खबरों के मामले में सरकार की चाहत और उलझन बताती दो खबरें
आज की पहली खबर है, संपादकों ने केंद्र सरकार को बताया कि पीआईबी खबरों की जांच नहीं कर सकता। खबर तो यह भी है कि सरकार को बताना पड़ रहा है और वह मान नहीं रही है। प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो यानी पीआईबी को खबरों की सत्यता जांचने और प्रमाणित करने का काम दे दिया गया है। वो भी, किसी मांग या जरूरत के लिए नहीं। बस, यूं ही सरकार को लगा कि इसकी जरूरत है और पीबीआई के जिम्मे यह काम सौंप दिया गया। उसकी योग्यता, उसके अधिकार और उसकी क्षमता से कोई मतलब नहीं। और ऐसे में पीआईबी कैसे काम कर रहा है वह इंडियन एकसप्रेस में छप चुका है और मैं उसपर लिख चुका हूं।
इससे संबंधित मुद्दा आप जानते हैं कि सरकार चाहती है कि इंटरनेट पर, वेबसाइटों पर, समाचार पोर्टल पर या सोशल मीडिया पर वही खबरें रहें जो सरकार रहने देना चाहे और बाकी को हटा दिया जाए। इसके लिए मनमाने तौर पर एलान कर दिया गया, ‘खबर वही जो पीआईबी कहे सही’। इसका कोई मतलब नहीं है पर सरकार यही चाहती है। मेरा मानना है कि सरकार अगर यही चाहती है तो कायदे से काम करे और गलत खबर करने वालों की खबर भी ली जाए। यानी गलत खबरें सिर्फ हटाई न जाएं बल्कि गलत खबर करने वाले को कम से कम चेतवानी दी जाए और कहा जाए कि ऐसा फिर हुआ या दो बार और हुआ तो दुकान बंद करवा दी जाएगी।
अगर सरकार को लगता है कि ऐसा जरूरी है तो होना चाहिए। किया जा सकता है और यह सबके लिए होगा लेकिन सरकार यही नहीं चाहती है। वह नहीं चाहती है कि नियम सबके लिए बने। वह चाहती है कि नियम उसके लिए बने और जिस खबर को वह चाहे उसे रहने दे, जिसे न चाहे उसे सरकार की इच्छा बताकर पीआईबी से रिपोर्ट ली जाए और संबंधित संस्थानों-दुकानों से कह दिया जाए कि फलां खबर हटा दो, लिंक ब्लॉक कर दो आदि। जैसा बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री के मामले में किया गया। पर सवाल है कि सरकार ऐसे काम करेगी तो बाकी काम का क्या होगा। मुझे लगता है अभी वह मुद्दा नहीं है अभी चुनाव जीतना है
हिन्दू मुस्लिम करके सत्ता में आई और सत्ता में भी लगभग वही कर रही सरकार अगले चुनाव के लिए नया मुद्दा या तरीका आजमाना चाह रही है और इसमें सुप्रीम कोर्ट, जजों की नियुक्ति, कॉलोजियम सिस्टम बहुत कुछ हो सकता है। यह सब करते हुए सरकार उस सरकार से भी बुरी नजर आ रही है जिसपर भाजपा और उसके समर्थकों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में कई आरोप लगाये थे। भष्टाचार तो मामूली बात है, 56 ईंची दावों में स्विस बैंक से कालाधन वापस लाना और पारदर्शिता भी शामिल है। पारदर्शिता की जगह प्रेस कांफ्रेंस के मुक्त ‘मन की बात’ करने वाली सरकार है जो आरटीआई कानून का भी पालन नहीं कर रही है।
और बात इतनी ही नहीं है बहुत सारी चीजें छिपाना चाहती है और उसी से संबंधित है आज की दूसरी खबर। द हिन्दू में यह खबर लीड है। इसके अनुसार केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा है कि संवेदनशील रिपोर्ट जारी करके सुप्रीम कोर्ट (कॉलेजियम) ने गलत किया और यह गंभीर चिन्ता का मुद्दा है। उन्होंने यह भी कहा है कि सरकार एनजेएसी जैसे मसले पर टिप्पणी करे तो न्यायपालिका का सम्मान कम नहीं होता है। सुप्रीम कोर्ट की आलोचना नहीं करनी है, िउसके लिए अवमानना कानून है तो सरकार भी क्यों करे और वो भी सार्वजनिक रूप से। अगर सरकार चाहती है कि मामला सार्वजनिक हो तो मामला पहले ही पर्दे में रखा जाना चाहिए था और जब खुले में सब हो रहा है तो धोबी पाट वाशिंग मशीन में कैसे लगेगा?
मुझे लगता है कि कॉलोजियम ने अपनी बात साफ तौर से कही है, तथ्यों और तर्कों के साथ और तथ्य सरकार ने दिए थे। जब सुप्रीम कोर्ट को दिए तथ्य सुप्रीम कोर्ट ने अपने बारे में सार्वजनिक तौर से कही जा रही किसी बात के जवाब में कही है तो गलत कैसे है या उसे निजी कैसे रखा जा सकता था। लेकिन उससे बड़ा सवाल यह है कि उसे निजी रखने की जरूरत क्यों है? एक जानकारी के रूप में अगर वह निजी है तो अपनी बात मनवाने के लिए भी उसका उपयोग नहीं किया जाना चाहिए था और अगर उस आधार पर बात नहीं मानी गई, मामला सार्वजनिक है तो बात नहीं मानने वाला बताएगा ही कि वह बात क्यों नहीं मान रहा है और उसमें आपका तर्क तो सार्वजनिक होना ही था। वही हुआ है। अब मंत्री जी कुछ औ चाहते हैं। कुल मिलाकर कुछ ऐसा कि जो वो चाहें, करें वही सही हो बाकी सब या सब नहीं तो जिसे वो चाहें उसे गलत कह सकें।
संक्षेप में, कानून मंत्री सुप्रीम कोर्ट से ऊपर हो जाए और कानून मंत्री सरकार के साथ मिलकर उसके सम्मान की रक्षा करें। कुछ वैसे ही जैसे उपराष्ट्रपति कह चुके हैं पर वह अलग मामला है। भले ही यह सब चुनावी तैयारी के लिए मुद्दे बनाने तलाशने का भाग हो। औसे माहौल में सरकार कैसे काम कर रही है उसका अंदाजा द टेलीग्राफ की इस खबर से लगेगा इसका हिन्दी अनुवाद मैंने गूगल से किया है और पढ़ने में सहूलियत के लिए उसका संपादन मैंने किया है। खबर अखबार के विशेष संवाददाता की है और नई दिल्ली डेटलाइन से है। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने मंगलवार को आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव से सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम 2021 में मसौदा संशोधन को “हटाने” का आग्रह किया, जो प्रेस सूचना ब्यूरो को व्यापक शक्तियां प्रदान करता है।
एक तरफ तो सरकार पीआईबी को खबर सत्य होने या नहीं होने और इस आधार पर हटाने का अधिकार देना चाहती है दूसरी ओर कह रही है कि सुप्रीम कोर्ट सही खबर को भी सार्वजनिक नहीं कर सकता है या कर दिया तो वह चिन्ताजनक है। सही खबर का मतलब है सच या तथ्य और इसके सार्वजनिक होने से क्या दिक्कत हो सकती है और होती है तो क्यों नहीं होनी चाहिए। एक नीति के रूप में सरकार के पास यह अधिकार होना कि हम यह जानकारी सार्वजनिक करेंगे और यह नहीं – बहुत ही व्यापक है। खासकर तब जब गलत, झूठी या फर्जी खबर को रोकना भी उसी का काम है और इसमें वह कई बार ढीली या लापरवाह नजर आती है। कहने की जरूरत नहीं है कि इसका असर खबरों की साख पर तो पड़ेगा ही और सरकारी खबरें खबर नहीं, प्रचार की श्रेणी में भी आएंगी। सरकार आलोचना को रोकने के लिए खबरों की परिभाषा ही बदलने की कोशिश में है। और इस मामले में इतनी हड़बड़ी में है कि यह भी नहीं तय कर पा रही है कि कौन से अधिकार किसे देने हैं, कौन किस योग्य है और सरकार चाहती क्या है या जो वह चाहती है वह उचित है भी कि नहीं।
सरकार आलोचना तो नहीं ही होने देती है अब चाहती है कि कानून ऐसे हो जाए जिससे वैध आलोचना का गला घोंटा जा सके। गिल्ड ने मंत्रालय को याद दिलाया कि पीआईबी का काम सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों, पहलों और उपलब्धियों के बारे में जानकारी का प्रसार करना था। इस प्रकार, गिल्ड के अनुसार, पीआईबी को व्यापक नियामक शक्तियां प्रदान करना “अवैध और असंवैधानिक” है। और सरकार की इस कार्यशैली में यह विचित्र है कि उसने सरकार के खिलाफ फिल्म को प्रतिबधित कर दिया और जेएनयू ने सार्वजनिक प्रदर्शन की बात की बिजली चली गई और सरकार समर्थकों ने पत्थरबाजी की। दिल्ली के कई अखबारों में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। अगर ऐसे ही चलना है तो कानून व्यवस्था का क्या होगा?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।