“ मैं कभी ऊपर उठता हूं, कभी नीचे गिरता हूं, बीच दोनों के मैं इंडियन हूं, करता हूं मैं अतिक्रमण, तुम्हारी अमेरिकी अवधारणा का!”
( ई. डोनाल्ड टू – रिवर्स; अमेरिकी मूल जनजाति कवि व नाटककार )
वास्तुकला और माफिया या अंडरवर्ल्ड के लिए प्रसिद्ध शिकागो स्थित लेखकों के संग्रहालय को देख कर जब मैं बाहर निकला और मुख्य मार्ग की तरफ बढ़ा तो मेरे कानों से आवाज़ें टकराने लगीं “ we want freedom . हमें आज़ादी चाहिए.” अंग्रेजी का वाक्य तो समझ में आ रहा था, लेकिन बीच बीच में ‘आज़ादी’ शब्द ने मेरी उत्सुकता जगा दी. हिंदुस्तानी में आज़ादी के नारे कौन लगा रहा है. ऐसे नारे तो जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय की पहचान और हिन्दुत्ववादियों के लिए खतरे का निशान बन चुके हैं. दिन में सूरज के प्रकाश में समृद्धि से तमतमाते और रात्रि में गंगनचुंबी इमारतों की रोशनी से छनछन कर निकलती रंग-बिरंगी किरणों में जगमगाते पौने तीस लाख वाले इस शहर में आज़ादी की चीखों ने सड़कों को गरमा दिया है, ट्रैफिक ज़ाम है और पुलिस चौकस है. दिन एक अक्टूबर की दोपहर का है.
आज़ादी के नारों की दिशा में मैं तेज़ी से बढ़ा. साथ में थी कनाडा से शिकागो पहुंची छोटी बेटी त्रीना और उसका परिवार . हम सब उसी तरफ बढ़े चले जा रहे थे. कुछ दूर चलने के बाद देखते हैं एक लम्बा जुलूस चला आ रहा है. जुलूस में शामिल युवा -युवतियों के हाथों में तख्तियां हैं. इंग्लिश और फ़ारसी में नारे लिखे हुए हैं: “हमें आज़ादी चाहिए” , “हमें नहीं चाहिए ईरान का इस्लामी गणतंत्र”, “औरतों को आज़ादी दो”, “हमें नहीं चाहिए हिज़ाब, औरत की ज़िंदगी आज़ाद है”, “माहसा आमिनी को इंसाफ चाहिए”, “औरतों के खिलाफ जंग बंद करो”, “ईरान में खूनखराबा बंद हो”, “उसका जिस्म है और उसकी पसंद, मुल्लाओं से ईरान को आज़ाद करो”, “सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करो, ईरान में प्रतिरोध और रोज़गार का हक़ मिले”, “नहीं चाहिए गाइडेंस पैट्रॉल ( ईरान की मोरल पुलिस)” ऐसे ही अनेक नारों से माहौल गूँज रहा था. करीब डेढ़ किलो मीटर लम्बा जुलुस रहा होगा. एक तरह से प्रतिरोध का सैलाब उमड़ा हुआ था. सभी आयु वर्ग के लोग शामिल थे, अधिकांश युवा. स्त्री -पुरुषों की तादाद लगभग समान थी. मुश्किल से औरतों ने हिज़ाब पहन रखा था. वरना सभी युवतियां आधुनिक लिबास में थीं और उनसे क़दमताल मिला कर चल रहे थे पुरुष. बंद तनी मुट्ठियां हवा में स्तम्भ बनी हुई थीं. चित्रों के माध्यम से धार्मिक प्रतीकों का मखौल उड़ाया जा रहा था. नहर किनारे खड़े जगमगाते ट्रम्प टावर के सामने से गुज़रते हुए जुलूस के नारे और ऊंची आवाज़ में गूंजने लगे.
ट्रम्प शासन ने मुस्लिम आप्रवासियों के साथ किस तरह का बर्ताव किया था, सभी जानते हैं. उन पर कई प्रकार की पाबंदियां लगीं. मामला अदालत तक पहुंचा था. एक बारगी लगा, पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की हरकतें सैमुएल हंटिंग्टन की “सभ्यताओं का संघर्ष” की अवधारणा की राह पर चल पड़ी हैं. विस्थापितों को आने नहीं दिया गया. ओबामा शासन के दौरान ईरान के साथ हुई परमाणु संधि से ट्रम्प शासन मुकर गया था. शिकागो शहर के बीच नहर किनारे खड़ा बहु मंज़िला ट्रम्प टॉवर अपने स्वामी की तड़क -भड़क का जीता -जगता नमूना है. इसी के सामने से गुजरते हुए प्रतिरोधियों ने ईरान की मज़हबी निज़ाम के खिलाफ जम कर नारे लगाए। प्रदर्शनकारियों के संबंध में बात करने से पहले हम जान लें कि प्रतिरोध की प्रतीक- मशाल बनी ईरान की ‘ माहसा अमिनी ‘ कौन थी. फ़ारसी में फ्रीडम को ‘आज़ादी’ ही कहा जाता है.
संक्षेप में,22 वर्षीय अमिनी को जीना अमिनी या ज़हीना अमिनी के नाम से भी जाना जाता है. देश की मोरल पुलिस ने 16 सितम्बर को इस युवती को राजधानी तेहरान में गिरफ्तार किया था. अमिनी का इतना-सा अपराध था कि उसने हिजाब नहीं पहन रखा था. गिरफ्तारी के बाद उसे थाने में लाया गया. फिर उसे अस्पताल पहुंचाया गया. दावा किया गया की उसे हार्ट अटैक हुआ था. वह गिर पड़ी और कोमा में चली गई. लेकिन चश्मदीद गवाहों, जिनमें औरतें भी शामिल हैं, का कहना है कि थाने में पुलिस ने अमिनी को बर्बरता से पीटा था. इसके बाद उसने थाने में ही दम तोड़ दिया. ऐसे बयानों का ईरानी अधिकारियों ने खंडन किया है. स्वतंत्र पर्यवेक्षकों का मत है कि घातक पिटाई से अमिनी को ब्रैन्हेम्रेज हुआ था. इसी के साथ ही उसने दम तोड़ दिया था. अमिनी की मौत की खबर ने पूरे ईरान को हिला कर रख दिया. विभिन्न शहरों में प्रदर्शन शुरू होने लगे. दी न्यू यॉर्क टाइम्स और सीएनएन के अनुसार 2022 का प्रतिरोध 2007, 2017 और 2019 से कहीं अधिक व्यापक है. विरोध स्वरुप अनेक ईरानी औरतों ने सार्वजनिक रूप से हिजाब को तिलांजलि दी और बाल कटवाए. ईरान मानवअधिकार संस्था के अनुसार ईरान भर में सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में अब तक 200 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं. प्रतिरोध की मशाल बनी अमिनी को लेकर लोगों का क्रोध शांत नहीं हुआ है. बल्कि इसका फैलाव हुआ है. शिकागो के अलावा बोस्टन, न्यू यॉर्क और दूसरे शहरों में भी विशाल जुलूस निकाले गए. अमेरिकी मीडिया पर इसका खासा कवरेज रहा. इसके अलावा दूसरे देशों में भी यही आलम रहा; लंदन, पेरिस, ओटावा, रोम, सिओल, स्टॉकहॉम, ज़ूरीच, टोरंटो जैसे शहरों में ज़बरदस्त प्रदर्शन हुए. 22 सितम्बर से ईरान में लगातार प्रतिरोध हो रहा है. यह कब थमेगा, कहना मुश्किल है. औरत , ज़िंदगी और आज़ादी का मुद्दा सिर्फ अमिनी की दर्दनाक़ मौत से ही जुड़ा हुआ है, ऐसा नहीं है. मेरी दृष्टि में इसके और भी अनेक वज़ह हैं.
प्रतिरोधकर्मियों के नारों, तख्तियों,झण्डों और तेवरों को देख कर साफ़ ज़ाहिर होता है कि उनका आक्रोश सिर्फ मौत से ही नहीं जन्मा है, और भी कारण रहे हैं. मिसाल के तौर पर, ईरान में फैली’ बेरोज़गारी और काम का हक़’ के सवाल पर आप क्या कहेंगे ? क्या यह मुद्दे अमिनी की मौत से पहले नहीं थे ?
याद आया. मैं 2018 में कुछ पत्रकारों के साथ तेहरान गया हुआ था. उस दौरान ईरान में करीब 13 -15 प्रतिशत बेरोज़गारी थी. सरकारी अधिकारी व नेताओं ने इस हक़ीक़त को हम लोगों के साथ वार्ता में स्वीकार भी किया था. अब तो यह प्रतिशत और बढ़ गया होगा! ज़न्नतनशीन अयातुल्लाह खोमैनी के नेतृत्व में 1978 -79 में ईरान में ‘ इस्लामी इन्कलाब’ हुआ था.सब्ज़बाग दिखाए गए थे कि मज़हबी क्रांति के माध्यम से देश में समतावादी समाज क़ायम होगा। विषमता का खात्मा होगा. क्या ऐसा हो सका ? राजधानी तेहरान में ही गैर-बराबरी झलक रही थी; दक्षिण तेहरान में गुरबत थी, पिछड़ापन था, वहीं उत्तरी तेहरान को समृद्धि का टापू माना जाता था. आला अफसरों ने यह भी माना कि निजी क्षेत्रों को तरज़ीह दी जा रही है. यह पूछने पर कि क्या इससे विषमता नहीं बढ़ेगी? घिसा-पिटा ज़वाब उनका था. पूंजीपतियों पर सरकार नज़र रखेगी. इतिहास के अनुभव गवाह हैं कि निजी क्षेत्र की पूंजी की रफ़्तार तेज़ होती है और राज्य की पूंजी को पछाड़ देती है. इस प्रयोग को भारत में देखा जा सकता है. आज़ नेहरू काल के नवरत्नों का क्या हाल है, किसी से छिपा हुआ नहीं है. ज़ाहिर है, पिछले चार -पांच सालों में निजी पूंजी ने अपना चमत्कार दिखाया होगा और समाज में खाई और चौड़ी हुई होगी!
हम लोगों ने अधिकारीयों से बार बार अनुरोध भी किया था कि वे हमें ग्रामीण इलाक़ों में भी ले जाएँ. हम गावों के हालत जानना चाहते हैं. ग्रामीणों की दशा में कितना सुधार हुआ और कितना विकास हुआ है. लेकिन वे आज-कल पर टालते रहे. हमने यह भी कहा कि ईरान की पवित्र नगरी ‘ कोम ‘ भी ले जाएं. लेकिन, सभी के अनुरोध बेअसर रहे. यात्रा के आखरी दिन हम लोगों को इमाम खोमैनी इंटरनेशनल एयरपोर्ट छोड़ दिया गया. दिल्ली के लिए रवानगी हो गई. अधिकारियों ने ऐसा क्यों किया, समझ से परे है. ( देखें 2018 व 19 समयांतर अंक ). मेरा क़यास है, वे वास्तविकता से दूर ही रखना चाहते थे हम लोगों को.
प्रतिरोध से उपजा एक बड़ा सवाल यह भी है कि जुलूस में ‘ ईरान के इस्लामी गणतंत्र से आज़ादी चाहिए, हमें इस्लामी गणतंत्र नहीं चाहिए’. यह बुनियादी सवाल है और गहन विश्लेषण की मांग करता है. जहाँ इसका सम्बन्ध नागरिकों, विशेषतः औरतों के अधिकारों से है वहीँ, धार्मिक या मज़हबी राष्ट्र व व्यवस्था से भी है. क्या इस सदी में मज़हबी या धार्मिक राष्ट्र क़ामयाब हैं या हो सकते हैं. अभी तक के अनुभव इसकी तस्दीक़ नहीं करते हैं. पिछली सदी में धर्म के नाम पर बने इस्लामी पाकिस्तान का विभाजन नहीं हुआ? क्या अफगानिस्तान में चरम मजहबवादी तालिबानों की हुकूमतें क़ायम होने से देश में अमन -चैन स्थापित हो सका है? औरतों की कितनी दुर्दशा है, किसी से छिपा नहीं है. ईरान और इराक़, दोनों ही शिया बाहुल्य राष्ट्र हैं. दोनों के बीच सालों जंग चली है. लाखों लोग मारे गए. वेस्ट पाकिस्तान और ईस्ट पाकिस्तान, दोनों जगह सुन्नी समुदाय की प्रधानता थी. फिर भी 1971 में इस इस्लामी राष्ट्र के दो टुकड़े हुए. आखिर मज़हब राष्ट्र को एकजुट नहीं रख सका. किसी देश को अखण्ड रखने में धर्म-मज़हब ही निर्णायक भूमिका निभाता है, यह अवधारण अब बासी हो गई है. कई दृश्य -अदृश्य कारक हैं जो देश की एकता के लिए अपरिहार्य होते हैं. इसे समझने की ज़रूरत है. भारत में भी हिन्दुत्ववादियाँ शक्तियां इस सच्चाई को जितनी जल्दी समझेंगी, देश का उतना ही भला होगा. क्या हिन्दू राष्ट्र बन जाने के बाद देश में जातिवाद,साम्प्रदायिकता, निर्धनता,पिछड़ापन, किसानों की आत्महत्या, कुपोषण से शिशुओं की मौतें, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, बलात्कार, घूसखोरी, दल-बदल , मिलावट जैसे घातक रोगों का उन्मूलन हो जायेगा ? विचार करें इस सवाल पर.
यदि प्रतिरोधी कर्मियों ने इस्लामी गणतंत्र के खिलाफ आवाज़ उठाई है तो कुछ तो ठोस वज़ह होंगी , मज़हब से इतर भी. जुलूस के साथ कुछ दूर क़दमताल मिलाते हुए दो-तीन प्रतिरोधियों के साथ संवाद भी हुआ. युवकों का साफ़ शब्दों में कहना था कि इस्लामी गणतंत्र बनने से आम जनता को कोई फायदा नहीं हुआ है. सब्ज़बाग ज़रूर दिखाए गए हैं लेकिन अमीर -गरीब के बीच फासला चौड़ा ही हुआ है. ‘ हमें मज़हब की टैग लगी आज़ादी नहीं चाहिए’, गुस्से से उक्त युवक बोला। मज़हबी नेता ही फैसला करते हैं, यह हमें मंज़ूर नहीं है. भीख में आज़ादी नहीं, संघर्ष से आज़ादी लेकर रहेंगे. जुलूस में शामिल तुर्की के खुरदिश विद्यार्थी भी थे. प्रोफेशनल भी थे. अचानक एक युवक के मुंह से निकल गया,” हम कामरेड हैं. आप शक्ल से हिन्दुस्तान लगते हैं. कॉमरेडों को समझते ही होंगे?” इसके बाद तो उनके साथ मेरी खुल कर बातें होने लगी. युवकों ने कहा,” देखिये, वैसे तो हम लेफ्टिस्ट हैं, कम्युनिस्ट हैं. लेकिन ईरान और तुर्की में ही नहीं, अमेरिका में भी हमें ‘सोशल डेमोक्रैट’ के रूप में रहना पड़ता है. इस देश में हमारी पहचान यही है. आपने सुना ही होगा, 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद खोमैनी के लोगों ने किस बेरहमी के साथ कम्युनिस्टों का सफाया किया था. पहले ईरान के शासक शाह के खिलाफ हम लोगों से मदद ली. सत्ता में आने के बाद हमारे हज़ारों कॉमरेडों को गोलियों से भून डाला. ऐसे हैं ये बुनियादपरस्त लोग.”( जुलाई 1988 में खोमैनी के हुक्म से ईरानी अधिकारियों ने पूरे देश में फेदयान और ईरान की कम्युनिस्ट पार्टी टुडेह के हज़ारों समर्थकों को मौत के घाट उतार दिया था. हत्या का यह सिलसिला 19 जुलाई, 88 से शुरू हुआ और पांच -छह महीने तक चलता रहा. योजनाबद्ध ढंग से राजनीतिक बंदियों का सफाया किया गया. हालांकि, तेहरान यात्रा में मैंने देखा कि बुक शाप पर मार्क्स की किताबें उपलब्ध थीं. वामपंथी लेखकों का साहित्य भी मौजूद था. बेचनेवाले ने धीरे से बताया था कि वह वामपंथी है. भय के साये में जीता है. हो सकता है, ईरान सरकार ने 1988 से लेकर 2018 के बीच कुछ रियायतें दी हों। )
हम देख रहे हैं मुस्तैदी के साथ आज़ादी का परचम थामे जुलूस आगे ही बढ़ता जा रहा है. बुलंद आवाज़ में उनके नारे हमारे कानों में गूंज रहे हैं और आँखों में तैर रहे हैं प्रतिबद्ध चेहरे! शिकागो के आसमान में मज़हबी राजसत्ता के खिलाफ गूंज रही है – आज़ादी … आज़ादी …. आज़ादी!
लेखक हिंदी के वरिष्ठ लेखक और जाने-माने पत्रकार हैं।