदर्श के रूप में इस कदर स्थापित हुए कि सूदूर गाँवों में भी मानस की चौपाइयों के ज़रिए सामाजिक विमर्श एक चलन बन गया।

इसमें शक़ नहीं कि बीती कुछ सदियों से खासतौर पर हिंदी पट्टी बीती रामकथा में डूब-उतरा रही है। सत्ता को त्याकर वनवासी बनने और राक्षसों का विनाश करने वाले राम की इस कथा के समाजशास्त्रीय पहलुओं पर तमाम बातें एक तरफ़ और राम के प्रति अनुराग एक तरफ़। रामकथा में राम धीरोदात्त नायक हैं लेकिन उनके जीवन में दुख भी कम नहीं। राज्याभिषेक की तैयारियों के बीच वनवास, पत्नी सीता का अपहरण, युद्ध में रावण को परास्त करके सीता को पाना, पर लोकापवाद को देखते हुए त्याग देना, फिर सीता का अयोध्या की राजरानी के रूप में वापस आने के बजाय धरती की गोद में समा जाना और अंत में राम का सरयू में जलसमाधि लेकर जीवन भाइयों समेत जीवन का अंत कर लेने की इस गाथा में कौन सा रस नहीं है। इस महागाथा के हर हिस्से से लोक अलग-अलग ढंग से अपना रिश्ता बनाता है। इसकी  झलक हमें लोकगीतों में मिलती है। रामभक्त तुलसी इस ‘त्रासद कथा’ को राज्याभिषेक के बाद बढ़ाने की हिम्मत नहीं कर पाते पाते लेकिन लोकगीतों में राम और सीता के दुख के तमाम रंग नज़र आते हैं। यहाँ तक कि कई बार राम की खुली आलोचना भी होती है।

मिथिला क्षेत्र के लोग आज भी अवध की ओर शादी करना पसंद नहीं करते क्योंकि उनके ‘घर की बेटी’ सीता को ससुराल में दारुण दुख मिला जबकि नव-दम्पति को ‘सीताराम की जोड़ी’ होने का आशीर्वाद भी दिया जाता है। शादियों में राम का नाम लेकर ‘गाली गाने’ का रिवाज है। हैरानी तो तब होती है जब आप अवध के ग्रामीण अंचल की महिलाओं से “छापक पेड़ छिउलिया कि पतबन गहबर हो…” जैसा सोहर सुनते हैं जो एक राज-व्यवस्था का अत्याचारी रूप झलकता है। इस सोहर में एक हिरनी अपने हिरन के शिकार के बाद कौशल्या से कहती है कि आप मांस खा लीजिए पर हिरन की खाल दे दीजिए ताकि उसे देखकर मन को समझा लूँ। पर कौशल्या कहती हैं कि राम की छट्ठी मनायी जा रही है। खाल से खंजड़ी बनायी जाएगी जिससे राम खेलेंगे (मचिया बइठ कौसल्या रानी, हिरनी अरज करे हो। रानी मँसुआ तो चुरिहै करहिया, खलरिया हमें देतिउ हो।।..जाओ, जाओ हिरनी घर अपने, खलरिया नाहीं देबे हो। खलरी से खँजड़ी बनउबो, ललन हमरे खेलिहैं हो।।)

कुल मिलाकर जाति विभाजित समाज में राम सभी को जोड़ने वाले प्रतीक हैं। या कहें कि राम सभी से किसी न किसी रूप से सभी जुड़ते हैं। राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं और ‘रामराज्य’ एक आदर्श बन जाता है क्योंकि वहाँ किसी को कोई दुख नहीं है (दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥ सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥) यह रामराज्य एक लक्ष्य के रूप में महात्मा गाँधी जैसे युगपुरुष के हृदय में स्थान बनाता है। उनकी दैनिक प्रार्थना ‘रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम’ होती है। इस प्रार्थना में मुसलमान भी शामिल होते हैं क्योंकि राम यहाँ सिर्फ़ दशरथ-नंदन नहीं ईश्वर का रूप हैं (ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।) यह राम के चरित्र का प्रताप ही है कि अल्लामा इक़बाल उन्हें ‘इमामे हिंद’ कहते हैं और  ‘जय सीताराम’ को ‘जय श्रीराम’ जैसा युद्धघोष बनाने की ज़िद में जुटी राजनीति के परवान चढ़ने से पहले ‘राम-राम’ के ज़रिए अभिवादन का जवाब ‘राम-राम’ से ही देने वाले मुसलमानों की कमी न थी।

पर भारतीय परंपरा मे राम सिर्फ़ अयोध्या के राजा नहीं हैं। राम नाम का प्रताप राम कथा के प्रभावी होने के पहले से है। भारतीय आध्यात्मिक परंपरा मे राम का अर्थ रमने से है। वह तत्व जो सकल ब्रह्माण्ड में रमा हुआ है। योगी ध्यान से जिस शून्य में रमते हैं, उसे राम कहते हैं (रमन्ते योगिनः अस्मिन सा रामं उच्यते)। इसलिए कबीर, नानक या रैदास जैसे संतों के लिए राम दशरथ-नंदन नहीं हैं। कण-कण में मौजूद ब्रह्म हैं। कबीर कहते हैं कि ‘राम मोर पिउ, मैं राम की बहुरिया।’ ज़ाहिर है वे खुद को जीव और राम को ब्रह्मस्वरूप बता रहे हैं (दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना,राम नाम का मरम है आना)। गुरु नानक भी साफ़ कहते हैं- ‘एक राम दशरथ का बेटा-एक राम घट घट में बैठा’ और रैदास कहते हैं-‘मन्दिर मस्जिद एक है, इन मंह अंतर नाहिं, रैदास राम रहमान का, झगड़ऊ कोऊ नाहिं।’

यानी राम को ‘अवध नरेश’ से अलग ईश्वर स्वरूप मानने का चलन मौजूद था। साथ ही, तुलसीदास के मानस रचने से पहले से समाज राम की कथा से परिचित भी था। वैसे यह कथा ढाई हज़ार साल पहले गौतम बुद्ध के समय भी थी लेकिन थोड़ा भिन्न रूप में (दशरथ जातक में सीता को राम की बहन बताया गया है)। कुछ भिन्नता लिए रामकथाएँ दक्षिण पूर्व एशिया के तमाम देशों प्रचिलत हैं। करीब तीन सौ रामकथाओं की चर्चा की जाती है। बहरहाल समय के साथ भारत में रामकथा का एक निश्चित स्वरूप वाल्मीक के रामायण से निर्धारित होता है। पहली शताब्दी ईसा पूर्व में उपस्थित माने गये महाकवि कालिदास के ‘रघुवंशम’ से लेकर आठवीं सदी में भवभूति द्वारा रचे गये नाटक उत्तर रामचरित का आधार भी वाल्मीकि का रामायण ही है। रामायण की रचनाकाल को लेकर काफी विवाद है लेकिन ऐसा लगता है कि यह गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार के बाद रची गयी क्योंकि इसमें बौद्धों की तीखी आलोचना है। जाबालि से चर्चा के दौरान स्वयं राम कहते हैं कि तथागत को मानने वालों को वही सज़ा दी जानी चाहिए जो चोर को दी जाती है –

यथा हि चोर: स तथा हि बुद्धःस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि य: शक्यतम: प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुध: स्यात ।।

अर्थात- जैसे चोर दंडनीय होता है, उसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्ध (बौद्धतावलम्बी) भी दंडनीय है। तथागत (नास्तिकविशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए। इसलिए प्रजा पर अनुग्रह करने के लिए राजा द्वारा जिस नास्तिक को दंड दिलाया जा सके, उसे तो चोर के समान दंड दिलाया ही जाए, परंतु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान ब्राह्मण कभी उन्मु्ख न हो- उससे वार्तालाप तक ना करे।

(अयोध्याकांड, श्लोक 34,109वां सर्ग, पेज 528, वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर)

कालिदास के रघुवंशम से संकेत मिलता है कि ईसा की आरंभिक शताब्दियों में राम को विष्णु का अवतार मान लिया गया था। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि राम से जुड़ा कोई संप्रदाय नहीं बना था। वायु पुराणा में  राम के दैवी गुणों का वर्णन है। 1014 ईस्वी में अमितगति नामक जैन लेखक ने राम का सर्वज्ञ, सर्वव्याप्त और रक्षक रूप का वर्णन किया है। राम का देवत्व मान्य हो चुका था लेकिन राम उपासक संप्रदाय की सुगबुगाहट 11वीं शताब्दी के बाद नज़र आने लगती है और 13वीं सदी में मध्व एक वैष्णव संप्रदाय की स्थापना करते हैं। रामानुजाचार्य की परंपरा में स्वामी रामानंद ने 14वीं सदी में रामावत नामक रामसम्प्रदाय की स्थापना की। (हिंदू धर्मकोश, पेज 550)

परंपरा में हमें एक तरफ़ निराकार आनंद की अनुभूति कराने वाले ब्रह्मस्वरूप राम दिखते हैं तो दूसरी तरफ रघुकुल की रीति और मर्यादा निभाने वाले सगुण राम हैं। वाल्मीकि से लेकर तुलसी तक राम के साथ जुड़ी मर्यादा पर काफी जोर देते हैं इसका अर्थ स्पष्ट करने में संकोच नहीं करते। वाल्मीकि रामायण में राम ‘तप करने का अधर्म’ करने वाले शूद्र शम्बूक का गला अपने हाथ से काट देते हैं तो तुलसी के राम भी गाय, ब्राह्मण, देवता और संतों की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं (बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार। निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥) स्पष्ट है कि रामकथा में मर्यादा वर्णाश्रम से जुड़ी है। यहाँ तक कि मानस के अरण्यकांड में भागवत धर्म समझाते हुए स्वयं राम कहते हैं-

सापत ताड़त परुष कहंता। विप्र पूज्य अस गावहिं संता।।

पूजिअ विप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना।

(शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ भी ब्राह्मण पूजनीय है, ऐसा संत कहते हैं। शील और गुण से हीन भी ब्राह्मण पूजनीय है। और गुणगणों से युकत और ज्ञान से परिपूर्ण होकर भी शूद्र पूजनीय नहीं है।)

ग़ौर से देखिये तो यह चौपाई सीधे-सीधे संतकवि रैदास का जवाब है जिन्होंने उसी काशी में बैठकर लगभग सौ साल पहले कहा था—

रैदास बाभन मत पूजिए जो होवे गुन हीन,

पूजिए चरन चंडाल के जो हो गुन परवीन।’

ऐसा लगता है कि तुलसी कबीर और रैदास जैसे संत कवियों की वाणी को उलटने में जुटे हैं। स्वाभाविक ही था कि तुलसी के राम को प्रतिष्ठित करने में समाज के प्रभुवर्ग ने बहुत रुचि दिखायी। बड़े पैमाने पर रामलीलाओं का आयोजन बिना संसाधनों के संभव नहीं था जो तुलसी दास के जीवन में ही शुरू हो गयी थीं। चातुर्वर्ण व्यवस्था को दैवीय साबित करने में तुलसी का बड़ा योगदान है।

महात्मा गाँधी इस ख़तरे को समझते हुए ही ही रामकथा को ऐतिहासिक मानने से इंकार करते हैं।

एक पत्र में गांधी जी लिखते हैं-” मैं शास्त्रों का शाब्दिक अर्थ नहीं करता, मैं उन्हें इतिहास के रूप में तो निश्चय ही नहीं पढ़ता। शंबूक का सिर काट लेने की कथा राम के सामान्य चरित्र से मेल नहीं खाती है। विभिन्न रामायनों में जो कुछ भी कहा गया हो, मैं अपने राम को किसी शूद्र का सर काटने में सर्वथा असमर्थ मानता हूं। शंबूक की कथा से कुछ भी सिद्ध होता है तो यही की जिस जमाने में इस कथा का जन्म हुआ, उस जमाने में शूद्रों के लिए अमुक धार्मिक विधि विधानों का अनुष्ठान गंभीर अपराध माना जाता था।”

(गांधी वाङ्मय खंड 35, पृष्ठ 264)

गाँधी के लिए भी राम ईश्वर का नाम है। वे जब रामराज्य की बात करते हैं तो अयोध्या की उस  राज-व्यवस्था की चाहत नहीं रखते जो वर्णाश्रम धर्म के लिए प्रतिबद्ध है। उनके लिए रामराज्य प्रजातंत्र की शुद्धतम अवस्था है। वे लिखते हैं- ‘राम राज्य का अर्थ हिंदू राज्य नहीं बल्कि दिव्य राज्य है-जिसमें राजा और प्रजा दोनों सदा ईश्वर का डर रख कर सदा अपना काम करते हैं।’ (26 सितंबर, 1929, नवजीवन।)

ऐसे समय जब सत्ता प्रतिष्ठान की ओर से राजनीति को ‘राम-मय’ करने का अभियान चलाया जा रहा है, राम को ‘लाने’ का दावा किया जा रहा है तो यह ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि यह किस राम की प्रतिष्ठा है? पुरुषोत्तम की मर्यादा किस युग की है? हमारे युग की मर्यादा तो समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व है। क्या राम इन मूल्यों से जुड़ी मर्यादा की स्थापना करेंगे जो आहत और विक्षत है?

 

 

लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।