दिल्ली दंगे के मामले में एक साल से भी ज्यादा से जेल में बंद तीन छात्रों को जमानत दिए जाने के बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में गया (अखबारों ने यही बताया था)। 17 जून 2021 को इसी कॉलम में मैंने लिखा था, द हिन्दू का शीर्षक है, दंगा मामले में तीन छात्रों (दो लड़कियां हैं) को जमानत के खिलाफ दिल्ली पुलिस सुप्रीम कोर्ट गई। निश्चित रूप से यह बड़ी खबर है। छात्रों और उनमें भी दो लड़कियों के खिलाफ यूएपीए लगाना और हाईकोर्ट की प्रतिकूल टिप्पणियों के बावजूद पुलिस का सुप्रीम कोर्ट जाना असाधारण है। यहां उल्लेखनीय है कि समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट मामले में फैसला 20 मार्च 2019 को सुनाया गया था, उस समय के केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह से “यह पूछे जाने पर कि क्या अभियोजन पक्ष इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करेगा, कहा था नहीं, सरकार को क्यों अपील करना चाहिए? इसका कोई मतलब नहीं है। राजनाथ सिंह ने इस मामले में नए सिरे से जाँच को भी ख़ारिज कर दिया। उन्होंने कहा, “एनआईए ने इस मामले की जाँच की। इसके बाद ही उसने आरोप पत्र दाखिल किया। अब जबकि कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुना दिया है, उस पर भरोसा किया जाना चाहिए।” गौर करने वाली बात है कि आतंकवाद के मामले में (निचली) अदालत के फैसले पर भरोसा करना चाहिए और जमानत के मामले में दिल्ली पुलिस हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई। दरअसल दिल्ली पुलिस नहीं, केंद्र की भाजपा सरकार गई है। पुलिस राज्य के लिए ही काम करती है तथा राज्य का रवैया प्रज्ञा ठाकुर और केशवानंद के मामले में कुछ और होता है तथा नताशा नरवल और देवयानी कलीता के मामले में कुछ और। दिलचस्प यह है कि अखबारों को मौके पर याद नहीं आता है।
आज इस मामले में द हिन्दू की खबर लीड है। उसका शीर्षक है, “छात्र एक्टिविस्ट की जमानत पर हाईकोर्ट के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप करने से इनकार किया”। वैसे तो शीर्षक में लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट ने इनकार किया लेकिन शीर्षक पढ़कर मुझे बचपन में याद आया कि सभी मामले सुप्रीम कोर्ट में दर्ज नहीं कराये जा सकते है। सुप्रीम कोर्ट में जाने वाले मामलों का एक स्तर होता है। लिहाजा इस खबर में मेरी दिलचस्पी हुई और आगे उपशीर्षक है, पर कहा कि 15 जून के आदेश किसी भी मामले में नजीर नहीं माना जाएगा। द हिन्दू अखबार ने इसके साथ दो कोट प्रमुखता से छापे हैं, पहला कोट न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता का है, “मुद्दा महत्वपूर्ण है। इसका प्रभाव देश भर में होगा। यहां इस मामले से कई सवाल संबंधित हैं। हम इसपर पूरे देश की भलाई के लिए फैसला करना चाहते हैं।” दूसरा कोट सोलीसिटर जनरल तुषार मेहता का है, “पूरे यूएपीए को संविधान के साथ उल्टा खड़ा कर दिया गया। हाईकोर्ट के फैसले का उपयोग यूएपीए के तहत गिरफ्तार दूसरों (लोगों) द्वारा किया जा सकता है।” कुल मिलाकर यह हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ टिप्पणी है। लेकिन हमारे देश में अवमानना शायद सुप्रीम कोर्ट की ही होती है।
द टेलीग्राफ में यह खबर तीन कॉलम में दो लाइन के शीर्षक से छपी है। शीर्षक हिन्दी में कुछ इस प्रकार होगा, “छात्र जमानत पर रह सकते हैं, फैसला नजीर नहीं होगा : सुप्रीम कोर्ट।” इसी खबर को हिन्दुस्तान टाइम्स ने पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर लीड बनाया है। इसका शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होगा, “छात्रों की जमानत पर आदेश नजीर नहीं होगी : सुप्रीम कोर्ट।” इसके साथ ही प्रमुखता से बताया गया है कि जमानत पर स्टे नहीं है। अखबार ने इसके साथ यह भी बताया है कि हाईकोर्ट ने क्या कहा था और उपर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा। पहले हाईकोर्ट ने जो कहा था, “हमें यह कहते हुए अफसोस हो रहा है कि सत्ता विरोध को कुचलने की अपनी व्यग्रता में संविधान प्रदत्त विरोध के अधिकार और आंतकवादी गतिविधि के अंतर को बहुत कम कर दिया है।” इसपर सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा बताते हैं, “हाईकोर्ट ने कानून (यूएपीए) के प्रावधानों की जिस ढंग से व्याख्या की है उसकी संभवतः इस अदालत द्वारा समीक्षा की आवश्यकता है।” इससे तो यही लगता है कि अदालत ने कहा है कि समीक्षा की आवश्यकता है। और हिन्दू ने तुषार मेहता का जो कोट छापा है वह आरोप है। इसपर अभी फैसला होना है। ऐसे में आरोपों को इतनी प्रमुखता देकर क्या अदालती कार्रवाई का मीडिया ट्रायल नहीं हो रहा है। खबर या सूचना फैसले के बाद ही होती है। आरोप खबर नहीं हो सकते। पर हमारे यहां मीडिया ट्रायल आरोपों पर ही चलता है। जनहित में इसे रोके जाने की जरूरत है। आज तो लग रहा है कि न्यायप्रक्रिया के हित में भी इसे रोका जाना चाहिए।
मैं ऐसा टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस के शीर्षक के आलोक में कह रहा हूं। दोनों में आज एक जैसे शीर्षक हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया में आज यह खबर लीड है तुषार मेहता की फोटो के साथ उनका आरोप भी प्रमुखता से है। पहले मुख्य शीर्षक, हाईकोर्ट का जमानत आदेश चौंकाने वाला है, नजीर के रूप में उल्लेख नहीं किया जा सकता है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस शीर्षक या तथ्य को इतनी प्रमुखता देने की जरूरत तब थी जब लोग नजीर मान रहे होते और साधारण मामलों में, पत्रकारों और कार्टूनिस्ट के मामले में फैसले के बाद राजद्रोह के मामले दर्ज होना बंद हो जाते। या कोई विशिष्ट आदेश होता कि ऐसी एफआईआर नहीं लिखी जाएगी या इस स्तर की जांच के बाद ही लिखी जाएगी, जैसा विनोद दुआ के मामले में मांग की गई थी। लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया ने पहली नजर में की गई एक टिप्पणी को लीड का शीर्षक बनाकर सबको डरा दिया है।
तुषार मेहता का कोट इस प्रकार है, विरोध के अधिकार में आतंकवादी गतिविधि में लिप्त होना शामिल नहीं है। दिल्ली दंगे में बहुत सारे लोग मरे। अगर हम हाईकोर्ट की व्याख्या को मानें तो लोगों पर घातक हमला करने वाला यूएपीए के तहत आरोपित नहीं किया जा सकता है क्योंकि उसे आईपीसी की धारा 102 के तहत आरोपित किया जा सकता है। मुझे लगता है कि कोई मामला यूएपीए का है कि नहीं यह तय करना अदालत का काम है और एफआईआर में यूएपीए लगा देने भर से जमानत नहीं मिलना गलत है। वैसे तो यह मेरा विषय नहीं है पर सॉलीसिटर जनरल जो कह रहे हैं उसी से साफ है कि दंगे के मामले में आतंकवाद का कानून लगाया गया है। जो भी हो, यह विचार है और इसपर फैसला होना है। इससे सहमति अनिवार्य नहीं है और यह पूरी सुनवाई का मीडिया ट्रायल बन गया है। इसी तरह, सुप्रीम कोर्ट के हवाले से जो कहा गया है वह राय है। हाईकोर्ट के फैसले पर राय है कि यूएपीए की व्याख्या कर दी गई है जबकि यह विषय नहीं था। पर जमानत देने के लिए जो आधार बनाया गया वह निश्चत रूप से सही था और तभी जमानत पर स्टे नहीं दिया गया और निचली अदालत से अगर इतने समय तक जमानत नहीं मिली तो यह चिन्ता का कारण होना चाहिए पर खबरों में उसपर चिन्ता नहीं दिख रही है।
इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक टाइम्स ऑफ इंडिया जैसा है। यहां फ्लैग शीर्षक है, जमानत के खिलाफ अपील पर नोटिस (या बाकी के चार अखबारों में प्रमुखता से नहीं है)। मुख्य शीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट ने कहा, दिल्ली हाईकोर्ट का आदेश चौंकाने वाला, यूएपीए की व्याख्या पर विचार करने की जरूरत। मुझे लगता है कि यूएपीए के उपयोग और दुरुपयोग के मद्देनजर इसकी जरूरत पर भी विचार किया जाना चाहिए। पर यह सब खबरों में नहीं है। और जब (अपनी समझ से) जनहित की बात करने वालों पर अदालतें जुर्माना लगाती रही हैं तो इस मामले में पुनर्विचार की जरूरत संबंधी याचिका दायर की जा सकती है कि नहीं, मैं वह सोच भी नहीं सकता। कौन जोखिम लेने जाए। पर अखबार पूरी खबर नहीं देते हैं। दिलचस्प यह है कि टेलीविजन की तरह यहां “ब्रेंकिंग” की जरूरत नहीं है फिर भी यहां जरूरत बताने वाली खबर लीड बन जाती है और यही शीर्षक भी है। मुझे लगता है कि इससे अदालतों और न्याय प्रक्रिया की छवि चाहे खराब न हो रही हो अच्छी और निष्पक्ष की तो नहीं बन रही है। जैसा कहा जाता है, न्याय होना ही नहीं चाहिए, होता हुआ दिखना भी चाहिए। अदालतों में जो हो रहा है उसे क्या अखबार सही ढंग से दिखा रहे हैं या दिखा पा रहे हैं। खासकर तब जब ऑनलाइन चर्चा देखना संभव है। ऐसे में आम लोगों के लिए सिर्फ फैसला छापने का नियम क्यों नहीं बनाया जाए?
आज अखबारों में अदालतों के फैसले और वहां जो सब चल रहा है उसपर कई अन्य खबरें हैं। एक तो इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर भी है। पश्चिम बंगाल में जज पर भाजपा का सदस्य होने का आरोप और इसका फूहड़ बचाव, ममता बनर्जी द्वारा मामले को किसी और पीठ में स्थानांतरित करने की मांग, एक जज का पश्चिम बंगाल में चुनाव बाद की हिंसा मामले से अलग हो जाना, नारदा स्टिंग मामले पर सुनवाई टालने का सुप्रीम कोर्ट का हाईकोर्ट से ‘आग्रह’ ऐसी खबरें हैं जिनपर चर्चा होनी चाहिए और प्रमुखता मिलनी चाहिए। आप समझ सकते हैं कि तीन छात्रों को जमानत मिलने का मामला तो पहले पन्ने पर लीड बनता है पर बाकी खबरें नहीं छपती हैं या अंदर छपती हैं। एक्सप्रेस ने भी नंदीग्राम वाली खबर को पहले पन्ने पर छापा है लेकिन बाकी खबरें रह गईं जबकि छात्रों को जमानत मिलना मुद्दा बना हुआ है। कहा जा सकता है कि, मामले ज्यादा हों तो अखबार क्या करें?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।