‘‘जबसे कोविड की दूसरी लहर शुरू हुई, हम फ्र्रंटलाइन वर्कर के रूप में कड़ी मेहनत कर रहे हैं। पर न ही हमें कोई पहचान मिली न एक्सट्रा काम के लिए पैसा।’’
यह दुखड़ा सुना रही थी अंजू, जो पिछले 4 वर्षों से इलाहाबाद के फूलपुर तहसील में आशा कार्यकर्ता हैं। उनकी भावना राज्य के 1.5 लाख से अधिक आशा कर्मियों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती है। और उनकी कहानी भी विशिष्ट तौर पर वही है जो उनके साथ काम करने वाली आशाओं की रोज़ की कहानी होती है।
अंजू का छोटा सा परिवार है जिसमें तीन बच्चे हैं। बड़ा बेटा बिजली का काम करता है और टुल्लू-पम्प, कूलर व पंखे मरम्मत करके कुछ कमा लेता हैं। वह घरों की वायरिंग करना जानता है और बिजली के मोटरों की काॅयल बाइंडिंग भी कर लेता है। उसकी कमाई परिवार की आय को समृद्ध करती है और इसकी वजह से बाकी दो बच्चे भी पढ़ रहे हैं-एक कक्षा 12 में है और दूसरा इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा है।
‘‘मैं सुबह 6 बजे से पहले उठ जाती हूं और मुझे 8.30 तक चाय पीकर, घर की सफाई करके, कपड़े धो कर और खाना पकाकर घर से निकल जाना पड़ता है। बच्चे तो इतने बड़े हैं कि वे अपने से पढ़ने चले जाते हैं, पर मुझे नाश्ता लगाकर ही जाना होता है। फिर मुझे अपने लिए भी टिफिन पैक करना पड़ता है,’’ अंजू बताती हैं।
आशा कर्मियों को सुबह 9 बजे से पहले काम पर आ जाना होता है। अंजू के अनुसार 4000 जनसंख्या के एक गांव में 4 आशाएं हैं, यानि एक आशा कर्मी को कम-से-कम 500 परिवारों की जिम्मेदारी लेनी पड़ती है। उन्हें न केवल गर्भवती महिलाओं को संस्थागत डिलिवरी के लिए ले जाना होता है, टीकाकरण अभियानों में भी उन्हें लगना पड़ता है; ग्रामीणों को समझाना पड़ता है कि उनके बच्चों को खसरा का टीका लगाना क्यों ज़रूरी है। उन्हें घर-घर जाकर अलग-अलग किस्म के सर्वे भी करने होते हैं।
‘‘पिछले साल से हम घर-घर जाकर जांच कर रहे हैं कि किसी को बुखार, खांसी या कोविड के अन्य कोई लक्षण हैं या नहीं। यह हमारे लिए बड़ा खतरा था क्योंकि हम छोटे घरों में अपने परिवार के सदस्यों के साथ रहते हैं, तो संक्रमित होने पर पूरे परिवार के लिए खतरा हो जाता है।’’
आशा कर्मी राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन या एनएचएम के तहत काम करने वाली मान्यता-प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता कहलाती हैं, पर उन्हें स्वयंसेवी यानि वाॅलेंटीयर माना जाता है, न कि स्थायी सरकारी कर्मचारी। वे केवल मानदेय पर काम करती हैं, जो उत्तर प्रदेश में काफी कम है। हालांकि उन्हें गर्भवती महिलाओं की संस्थागत डिलिवरी कराने, नसबंदी करवाने और कई स्वास्थ्य योजनाओं को लागू करने का अलग पैसा मिलता है।
अंजू के अनुसार कभी-कभी एक महीने में 3 डिलिवरी केस आ जाते हैं, पर ऐसे भी महीने होते हैं जिनमें एक भी केस नहीं आता। तो साल भर में औसतन 1 डिलिवरी प्रति माह हुआ और इसके 600 रु ही मिलते हैं। एक टीेके का 100रु और बूस्टर डोज़ का 50 रु मिलता है। 3 से अधिक बच्चों वाले परिवार में नसबंदी के 300रु मिलते हैं और 2-3 बच्चों वाले परिवार के लिए 1000रु मिलते हैं।
एक सर्वे किया तो उन्हें 1000रु तक मिलते हैं। एक दिन में 40-50 घरों में जाना पड़ता है और केंद्र में 3 बजे तक रिपोर्ट जमा करनी पड़ती है। वाॅट्सऐप से फोटो भी भेजने पड़ते हैं, पर कई बार इंटरनेट काम नहीं करता। एक कुष्ठ रोगी का पता लगाने पर 200रु मिलते हैं और उसका इलाज कराएं तो 500रु। मीटिंग कराने के 100रु मिलते हैं और जन्म-मृत्यु का पंजीकरण करवाने पर 25रु।
‘‘मुझे अधिकतम 4000रु मासिक का मानदेय मिलता है, पर यह तो ‘‘कमीशन’’ही है। यदि मुझे केस न मिलें तो मेरी कुछ कमाई ही न हो। हमें रोज़मर्रे के काम के लिये परिवहन खर्च (टेम्पो या बस भाड़ा) नहीं मिलता न ही बीमार पड़ने पर दवाएं, क्योंकि अधिकतर दवाएं अस्पताल में होती ही नहीं। अक्सर हम पैसा बचाने या फिर बस को देरी होने से समय बचाने के लिए धूप और बारिश में पैदल चले जाते हैं। तो कुल मिलाकर हम 2000-3000रु ही कमा पाते हैं, इससे अधिक नहीं,’’अंजू कहती हैं। अंजू उत्तर प्रदेश आशा वर्कर्स यूनियन के इलाहाबाद जिले की एक नेता हैं।
वह बताती हैं कि जमीनी स्तर पर स्थिति बहुत दयनीय है।‘‘कोविड की पहली लहर के दौरान हमें शुरू-शुरू में मास्क और सैनिटाइज़र दिये गए थे। फिर हमेशा सप्लाई कम बताई जाती और हमें बाहर से खरीदकर काम चलाना पड़ता। जो पैसा खर्च हुआ वह हमें कभी वापस नहीं दिया गया, पर क्या करें, हमें तो अपनी सुरक्षा का ध्यान रखना ही था। हमें ग्लव्स भी नहीं दिये जाते और केवल हाथ धोकर व सैनिटाइज़र लगा-लगाकर काम चलाना पड़ता। एक बार तो वाल्व वाले मास्क दिये गए, जो हमें वायरस से सुरक्षा नहीं दिलाते हैं। तो हम खरीदकर अंदर सर्जिकल मास्क पहनते और ऊपर से उसे लगा लेते। सर्जिकल मास्क को धोकर इस्तेमाल करते या नया खरीदते। बिना सुरक्षा के क्या इस तरह काम करना संभव है? हम बहुत ही असुरक्षित थे । 2 दिन काम रोककर हड़ताल करने पर ही सही तरह मास्क दिये गए। पर वह भी लम्बे समय तक नहीं,’’अंजू ने बताया।
दूसरी लहर में वायरस अधिक संक्रामक था, इसलिए आशा कर्मियों को और भी अधिक झेलना पड़ा।
‘‘जब हम कोविड मामलों की जांच करने लोगों के घर जाते, खासकर प्रवासियों के यहां, जो मेट्रो शहरों से आए थे, लोग कठोर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहते कि हम ही बीमारी बांट रहे हैं, और हमें भगा देते। वे टेस्ट नहीं कराना चाहते थे कि कहीं क्वारंटाइन कर दिया जा सकता है या अस्पताल में भर्ती होना पड़ सकता है। कुछ तो हमें अपने घर के पास देखकर दरवाज़ा बन्द कर देते और उल्टा-सीधा बोलने लगते। उन्हें यह समझ में नहीं आता कि हम तो उनकी सुरक्षा के लिए यह सब कर रहे हैं। उल्टे, हमारे पास ही मास्क के अलावा कोई पीपीई नहीं होता। हम केवल अपनी जान ही नहीं, अपने परिवार वालों की जान भी जोखिम में डाल रहे थे। हमारी एक आशा बहन, जो दूसरे गांव में काम करती है, अपने पति को संक्रमित कर दीं। उन्हें पीएचसी या स्थानीय अस्पताल से कोई सहयोग नहीं मिला। वे केवल पैरासीटामाॅल की गोलियां दे देते। उन्होंने अब तक ड्यूटी नहीं जाॅइन की और उनके पति 4 अस्पताल बदलने के बाद गुज़र गए। स्वास्थ्य विभाग से कोई मदद नहीं मिली; केवल आशा वर्कर्स यूनियन के साथियों ने हर संभव सहयोग किया और उनके पति के अंतिम संस्कार तक में रहीं। इन बहन को अपनी जमीनें बेचकर पति का इलाज कराना पड़ा और अस्पताल के बिल भरने पड़े।’’
अधिकतर आशा कर्मियों को स्वयं स्थानीय स्वास्थ्य सेवाओं पर भरोसा नहीं है क्योंकि न ही सामग्री रहती है और न ही डाॅक्टर अपनी लापरवाही का रुख बदल पाते हैं। यदि सही समय से मरीज को सही इलाज मिले तो न जाने कितनी जानें बच सकती हैं। पर न ही टेस्ट होते हैं न सही दवाएं समय पर मिलती हैं। यही कारण है कि वे कर्ज लेकर भी इलाज हेतु प्राइवेट असपतालों का मुंह देखते हैं।
अंजू पूछती हैं,‘‘जब हमें टेस्ट बाहर से कराने हैं, दवा बाहर से खरीदनी है और ऑक्सिजन व वेंटिलेटर के लिए प्राइवेट अस्पतालों के दरवाज़े खटखटाने पड़ते हैं तो ये स्थानीय स्वास्थ्य केंद्रों और सरकारी अस्पतालों से क्या लाभ?’’
वे दुख के साथ एक स्थानीय अध्यापक राजेंद्र प्रसाद के केस का उदाहरण दे रही थीं, जिन्हें कोविड हुआ था और वे स्थानीय स्वरूप रानी नेहरू मेडिकल काॅलेज में भर्ती हुए थे। यह जिले का प्रमुख चिकित्सालय है।
‘‘वे बड़े स्वस्थ्य और मजबूत काठी के थे। पर सही इलाज न मिलने से गुज़र गए। उनके पीछे जवान पत्नी और 4 साल के बच्चे के अलावा बूढ़ी सास भी हैं। अब परिवार में कोई कमाने वाला नहीं बचा तो वे स्कूल की बिल्डिंग में ही रह रहे हैं। इस घटना ने गांव वालों का दिल दहला दिया है। इसलिए लोगों को टेस्ट करवाकर अस्पताल जाने से डर लगता है। कहीं सरकारी अस्पताल चले गए तो ‘मास्टर जी’ की तरह वापस नहीं लौटेंगे।’’
अंजू बताती है कि अभी जोर-शोर से कोविड टीकाकरण अभियान चल रहा है। शुरू में तो लोग टीका लगाने से डर रहे थे क्योंकि उन्होंने ‘साइड इफक्ट’ के बारे में बातें सुनी थीं। कुछ लोगों ने अफवाह सुनी थी कि लोग टीका लगाने के बाद मर गए, और उन्हें इसलिए विश्वास हो गया कि यह किसी नज़दीकी स्रोत से प्राप्त सूचना थी, मस्लन खास मित्रों और रिश्तेदारों से। बहुत समझाने के बाद अब कुछ हद तक अभियान जोर पकड़ा है।
‘‘आप तो जानते हो कि लोगों को महज तर्क के आधार पर नहीं समझाया जा सकता। उन्हें अपनी आखों से देखना होगा कि लोग टीका लेकर आए और हल्के लक्षणों के बाद ठीक हो गए। कुछ लोग पूछने लगे कि क्या हम गारंटी लेंगे कि कुछ नहीं होगा? भला हम कैसे हां कर सकते हैं? अधिकारी और मानिटर करने वाली टीमें तो आकर चली जाएंगी, पर हमें तो गांव में ही रहना है।’’
जब टार्गेट पूरे नहीं होते, आशा वर्करों को फटकार पड़ती है और दबाव बनाया जाता है। ‘‘पर हम लोगों की मानसिकता को कैसे बदलें?’’ वह बोलीं। अंजू से बात करके पता चला कि उन्हें प्रशिक्षण नहीं दिया गया है। मसलन उन्हें पता ही नहीं होता कि जो वैक्सीन दिये जा रहे हैं उनके नाम क्या हैं, न ही उन्हें पता है कि हर टीका कितना कारगर है या उनके साइड इफेक्ट क्या हैं? उन्हें केवल इतना बताया गया है कि ‘‘टीका’’ सुरक्षा देगा। बस इतना ही।
अंजू खुश है कि एआईसीसीटीयू (आल इंडिया सेंट्रल काउंसिल आफ ट्रेड यूनियन्स), जिसके वे सदस्य हैं, उन्हें अपनी जायज़ मांगों को उठाने में मदद कर रहा है।
‘‘पहले तो आशा वर्कर नौकरी जाने के डर से ट्रेड यूनियन में नहीं जुड़ती थी। पर चीज़ें बदल रही हैं। हमारी एक साथी कोविड के कारण गुज़र गईं। बिहार में ऐसे केस में 50 लाख का मुआवजा मिलता, क्योंकि उनकी यूनियन मज़बूत है। हम अभी भी उसका केस लड़ रहे हैं, क्योंकि उसके परिवार को अभी कुछ नहीं मिला है। कई बार तो हम आपस में चंदा करके अपनी आशा बहनों के इलाज के लिए मदद करते हैं।
हमें महामारी के दौर में एक्सट्रा काम के लिए 1000रु प्रतिमाह मिलना था। पर हमें सिर्फ अप्रैल महीने में मिला और उसके बाद के महीनों के लिए नहीं। पर हमारा यूनियन काफी मेहनत कर रहा है कि राज्य स्तर पर हम संगठित हो जाएं। हम जब भी हड़ताल पर जाते हैं, पुलिस हमें धमकी देती है। पर हम अपने मरीजों को कहते हैं कि हम फिर भी उनकी मदद करने के लिए उन्हें प्राइवेट अस्पताल ले जा सकते हैं, यदि वे राज़ी हों। हम कोशिश कर रहे हैं कि एक मजबूत राज्य-स्तरीय यूनियन बना लें और हमारे संघर्षों की खबरें स्थानीय अख़बारों में छपी भी हैं,’’ अंजू ने कोविड रिस्पाॅन्स वाॅच का बताया।
इलाहाबाद के अलावा कुछ आशाकर्मी रायबरेली, भदोही, औरइया, लखनऊ, कौसाम्बी, गोंडा और जौनपुर में संगठित हो रही हैं। अभी भी राज्य-स्तर का संगठन बनाने की दिशा में मेहनत करना बाकी है, पर आशा कार्यकर्ता काफी उत्साहित हैं।
(कार्यकर्ताओं की पहचान सुरक्षित रखने के लिए नाम बदले गए हैं। कुमुदिनी पति एक शोधकर्ता हैं जो इलाहाबाद में रहती हैं।)
FROM COVID RESPONSE WATCH