क्या किसी ने उनके नेतृत्व में प्रतिभा और प्रतिभा चयन के बारे में सोचा, लिखा?
आज के अखबारों में सिविल सेवा परीक्षा परिणाम और लड़कियों की सफलता की खबरें प्रमुखता से छपी हैं। शीर्षक – ‘बेटियों ने बाजी मारी’, ‘बेटियों की धाक’, ‘बेटियां जिन्दाबाद’ आदि जैसे हैं। मेरी चिन्ता यह है कि बेटियां वाकई अच्छा कर रही हैं या लड़के इस परीक्षा को गंभीरता से नहीं दे या ले रहे हैं? इसका कारण है। इस परीक्षा में सफलता पाने वाले ज्यादातर बच्चे बिहार–यूपी के या हिन्दी पट्टी के होते रहे हैं। दूसरे इस परीक्षा को पहले भी महत्व नहीं देते थे और अभी भी टॉपर बिहार से है और हिन्दी पट्टी से कई। पहले बिहार के लड़के दिल्ली आकर पढ़ते थे, परीक्षा की तैयारी करते थे और बहुत सारे गरीब बच्चे कामयाब होते रहे हैं। उस मुकाबले अच्छे खाते–पीते परिवार के बच्चे इस परीक्षा में न पहले बैठते थे न अब बैठते हैं। कामयाब होना तो दूर। आखिर क्यों? खासकर “दुनिया की टैलेंट फैक्ट्री है भारत” तब। क्या बिना रीढ़ वालों की सफलता का कारण यही है?
मेरा मानना है कि मुश्किल से यूपीएससी की परीक्षा में कामयाब हुए बहुत कम लोगों ने अपने बच्चों को इस परीक्षा में कामयाबी दिलाई और दिलाई तो क्या वे पूरी नौकरी कर पाए? और कर पाए तो क्या उनमें कोई जाना–पहचाना है? मेरे ख्याल से नहीं या बहुत कम। और जाहिर है, मैं अपनी जानकारी या राय की बात नहीं कर रहा हूं। इसलिए, अब जब उन अफसरों के बच्चे परीक्षा में नहीं बैठ रहे हैं तो यह मुद्दा बनता है। और बात इतनी ही नहीं है। पहले के मुकाबले बिहार यूपी के सक्षम और संपन्न लोगों की संख्या एनसीआर में अब बहुत ज्यादा है। उनके लिए ना कोचिंग मुश्किल है और ना दिल्ली में रहना। ये बच्चे अपेक्षाकृत अच्छे और महंगे स्कूलों में पढ़ते हैं और करियर के प्रति जागरूक व जानकार भी हैं। अब कोचिंग बहुतायत में उपलब्ध है और फीस दे सकने वाले हिन्दी पट्टी के अभिभावकों की संख्या बहुत ज्यादा है।
यूपीएससी परीक्षा में कामयाब होने वाले ऐसे लोगों के बच्चों की संख्या उस अनुपात में बढ़ी है कि नहीं पता नहीं लेकिन लड़के जो पास कर रहे हैं वो पीछे क्यों रह जा रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि जो बच्चे अच्छा कर सकते हैं वे परीक्षा में बैठ ही नहीं रहे हैं और उन्हीं या वैसे ही घरों – परिवारों की लड़कियां बैठ रही हैं और कामयाब हो रही हैं। मेरा मानना है कि यूपीएससी में अगर अच्छे लोग नहीं आ रहे हैं तो इसकी चिन्ता हम सबको होनी चाहिए क्योंकि राजनीति में अच्छे लोग आएं – इसकी चिन्ता हमने नहीं की तो उसका परिणाम हम अब देख रहे हैं। जिस ढंग से कोचिंग करने वाले बच्चों को इस परीक्षा में कामयाबी मिल रही है उससे मुझे लगता है कि खुद गरीबी में, मेहनत करके इस परीक्षा में कामयाब रहने वाला अगर अपने बच्चों को इस सेवा में नहीं भेज रहा है तो इसका एक ही मतलब है कि नौकरी की शर्तें अच्छी नहीं हैं।
सेवा शर्तें और स्थितियां ठीक नहीं होने का एक कारण आरक्षण माना जाता रहा है। लेकिन कम सीटें भी अगर नौकरी का सुकून देती होतीं तो सर्वश्रेष्ठ छात्र यहां आते। जो खुद पास कर गए वे अपने बच्चों को कोचिंग करवाकर भी पास करा देते। पर ऐसा हो नहीं रहा है और यही मेरी चिन्ता का आधार है। इसके कारण हैं, नौकरी में राजनीतिक आका तलाश लेने वालों को बाद में भी राजनीतिक लाभ और ईमानदारी से काम करने वालों को परेशान किया जाना। इसके सैकड़ों उदाहरण हैं और लगातार बढ़ रहे हैं। हो सकता है पहले भी रहे हों लेकिन हम बात अभी की ही करेंगे। इतिहास बदलने की भूमिका और जिम्मेदारी जिसकी है वह निभाए।
दूसरी ओर, नौकरी छोड़ने वालों की संख्या भी अच्छी खासी है। इस कारण नौकरी का आकर्षण कम हुआ है। संभव है अच्छे लड़के परीक्षा में बैठते ही न हों और यह भी संभव है कि किन्ही कारणों से यह लड़कियों के लिए अच्छी नौकरी मानी जाती हो। लड़कियों का बेहतर करना खुशी की ही बात है। चिन्ता का कारण यह नहीं हो सकता है। पर क्या यह सर्वश्रेष्ठ नौकरी या करियर है? अगर नहीं तो क्यों और अगर हां तो इतने लोगों ने नौकरी क्यों छोड़ी? या नौकरी छोड़ने वालों की संख्या (अनुपात) ज्यादा नहीं है?
- इंडियन एक्सप्रेस की साइट पर 3 अगस्त 2016 की एक खबर है। इसके अनुसार गुजरे तीन वर्षों में 100 से ज्यादा नौकरशाहों ने बीच में ही अपनी नौकरी छोड़ दी थी। इनमें 45 ऐसे थे जो दूसरी अखिल भारतीय सेवा से जुड़ने के लिए इस नौकरी से अलग हुए थे। यह जानकारी लोकसभा में दी गई थी। इनमें 45 ऐसे थे जो आईपीएस और भारतीय वन सेवा को छोड़कर प्रशासनिक सेवा में गए लेकिन बाकी की संख्या भी कम नहीं है।
- बिजनेस लाइन इंक की 27 सितंबर 2019 की एक खबर के अनुसार भारतीय प्रशासनिक सेवा में असंतोष के कारण एक महीने में दो अफसरों ने इस्तीफा दे दिया था। इनमें एक 2012 बैच के कन्नन गोपीनाथन। इनसे पहले 2009 बैच के एस शशिकांत सेंथिल ने इस्तीफा दे दिया था। यह कम दिलचस्प नहीं है कि दोनों हिन्दी पट्टी के नहीं हैं और गोपीनाथन ने जिन कारणों से इस्तीफा दिया वह शायद हिन्दी पट्टी में हो ही नहीं। या महसूस नहीं किया जाए।
हालांकि, इसके लिए मजबूत रीढ़ चाहिए। और वह ज्यादा लोगों में होती शायद और ज्यादा लोगों ने नौकरी छोड़ी होती पर वह अलग मुद्दा है। आज हिन्दी अखबारों की एक सुर्खी, “दुनिया की टैलेंट फैक्ट्री है भारत : मोदी” भी है और इसके साथ तथ्य है कि ‘द केरला स्टोरी’ और ‘द कश्मीर फाइल्स’ जैसे प्रतिभा प्रदर्शन का प्रचार सरकार और उसकी पार्टी करती है तथा बीबीसी की फिल्म का प्रदर्शन भारत में रोक दिया जाता है। गुजरात से भी महिलाएं गायब हुई हैं और इसका सरकारी डाटा है लेकिन इसपर कोई फिल्म नहीं बनी है और गुजरात फाइल्स जैसी कहानी होने पर भी फिल्म नहीं बनी और कहानी में चर्चित एक वीडियो सबूत के बावजूद अभियुक्त को सजा नहीं हुई क्योंकि उसके वकील ने प्रतिभा दिखाई और संभवतः उसे स्वीकार किया गया कि वीडियो पर जो कहा जा रहा था वह नाटक का स्क्रिप्ट था। और उसी वीडियो में यह भी कहा गया था कि स्क्रिप्ट पढ़ने वाले को तब तक किसने बचाया है। तो भारत में यह है प्रतिभा और प्रतिभा की कद्र और ऐसे में अगर लोग यूपीएससी की परीक्षा दे ही नहीं रहे हों तो शायद पता भी नहीं चले।
ऊपर मैंने लिखा है कि यूपीएससी में सफल रहे लोगों के बच्चे यूपीएससी नहीं देते हैं और ऐसे बच्चों में एक, डॉ. अकाशी भट्ट जेल में बंद पूर्व आईपीएस अफसर संजीव भट्ट की बेटी है। इंटरनेट पर उपलब्ध वीडियो और मकतूब मीडिया डॉट कॉम (https://maktoobmedia.com/) की एक खबर के अनुसार उसने कहा है कि उसके पिता के खिलाफ चार्जशीट फर्जी (फैब्रिकेटेड) है और नरेन्द्र मोदी की सरकार ने उन्हें परेशान कर रखा है। अभी मेरा मुद्दा अकाशी भट्ट का आरोप नहीं, यह तथ्य है कि एक पूर्व आईपीएस अधिकारी, जिसने सुप्रीम कोर्ट में शपथ पत्र देकर कहा था कि 27 फरवरी 2002 को वे मुख्यमंत्री के घर पर बैठक में मौजूद थे जब उस समय के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी (अब प्रधानमंत्री) ने राज्य के शिखर के पुलिस वालों से (कथित रूप से) कहा था कि हिन्दुओं को मुसलमानों के खिलाफ गुस्सा निकाल लेने दिया जाए।
अभी मुद्दा इस आरोप या इसकी सत्यता नहीं है। मुद्दा यह है कि इस आरोप के बाद संजीव भट्ट को एक पुराने मामले में जेल की सजा हो गई। विस्तार में नहीं जाकर इतना बताना काफी होगा कि मामला वैसा ही है जैसा राहुल गांधी के खिलाफ और उन्हें भी मौके पर सजा हो गई। यह व्यवस्था है, कामयाब है और इसकी चर्चा गोदी मीडिया में नहीं के बराबर है जो उसका काम है। मेरा मुद्दा यह है कि आईपीएस संजीव भट्ट की बेटी (और बच्चों ने) भारतीय पुलिस सेवा को करियर नहीं चुना जो हिन्दी पट्टी में एक समय लड़कों के लिए सर्वश्रेष्ठ होता और माना जाता था और उनकी बेटी डॉक्टर है। तो क्या यह सेवा स्थितियों के कारण है और अगर ऐसा है तो क्या हमें राजनीति से ऊपर उठकर इसपर विचार नहीं करना चाहिए कि इस सर्वश्रेष्ठ कही जाने वाली नौकरी में अच्छे लोग आएं। लड़कियां टॉप कर रही हैं यह तो अच्छी बात है।कहीं एक खास सोच और विचारधारा के लोगों का बहुमत तो नहीं हो रहा है। जैसे मीडिया में बाकायदा कर दिया गया है।
आखिर लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार करने के लिए चुने गए आईएएस का मंत्री बनना और रफाल सौदे के समय महत्वपूर्ण पद पर रहे आईएफएस अफसर का विदेश मंत्री बनना सोचने वाली बात नहीं है? यह चिन्ता अखबारों की होनी चाहिए थी पर अखबारों का हाल सबको पता है और वहां भी एक खास विचारधारा के लोग कई वर्षों भर दिये गए हैं। हो सकता है इसमें गलती कांग्रेस की हो पर अब तो मामला देश हित और संविधान बचाने का है। क्योंकि सत्ता पर कब्जा अध्यादेश पासकर किया जा रहा है। आज के अखबारों में अगर ये दोनों और ऐसी खबरें छाई हुई हैं तो तथ्य यह भी है कि सरकार एक सांसद को लगातार बचा रही है जबकि उनके खिलाफ महिला पहलवानों के आंदोलन के 30 दिन हो गए।
कल उनका कैंडिल मार्च निकला और सांसद ने अपना नार्को या लाई डिटेक्टर टेस्ट कराने की सशर्त चुनौती (सहमति) दी थी और जवाब में पहलवानों ने कहा था कि वो सब (जिनने आरोप लगाया है) नार्को टेस्ट कराने के लिए तैयार हैं पर यह टीवी पर लाइव प्रसारित होना चाहिए ताकि देश को पता चले कि उनसे क्या सवाल पूछे गए और आरोपी सांसद से क्या सवाल पूछे गए। इतने बड़े और गंभीर मामले में आज कैंडल मार्च की खबर के साथ यह बताया जाना चाहिए थी कि सांसद की चुनौती का क्या हुआ और नार्को टेस्ट कब हो रहा है या मामला कहां फंसा है। लेकिन मुझे पहले पन्ने पर तो कोई खबर नहीं मिली। दूसरी ओर, 1991 के धर्मस्थल कानून (इस कानून के अनुसार 15 अगस्त 1947 से पहले मौजूद किसी भी धर्म की उपासना स्थल को किसी दूसरे धर्म के उपासना स्थल में नहीं बदला जा सकता। अगर कोई ऐसा करने की कोशिश करता है तो उसे जेल भी हो सकती है। मतलब 15 अगस्त 1947 को जो जहां था, उसे वहीं का माना जायेगा) के बावजूद ज्ञानव्यापी मामला चल रहा है और उसकी खबर पहले पन्ने पर है (नवोदय टाइम्स और अमर उजाला)।
कहने की जरूरत नहीं है कि इसका उपाय ढूंढ़ लिया गया है और यह कानून का उल्लंघन नहीं है। मैं समग्र रूप से खबरों की बात कर रहा हूं कि कैसी खबरें छप रही हैं और कैसी खबरें नहीं हैं। इसमें जनहित पीछे है और हिन्दू हित अगर होता हो तो आगे है, ज्यादा है। अमर उजाला ने आज भी प्रधानमंत्री को हीरो बनाने वाी खबर को टॉप पर छापा है। आज की खबर का शीर्षक है, अल्बनीड बोले – पीएम मोदी बॉस, इनकी लोकप्रियता रॉकस्टार जैसी। उपशीर्षक है, सिडनी में लोगों का उत्साह देख ऑस्ट्रेलियाई पीएम बोले – दुनिया में हर जगह होता है शानदार स्वागत।
द टेलीग्राफ
द टेलीग्राफ ने अपनी लीड के जरिए बताया है कि 2000 के नोट वापस लिए जाने की घोषणा के बाद से संयुक्त अरब अमीरात के करेंसी एक्सचेंज में 2000 के नोट स्वीकार नहीं किए जा रहे हैं। शीर्षक का हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह होगा, “खाड़ी में रुपये की चमक खत्म हो गई“। इस खबर के अनुसार रिजर्व बैंक द्वारा नोट वापस लिए जाने की खबर से पहले तक 2000 के नोट आराम से लिए जाते थे। इस क्षेत्र के किसी भी देश ने आधिकारिक तौर पर भारतीय रुपयों को बदलने से मना नहीं किया है लेकिन जमीनी स्तर पर स्थिति अलग है और अभी तक जो यात्री भारतीय रुपये को दिरहम और रियाल में आसानी से बदले जाने पर तारीफ करते थे उन्हें अब विनम्रता पूर्वक मना कर दिया जा रहा है।
वैसे तो टेलीग्राफ की ज्यादातर खबरें दूसरे अखबारों के पहले पन्ने पर होती ही नहीं हैं लेकिन मैं उन्हीं खबरों की चर्चा करता हूं जिन्हें दूसरे अखबारों में भी पहले पन्ने पर होना चाहिए। ऐसी दूसरी खबर है, कर्नाटक के पुलिस वालों को उपमुख्यमंत्री की चेतावनी। शीर्षक है, शिवकुमार ने पुलिसियों को भगवा चेतावनी दी। इसमें कहा गया है कि कर्नाटक की कांग्रेस सरकार पुलिस विभाग के भगवाकरण का साथ नहीं देगी। हम जब सत्ता में हैं तो ऐसा कभी नहीं होने देंगे। बताया जाता है कि शिवकुमार ने पुलिस वालों से कहा, आपके अधिकारियों ने मैंगलोर, बीजापुर और बगलकोट में भगवा शॉल ओढ़कर पुलिस विभाग को शर्मसार किया है। इसके साथ एक फाइल फोटो भी छपी है जब कॉप थाने के बाहर पुलिस वालों ने भगवा परिधान में तस्वीर उतरवाई थी। मुख्यमंत्री चुने जाने में देरी से परेशान अखबारों में उपमुख्यमंत्री की यह सख्त चेतावनी पहले पन्ने पर तो नहीं है।
टाइम्स ऑफ इंडिया
वैसे, खबरें टाइम्स ऑफ इंडिया में भी होती हैं। आज की कुछ प्रमुख खबरें जो दूसरे अखबारों में नहीं हैं या नहीं दिखीं। गुजरात हाईकोर्ट ने दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना के खिलाफ कार्यवाही पर अंतरिम स्टे दे दिया है। यह मामला 2002 में मेधा पाटकर पर हमले का है और एलजी की अपील पर इस पर तब तक सुनवाई नहीं होगी जब तक वे इस पद पर रहेंगे। जाहिर है कानून की यह छूट आम नागरिक होने पर नहीं मिल सकती थी और केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा मनोनीत कर दिए जाने पर उपलब्ध हुई है। यह एक चिन्ताजनक स्थिति है कि ऐसे व्यक्ति को संवैधानिक पद पर मनोनित किया गया लेकिन इस चिन्ता का मतलब तब होता जब भोपाल के लोगों ने भाजपा टिकट पर आतंकवाद की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर को नहीं जिताया होता। दूसरा मामला दिल्ली नगर निगम के सदस्यों के चुनाव से संबंधित है।
इसपर काफी समय से विवाद चल रहा था और पहले ऐसे मामले अलादतों में तय नहीं होते थे। चुनाव का मामला अदालत में और किसने किसे वोट दिया, कौन से वोट वैध नहीं माने गए सब सार्वजनिक है। यह स्थिति पहले नहीं होती थी। तीसरी सबसे दिलचस्प है जो करियर के रूप में आईएएस (या यूपीएससी की परीक्षा पास करने) को चुनने से संबंधित है। इस खबर के अनुसार एक अधिकारी को केंद्र सरकार ने दिल्ली में तैनात किया, सुप्रीम कोर्ट से जीतने के बाद आम आदमी की सरकार ने जैसे–तैसे उसे हटा दिया और केंद्र सरकार के अध्यादेश के बाद उसे फिर बहाल कर दिया गया है। यह नेताओं की लड़ाई में फुटबॉल बनने जैसा है। मुझे नहीं लगता कि हर कोई यह सब झेल सकेगा और सिर्फ वेतन के लिए झेलेगा। सोशल मीडिया में कल आम आदमी पार्टी के नेता मनीष सिसोदिया के साथ जबरदस्ती और अपमानजनक व्यवहार की भी एक खबर थी जो टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर है। यही नहीं, टाइम्स ऑफ इंडिया ने पहले पन्ने की बाइलाइन खबर में बताया है कि प्रगति मैदान वाले टनेल में एक मोटरसाइल वाले की मौत हो गई और अंदर सिगनल न होने के कारण इमरजेंसी फोन नहीं किया जा सका।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मशहूर अनुवादक हैं।