रोहित रंजन को सुप्रीम कोर्ट से राहत मिलने की ख़बर पहले पन्ने पर क्यों नहीं है? 

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
मीडिया Published On :


अखबारों का काम है तथ्यपरक रिपोर्टिंग। तथ्यों को जस का तस रख देना, पाठकों को निर्णय करने देना। इस लिहाज से आज के अखबारों में ऑल्ट न्यूज के संस्थापक संपादक मोहम्मद जुबैर और जी न्यूज के एंकर रोहित रंजन का मामला एक जैसा और बराबर महत्व का होते हुए भी सभी अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है। सिर्फ एक अखबार ने दोनों को पहले पन्ने पर लिया है। मैं सिर्फ पहले पन्ने की बात करता हूं और इस लिहाज से खबरों के चयन में भिन्नता स्वाभाविक है। पर मैं अक्सर उस खबर की बात करता हूं जो सभी या ज्यादातर अखबारों में पहले पन्ने पर होते हैं। या मुझे लगता है कि होना चाहिए, किसी एक या दो में होता भी लेकिन बाकी में नहीं होता है। वैसे भी शीर्षक बिल्कुल अलग बात बता रहे होते हैं जो आप आगे देख सकते हैं।     

शीर्षक की चर्चा शुरू करने से पहले बता दूं कि आजकल खबरों के चयन में पूर्वग्रह साफ झलक रहा है। सरकार विरोधी खबरें नहीं होती हैं या पहले पन्ने पर तो नहीं ही होती है जबकि प्रचार वाली या समर्थन वाली खबरें पहले पन्ने पर ज्यादा होती हैं। इस लिहाज से पिछले दिनों जकिया जाफरी और नुपुर शर्मा वाले मामले में अदालत की टिप्पणी थोड़ी अलग थी और उस पर अलग तरह की प्रतिक्रिया भी सुनने में आई। कहने की जरूरत नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर टिप्पणी अमूमन नहीं होती है और होनी भी नहीं चाहिए पर जब टिप्पणी विशेष हो तो उसकी चर्चा भी होनी चाहिए और उससे संबंधित मामले हों तो उन्हें प्रमुखता भी मिलनी चाहिए। एक जैसे मामले एक साथ तो होने ही चाहिए। 

गुजरात दंगे के मामले में उस समय के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत तमाम अधिकारियों का बच जाना और बिहार के चारा घोटाले में मुख्यमंत्री को सजा हो जाना ऐसा उदाहरण है जिसपर चर्चा होनी चाहिए, हो सकती है। क्या लालू यादव को सत्ता में नहीं होने या केंद्र सरकार के खिलाफ होने का नुकसान हुआ खासकर तब जब केंद्र सरकार में होने के नाते गुजरात के मुख्यमंत्री पूरी तरह बच गए हैं। वैसे भी, लालू यादव को सजा किसी बड़े नेता को सजा के दुर्लभ उदाहरणों में है। अखबारों में यह सब नहीं बताया जाएगा तो लोगों को कैसे समय में आएगा और क्या अखबार अपना काम ईमानदारी से निष्पक्षता के साथ कर रहे हैं।

इसी तरह, एक बड़ी और केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की अधिकृत प्रवक्ता को उसके बयान के लिए निजी तौर पर जिम्मेदार ठहराया जाना जबकि उसने जो भी कहा था पार्टी के लिए कहा था और कहने के लिए पार्टी ने कार्रवाई नहीं की थी कार्रवाई तो तब की गई जब अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ा और इस कार्रवाई से असल में पार्टी ने अपने प्रवक्ता को पुलिसिया कार्रवाई से बचा लिया है। फिर अदालत की टिप्पणी एक व्यक्ति के खिलाफ है जिसे पार्टी ने मुश्किल में पड़ने पर फ्रिंज एलीमेंट कह दिया, अकेले छोड़ दिया। घोषित रूप से पार्टी भले अपनी पूर्व प्रवक्ता के खिलाफ है लेकिन उसे हासिल सरकारी कवच तो दिख ही रहा है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी क्या चर्चा के काबिल नहीं है, जो वैसे भी सामान्य नहीं है? आइए, दोनों खबरों की प्रस्तुति देखें –

1.द टेलीग्राफ –जुबैर को अंतरिम जमानत मिली लेकिन हिरासत में ही रहना होगा

2.हिन्दुस्तान टाइम्स –सुप्रीम कोर्ट ने यूपी मामले में जुबैर को पांच दिन की जमानत दी। इसके साथ एक और खबर का शीर्षक है, रोहित रंजन के खिलाफ कोई अवपीड़क कार्रवाई न हो

3.टाइम्स ऑफ इंडिया सीतापुर मामले में जुबैर को पांच दिन की जमानत मिली। इंट्रो है, दिल्ली मामले में न्यायिक हिरासत में रहेंगे। (आप जानते हैं दिल्ली मामला चार साल पुराने ट्वीट के लिए नामालूम से ट्वीटर हैंडल की शिकायत पर गिरफ्तार करने का है। इस ट्वीट में 1983 की फिल्म की तस्वीर शेयर की गई थी कभी प्रतिबंधित रही और ना संपादित की गई है।)

अखबार ने इस खबर के साथ बताया है कि जुबैर के वकील ने अदालत में कहा कि उसने तीन धार्मिक नेताओं को घृणा फैलाने वाला कहना स्वीकार कर लिया है। इसलिए आगे किसी जांच की जरूरत नहीं है। धार्मिक नेताओं के खिलाफ एफआईआर का जिक्र किया। दूसरी ओर, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा है कि इस तर्क से जुबैर ने धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाला कहे जाने का जोखिम लिया है महज इसलिए कि उनके खिलाफ एफआईआर हैं। 

इस संबंध में हिन्दुस्तान टाइम्स ने लिखा था, “इन संतो में एक हैं – यति नरसिन्हानंद सरस्वती जिनपर दिल्ली और उत्तर प्रदेश में घृणा फैलाने वाले कथित भाषण के खिलाफ कई आरोप है।” आपको याद होगा, यह भाषण हरिद्वार में आयोजित धर्म संसद में दिया गया था। इसका और बाकी लोगों के भाषण का वीडियो सोशल मीडिया पर आराम से उपलब्ध है। टाइम्स ने इसके साथ एक और खबर छापी है, जिहादी ताकतों से निपटने के लिए वीएचपी (विश्व हिन्दू परिषद) की हेल्पलाइन। 

कहने की जरूरत नहीं है कि टाइम्स ऑफ इंडिया की आज की  खबर पूरे मामले को करीब-करीब सही से बताती है। ज़ी टीवी के एंकर का मामला भी इसी दिन सुप्रीम कोर्ट में था उसकी खबर भी इसके साथ हो जाती तो मामला पूरा हो जाता। यह तथ्य है कि किसी खबर के सभी पहलू एक साथ एक ही जगह हों यह टाइम्स में अक्सर होता है और इसका प्रकाशन करने वाली कंपनी के बड़े लोगों के खिलाफ सरकारी कार्रवाई चल रही है। 

अदालत में जो सब कहा गया वह किस मौके पर किस संदर्भ में कहा गया वह सब मैं नहीं जानता हूं पर घृणा फैलाने वाले भाषण का हवाला देकर किसी को घृणा फैलाना वाला क्यों नहीं कहना चाहिए और कार्रवाई की मांग क्यों नहीं करनी चाहिए या करना अपराध कैसे है – मैं नहीं समझ पाया। उस लिहाज से मेरा मानना है कि जेएनयू में कन्हैया पर जो आपत्तिजनक नारे लगाने का आरोप है (वहां वीडियो फर्जी होने का आरोप है) वह एक परिसर में कुछ लोगों के बीच लगाया गया था और अगर मीडिया ने उसे प्रचारित प्रसारित नहीं किया होता तो कार्रवाई क्यों होनी चाहिए। पर धर्म संसद के मामले में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। लेकिन दोनों मामलों में स्थिति बिल्कुल उलट है। हालांकि वह अलग मुद्दा है।

4.द हिन्दू –यूपी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जुबैर को अंतरिम जमानत दी। उपशीर्षक है, पर दिल्ली वाले मामले में वे अभी भी हिरासत में हैं।

5.इंडियन एक्सप्रेस –सुप्रीम कोर्ट ने जुबैर को 5 दिन की अंतरिम जमानत दी : (कहा) सबूत से छेड़-छाड़, ट्वीट न करें। उपशीर्षक है, “जुबैर ने अदालत से कहा, घृणा फैलाने वाला भाषण देने वाले आजाद हैं, मुझे जेल में बंद कर दिया गया है।”

दिल्ली के चार और कोलकाता से प्रकाशित होने वाले एक, कुल पांच अंग्रेजी अखबारों के उपरोक्त शीर्षक और उसपर मेरी टिप्पणी से स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट में दो पत्रकारों के मामले में एक ही दिन में फैसला आया पर उसे सिर्फ एक अखबार ने एक साथ छापा है। बाकी सब ने फैक्ट चेकर और ऑल्ट न्यूज के सहसंस्थापक के मामले को तो पहले पन्ने पर छापा है लेकिन ज़ी टीवी के एंकर का मामला नहीं है। दोनों मामलों में फैसला आप ऊपर पढ़ चुके हैं। मामलों से जाहिर है एक सरकार समर्थक पत्रकार है और एक सरकार विरोधी। सरकार विरोधी को जमानत मिली पर किसी काम की नहीं है सरकार समर्थक को यूपी पुलिस द्वारा बचाने की कोशिश और अवपीड़क कार्रवाई नहीं करने का निर्देश दिखाई दे रहा है। पर वह पहले पन्ने की खबर नहीं है। 

सरकार विरोधी जुबैर का फंसाया गया है, गिरफ्तारी के बाद मामला बनाया गया है और घृणा फैलाने वाला कहने के लिए जुबैर को तो गिरफ्तार कर लिया गया है पर घृणा फैलाने के आरोप पर कार्रवाई नहीं हुई है जबकि वह पुराना मामला है। यह अंतर चाहे जिन कारणों से हो, कानून का मामला है, उसपर मेरी जानकारी शून्य है पर अंतर तो है। उसे रिपोर्ट क्यों नहीं करना, बराबर क्यों नहीं रखना या किस आधार पर महत्व कम या ज्यादा करना और जुबैर ने अदालत में जो कहा जिसे इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पन्ने पर छापा है वह दूसरे अखबारों के लिए कम महत्वपूर्ण क्यों है? 

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।