आरक्षण के मुद्दे पर चुनावी राजनीति से प्रेरित मोदी सरकार ने दो सोचे समझे कुटिल कदम उठाये हैं। एक, जाति-आधारित जनगणना न कर, घोर जातिवादी सवर्ण मानसिकता को भुनाने के लिए और दूसरा, 127वें संविधान संशोधन के माध्यम से, लुप्त होती सरकारी नौकरियों के परिप्रेक्ष्य में ओबीसी बन्दरबाँट पर अनुकूल जातिवादी रंगत चढाने के लिए। हालिया वर्षों में, कानून-व्यवस्था के लिए, इन जैसी कवायदों के निहितार्थ भारतीय समाज कई राज्यों में भुगत चुका है। सबसे अराजक रूप में, 2015 में, हरियाणा के उन्मादी जाट आरक्षण अभियान के रूप में।
जब संवैधानिक आरक्षण का आधार जाति है तो जातिगत मतगणना न कराना सरकारी स्तर पर जातिवाद को बढ़ावा देना नहीं तो और क्या हुआ? बिना वांछित आंकड़ों के इस क्षेत्र के सही मानक कैसे बनाए जा सकते हैं? लेकिन भाजपाई राजनीति को इसका भी ध्यान रखना होता है कि पार्टी के सवर्ण वोट बैंक की जातिवादी अनुभूतियों को ठेस न पहुंचे।
भारतीय समाज में संवैधानिक आरक्षण की ऐतिहासिक भूमिका स्वतः स्पष्ट है। इस पद्धति ने सवर्ण समुदाय के शताब्दियों से चले आ रहे ‘मेरिट’ के जातिवादी दंभ को तोड़ दिया, और भारतीय राष्ट्र में दलितों/पिछड़ों की बहुआयामी भागीदारी को मजबूत किया। लेकिन साथ ही, एक और इतिहास सिद्ध सूत्र है कि आरक्षण का व्यापक लाभ मजबूत को मिलता है, कमजोर को नहीं। यह शक्ति संतुलन जितना पारंपरिक सवर्ण आरक्षण पर लागू होता रहा था उतना ही संवैधानिक दलित/ओबीसी आरक्षण पर भी। शत-प्रतिशत सामाजिक/आर्थिक/राजनीतिक/शैक्षणिक सवर्ण आरक्षण पद्धति से लेकर, चमार, मीणा, यादव, कुर्मी जैसे वर्चस्वकारी समुदायों की जातिगत आरक्षण में लगभग मोनोपोली, इसी समीकरण की बानगी रही है।
नए ओबीसी संविधान संशोधन बिल से कुछ अन्य वर्चस्वकारी समुदायों जैसे जाट (हरियाणा), मराठा (महाराष्ट्र), पटेल (गुजरात), गूजर (राजस्थान) इत्यादि के लिए भी प्रवेश खिड़की खुल जाएगी। यानी रोजगार के अकाल में नए प्रभावशाली दावेदार! मुर्गियों के दड़बे में नयी लोमड़ियां! सोचिये, बवाल किनके बीच कटेगा, भुगतेगा कौन और तमाशा कौन देखेगा! जब राजनीतिक पार्टियों की अभूतपूर्व संसदीय एकता रोजगार की बंजर जमीन पर ’टुकड़ा फेंको तमाशा देखो’ का गृह-युद्ध सिद्ध होगी।
वर्तमान बहस में रोहिणी आयोग की चर्चा नहीं के बराबर हुयी है| केंद्र सरकार ने ओबीसी के उप-श्रेणीकरण पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये बने इस आयोग के कार्यकाल को 31 जुलाई, 2021 तक बढ़ा दिया है। आयोग का गठन अक्तूबर 2017 में संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत किया गया था। उस समय इसे रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये 12 सप्ताह का समय दिया गया था।
उप-श्रेणीकरण की आवश्यकता इस धारणा से उत्पन्न होती है कि OBC की केंद्रीय सूची में शामिल कुछ ही प्रभावी समुदायों को 27 प्रतिशत आरक्षण का एक बड़ा हिस्सा प्राप्त होता है। वर्ष 2015 में ‘राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग’ ने ओबीसी को अत्यंत पिछड़े वर्गों, अधिक पिछड़े वर्गों और पिछड़े वर्गों जैसी तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किये जाने की सिफारिश की थी।
तात्कालिक राजनीतिक बाध्यताओं ने ही मोदी सरकार से आयोग का गठन कराया था और इन्हीं बाध्यताओं ने ही इसके काम को बाधित किया हुआ है| केंद्र सरकार की नौकरियों और विश्वविद्यालय में प्रवेश में विभिन्न ओबीसी समुदायों के प्रतिनिधित्व तथा उन समुदायों की आबादी की तुलना करने के लिये आवश्यक डाटा की उपलब्धता अपर्याप्त है। वर्ष 2021 की जनगणना में ओबीसी से संबंधित डाटा एकत्र करने को लेकर सन्नाटा है।
वर्ष 2018 में, आयोग ने पिछले पाँच वर्ष में ओबीसी कोटा के तहत दी गई केंद्र सरकार की 1.3 लाख नौकरियों का विश्लेषण किया था। साथ ही, पूर्ववर्ती तीन वर्षों में विश्वविद्यालयों और अन्य उच्च केंद्रीय शिक्षा संस्थानों में ओबीसी प्रवेश से संबंधित आँकड़ों का विश्लेषण किया था। आयोग के मुताबिक, ओबीसी के लिये आरक्षित सभी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों की सीटों का 97 प्रतिशत हिस्सा उनकी उप-श्रेणियों के केवल 25 प्रतिशत हिस्से को प्राप्त हुआ। उपरोक्त नौकरियों और सीटों का 24.95 प्रतिशत हिस्सा केवल 10 ओबीसी समुदायों को प्राप्त हुआ। नौकरियों तथा शैक्षणिक संस्थानों में 983 ओबीसी समुदायों (कुल का 37%) का प्रतिनिधित्व शून्य है। विभिन्न भर्तियों एवं प्रवेश में 994 ओबीसी उप-जातियों का कुल प्रतिनिधित्व केवल 2.68% है।
यानी, अगर रोहिणी आयोग को ही राजनीति से नहीं सामाजिक निष्ठा से चलाया जाता तो 127वें संवैधानिक संशोधन के विस्फोटक पाखंड की जरूरत नहीं पड़ती| लेकिन, सत्ताधारी की दिलचस्पी रोग में होती है उपाय में नहीं।
लेखक रिटायर्ड आईपीएस रहे हैं क़ानून-व्यवस्था और मानवाधिकार के मुद्दों पर लगातार सक्रिय हैं। वो हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं।