जैसा खाये अन्न, वैसा होवे मन: यथार्थ या विभ्रम?


“इतना तो साफ है कि अब तक के अध्ययन ये कत्तई साबित नहीं करते कि शाकाहार या मांसाहार का मानवीय मूल्यों को पैदा करने में, उन्हें बढ़ाने या कम करने में कोई योगदान है। समय और हालात के अनुसार मैंने शाकाहारियों और मांसाहारियों को समान रूप से क्रूर और हिंसक या फिर दयालु पाया है।”


सलमान अरशद सलमान अरशद
ओप-एड Published On :


जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन” बहुत पुरानी उक्ति है। मेरे जैन मित्र इस उक्ति का सबसे ज़्यादा उपयोग करते हैं और इसके जरिये शाकाहार को जस्टिफाई करते हैं। वो कहते हैं कि अगर आप मांसाहार करते हैं तो आपका व्यवहार हिंसक होगा, क्रूर होगा, आप स्वार्थी होंगे और भी बहुत कुछ। इसके विपरीत अगर आप शाकाहारी होंगे तो सज्जन होंगे।

एक चौमासे में जैन समाज के लोगों को योग और ध्यान सिखाने का अवसर मिला। मुम्बई में था और रोज़ करोड़पतियों को करीब से देखने सुनने और बात करने का मौका मिलता था। बड़ी तादाद में गुजरात के लोग भी थे, चौमासे में भक्त लोग देश विदेश से अपने गुरुओं से मिलने आते हैं। तो यूँ समझिए, मुझे इस एक जगह जैन समाज के एक अंतराष्ट्रीय समूह से मिलने का मौका मिला।

सबसे अहम बात के ये सभी बड़ी कट्टरता के साथ शाकाहार का पालन करते हैं। यहां तक कि यूरोप, अमेरिका और अरब देशों में भी। जी हां, ये बड़ी संख्या में अरब मुमालिक में भी रहते हैं और वहाँ बड़े बिजनेसमैन हैं।

दूसरी अहम बात, जितने सज्जन और दुर्जन मांसाहारी होते हैं, उतने ही सज्जन या दुर्जन ये जैन भी होते हैं। लगभग 10 साल इस समाज से नजदीकी रिश्ता रहा। जब तक मैं इस चौमासे में शामिल नहीं हुआ था तब तक उपरोक्त उक्ति पर मेरा भी भरोसा था। मैंने जैन समाज के साधकों के साथ साधना के कई प्रयोग किये। उबले पानी के सहारे तीन दिन, 5 दिन और सात दिन का उपवास भी किया। तेला यानी तीन दिन का उपवास, तीन बार किया बाकी के एक एक बार।

उपवास का ध्यान साधना के लिए बड़ा महत्व है। ये अलग बात है कि मैंने बाद में अपने अध्ययन से समझा कि आपके मन की चंचलता के लिए भी आपका पेट भरा होना चाहिए, भूखे रहेंगे तो मन भी शांत हो जाएगा। जैन साधक लंबे लंबे उपवास करता है और कहता है कि इससे ब्रह्मचर्य साधने में आसानी होती है। सच तो ये है कि भूखा शरीर काम वासना के लिए ऊर्जा कहाँ से लाएगा, अब इसे ही लोग ब्रह्मचर्य समझ लेते हैं, एक बार पेट भरा और शरीर स्वस्थ हो फिर साधिए ब्रह्मचर्य तो औक़ात पता चले।

बात शुरू हुई थी खानपान का मन पर प्रभाव से। तो क्या मन पर खानपान का कोई प्रभाव नहीं पड़ता? मुझे लगता है कि ज़रूर पड़ता होगा लेकिन वैसा नहीं जैसा कि शाकाहारी लोग कहते हैं। एक और तरीके से समझते हैं। जब कभी आपका पेट साफ़ नहीं होता तो दिन भर काम में आपका मन नहीं लगता। कब्ज़ एक शारीरिक समस्या है और “मन न लगना” मानसिक लेकिन दोनों में सम्बन्ध दिखाई देता है। इसी तरह किसी तनाव की स्थिति में सेहत खराब बो जाती है, सिरदर्द हो जाता है यहां तक कि हृदयगति रुक जाती है। इससे एक बात तो बिल्कुल साफ हो जाती है कि शारीरिक और मानसिक क्रियाओं में गहरा संबंध तो है।

शाकाहार और मांसाहार के संबंध में जीवन नहीं बल्कि चेतना का स्तर मुख्य आधार है। जीवन प्राणी और पौधा दोनों में है, जीवन मांस और अन्न दोनों में है। लेकिन दोनों की चेतना में अंतर है। चेतना की जो मात्रा एक पशु में है वही एक पौधे में नहीं है। इसी तरह जीवित पौधे में चेतना की मात्रा मृत पौधे से ज़्यादा है। लेकिन ये तमाम अवधारणाएं किसी ठोस वैज्ञानिक अध्ययन पर आधारित नहीं हैं।

मेरे एक मित्र बहराइच के कैशरगंज में रहते थे। वो अपने पेड़ पौधों और पशुओं से हम इंसानों की तरह बातें करते थे और उनके निर्देशों का पालन उनके पशु और पेड़ दोनों करते थे। ये आंखों देखी बातें हैं। अब चेतना के तल को लेकर जो बातें ऊपर की गईं हैं उनमें सत्यता नज़र नहीं आती।

लेकिन भोजन का शरीर पर तो असर दिखाई देता है और मन शरीर की ही एक क्रिया है। ऐसे में मन पर भी भोजन का असर पड़ना तो चाहिए। लेकिन जैसा जैन साधक दावा करते हैं वैसा कुछ दिखाई तो नहीं देता।

ऐसे में सवाल पैदा होता होता कि अहिंसा, हिंसा, दया, करुणा, परस्पर सहयोग आदि मानवीय मूल्य का स्रोत क्या है ? इसका जवाब मुझे छोटे बच्चों के साथ काम करते हुए मिला। एक बच्चा भोजन के रूप में चाव से मांस भी खाता है और जिन पशुओं का मांस खाता है उनके प्रति दया भाव भी रखता है। मैंने महसूस किया किया बच्चे अपने पालन पोषण के क्रम में प्रेम और दया जैसी भावनाएं सीख जाते हैं जिनका भोजन से फिलहाल कोई संबंध दिखाई नहीं देता।

मैंने बच्चों के साथ काम करते हुए ये ज़रूर महसूस किया कि उनकी शिक्षा के क्रम में परिवार और स्कूल उन्हें सभी मानवीय मूल्यों से परिपूर्ण बना सकते हैं। अफसोस कि अभिभावकों की सामान्यतः इस संबंध में कोई समझ नहीं और शिक्षा व्यवस्था मानवीय मूल्य पैदा करने और उन्हें बढ़ाने के बजाय उनकी हत्या करने के लिए बनाई गई है।

अंत में, इतना तो साफ है कि अब तक के अध्ययन ये कत्तई साबित नहीं करते कि शाकाहार या मांसाहार का मानवीय मूल्यों को पैदा करने में, उन्हें बढ़ाने या कम करने में कोई योगदान है। समय और हालात के अनुसार मैंने शाकाहारियों और मांसाहारियों को समान रूप से क्रूर और हिंसक या फिर दयालु पाया है।

आप अपनी भौगोलिक परिस्थितियों, शरीर और जेब की सामर्थ्य के हिसाब से जो खा सकते हैं, खाइए और पूरी कोशिश कर अच्छे इंसान बनिये, शुरू में लिखी गयी उक्ति की सत्यता अब तक प्रमाणित नहीं हुई है।

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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।