अयोध्या से कश्मीर तक ‘लेफ्ट-राइट’                                                                         


पार्टी के अधूरे एजेंडे को पूरा करने की धुन में अनुच्छेद 370 हटाने जैसा अतिवादी कदम उठा लेने वाली मोदी सरकार ने पिछले दो सालों में जम्मू कश्मीर में यही जताया है कि उसके पास आगे की यात्रा का कोई रोडमैप नहीं है। इसके उलट उसे समझ में नहीं आ रहा कि उसने वहां जिस तरह अपने कां फंसा लिया है, उससे किस तरह बाहर निकले। 


कृष्ण प्रताप सिंह कृष्ण प्रताप सिंह
ओप-एड Published On :


भारतीय जनता पार्टी की नरेन्द्र मोदी सरकार ने दो साल पहले पांच अगस्त को अपने निरंकुश संसदीय बहुमत के बल पर किसी को भी विश्वास में लिये बिना संविधान के अनुच्छेद 370 को खत्म करने की सोची तो अपने इस ‘नेक’ काम को निर्विघ्न सम्पन्न कराने के लिए जम्मू कश्मीर के समूचे राजनीतिक नेतृत्व को जेलों में डालकर उसके नागरिकों को सारे देश से काटकर बेंतों, बन्दूकों और बूटों के हवाले कर दिया था। यहां यह बताना तो लगभग गैरजरूरी ही है कि संविधान का उक्त अनुच्छेद जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देता था और सरकार उसको निष्प्रभावी करके ही संतुष्ट नहीं हुई थी। उसने उसका विशेष तो क्या पूर्ण राज्य का दर्जा भी छीन लिया और उसको दो टुकड़े कर दिये थे।

आजादी के बाद इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था कि जिस राज्य के भविष्य के बारे में ऐसा निर्णायक और दूरगामी महत्व का फैसला लिया जा रहा हो, उसकी कोई आवाज ही न रहने दी जाये। कोई पूछे कि सरकार ने ऐसा क्यों किया तो वह कहती कुछ भी क्यों न रही हो, उसके उद्देश्यों का पूरा भाष्य साल भर बाद सामने आया, जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसी तारीख को अयोध्या में भव्य राममन्दिर के निर्माण के लिए भूमि पूजन करने आये ओर रामलला के सामने दंडवत लेट गये।
इस तरह उन्होंने दो सालों में अपनी पार्टी के ‘हिन्दुत्व’ से जुड़े तीन विवादास्पद मुद्दों राममन्दिर, अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता {जिन्हें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाने के लिए अवसरवाद बरतते हुए उसने ठंडे बस्ते में डाल दिया था} में से पहले दो को उनकी अंतिम परिणति तक पहुंचा दिया था। कई लोग तो यह भी कहते हैं कि इसके पीछे उनकी पांच अगस्त को पन्द्रह अगस्त से भी ज्यादा ‘महत्वपूर्ण’ बना देने की योजना थी।  लेकिन उनका दुर्भाग्य कि उसके समान नागरिक संहिता के तीसरे विवादास्पद मुद्दे को उसकी परिणति तक ले जाने से पहले ही पहले दोनों मुद्दे उनकी सरकार के गले की फांस में बदलते दिखाई देने लगे हैं।

राममन्दिर की बात करें तो सरकार द्वारा उसके निर्माण के लिए बनाया गया श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र भूमि की खरीद में भ्रष्टाचार व हेराफेरी के कई गम्भीर आरोपों का सामना करते हुए जिस तरह निरुत्तर है, उससे उसके विरोधियों तक को आश्चर्य हो रहा है। तिस पर उत्तर प्रदेश में भाजपा की कम से कम एक प्रतिद्वंद्वी बहुजन समाज पार्टी, जो उसका हिन्दू कार्ड छीन लेने पर तुली हुई है, उस पर मन्दिर निर्माण में नाहक देरी करने तक के आरोप जड़ रही और वादा कर रही है कि अगले साल के विधानसभा चुनाव में प्रदेश की सत्ता में आई तो तेजी से मन्दिर निर्माण करायेगी।

आगे जो भी हो, लेकिन इससे इतना तो अभी हो गया दिखता है कि मन्दिर निर्माण का श्रेय लेने की भाजपा की अभिलाषा की नैतिक चमक खो गई है, जो शायद ही कभी वापस मिल सके। तिस पर यह कहने वालों की कमी भी नहीं दिखती कि भाजपा विरोधी दलों को उक्त ट्रस्ट के भ्रष्टाचारों का रहस्योद्घाटन करने वाले दस्तावेज उपलब्ध कराने में भाजपाई पांतों के ही ‘हिस्सा न मिलने से असंतुष्ट’ तत्वों का हाथ है।
जहां तक अनुच्छेद 370 के खात्मे की बात है, उसके बाद देश को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देशवासियों को जो सपने दिखाये थे, वे सब के सब सब्जबाग में बदल गये हैं। इसे यों समझ सकते हैं कि प्रधानमंत्री ने अनुच्छेद 370 के खात्मे को ‘ऐतिहासिक’ और ‘नये युग की शुरुआत’ बताते हुए बताते हुए कहा था कि इससे एक ऐसी व्यवस्था, जिसकी वजह से जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के हमारे भाई-बहन अनेक अधिकारों से वंचित थे और जो उनके विकास में बड़ी बाधा थी, अब दूर हो गई है।

उनके शब्द थे, ‘जो सपना सरदार पटेल का था, बाबासाहेब अंबेडकर का था, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का था, अटल जी और करोड़ों देशभक्तों का था, वो अब पूरा हुआ है।…अब व्यवस्था की ये कमी दूर होने से जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के लोगों का वर्तमान तो सुधरेगा ही, उनका भविष्य भी सुरक्षित होगा।…आर्टिकल 370 और 35-ए के इतिहास की बात हो जाने के बाद, उनके नकारात्मक प्रभावों से भी जम्मू-कश्मीर जल्द बाहर निकलेगा।’

उन्हें पूरा विश्वास था कि नई व्यवस्था के तहत आतंकवाद व अलगाववाद से मूक्त धरती का स्वर्ग, हमारा जम्मू-कश्मीर, फिर एक बार विकास की नई ऊंचाइयों को पार करके पूरे विश्व को आकर्षित करने लगेगा। लेकिन उसके दो साल बाद भी ऐसा कुछ होता दिखाई नहीं देता। लोकतंत्र और नागरिक आजादी की दृष्टि से तो धरती का यह स्वर्ग अभी भी पहले से ज्यादा त्रासद नर्क बना हुआ है, उसको निवेशकों का स्वर्ग बनने के सरकारी अरमान भी दम तोड़ गये हैं। शायद इसीलिए राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला पूछते हैं कि इन दो सालों में राज्य में कितना निवेश हुआ तो उन्हें कोई जवाब नहीं मिलता। ठीक है कि चूंकि अनंतकाल तक जेलों में बन्द नहीं रखा जा सकता था, एक-एक करके वहां के नेताओं को रिहा किया जा चुका है और पंचायत चुनावों से ‘उत्साहित’ प्रधानमंत्री ने गत 24 जून को राजनीतिक प्रक्रिया की बहाली के लिए वहां की पार्टियों के साथ बैठककर राज्य की दिल्ली और दिलों से दूरी घटाने की बात कही है।

लेकिन राज्य के सबसे बुजुर्ग नेता फारुख अब्दुल्ला की मानें तो उस बैठक के महीने भर से ज्यादा गुजर जाने के बाद भी बात आगे नहीं बढ़ पाई है। निस्संदेह, इसके पीछे केन्द्र सरकार का वहां के लोगों का विश्वास खो देना ही है। स्वाभाविक ही वहां की पार्टियां अब भी अनुच्छेद 370 की बहाली की मांग कर रही हैं, जबकि केन्द्र सरकार उन्हें पूर्ण राज्य के दर्जे के प्रति भी आश्वस्त नहीं कर पा रही। वह नये सिरे से परिसीमन के बाद विधानसभा के चुनाव तो कराना चाहती है लेकिन वहां की पार्टियों की जनसांख्यिकीय बदलाव की आंशका को सम्बोधित नहीं करना चाहती।

उसके पास इस सवाल का भी जवाब नहीं है कि ऐसे में दिल्ली और दिलों की दूरियां कैसे घटेंगी, जबकि अनुच्छेद 370 हटाते वक्त उसके समर्थकों द्वारा की गई ‘डल झील के किनारे प्लॉट खरीदने’ और ‘कश्मीर में ससुराल बनाने’ जैसी टिप्पणियों से जन्मी बदमजगी अभी बाकी है-गृहमंत्री अमित शाह द्वारा वहां की पार्टियों के गठबंधन को हिकारत से ’गुपकार गैंग’ कहकर उनका मजाक उड़ाने से पैदा हुई ग्रंथि भी।
तिस पर अनुच्छेद 370 के खात्मे से सीमा पार के आतंकवाद पर काबू पा लिये जाने का सरकारी दावा नोटबंदी लागू करते वक्त हांकी गई उसकी कमर तोड़ देने की डींग जैसा हो चला है। इस कारण वहां से विस्थापित कश्मीरी पंडितों की वापसी भी संभव नहीं हो पाई है। इस बीच जम्मू कश्मीर पुलिस की सीआईडी ने 5,362 ऐसे कर्मचारियों की पहचान के बाद,  जिन्होंने हाल ही में अनिवार्य सुरक्षा मंजूरी के बिना सरकारी सेवा में तैनाती पा ली है, पत्थरबाजी या विध्वंसक गतिविधियों में शामिल घाटी के युवकों को पासपोर्ट व सरकारी नौकरी के लिए जरूरी सुरक्षा अनापत्ति पत्र नहीं देने के आदेश से जम्मू क्षेत्र के आवेदकों को बाहर रखकर जो ‘संदेश’ देना चाहा है, वह भी परस्परविश्वास बढ़ाने वाला नहीं ही है।

पार्टी के अधूरे एजेंडे को पूरा करने की धुन में अनुच्छेद 370 हटाने जैसा अतिवादी कदम उठा लेने वाली मोदी सरकार ने पिछले दो सालों में जम्मू कश्मीर में यही जताया है कि उसके पास आगे की यात्रा का कोई रोडमैप नहीं है। इसके उलट उसे समझ में नहीं आ रहा कि उसने वहां जिस तरह अपने कां फंसा लिया है, उससे किस तरह बाहर निकले।

साफ कहें तो राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय दबावों में वह अयोध से लेकर कश्मीर तक ‘कभी एक कदम आगे तो कभी दो कदम पीछे’ की राह पर लेफ्ट-राइट करती दिख रही है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और अयोध्या से प्रकाशित दैनिक जनमोर्चा के संपादक हैं।