लाल बहादुर वर्मा यानी हमारे ‘वर्मा जी’ जिससे भी मिलते उसे एक टास्क दे देते थे। उनके जाने के बाद ऐसा लग रहा है जैसे वे हमें उनसे जुड़ने उनके बारे में कहने का टास्क दे कर गए हैं। उनसे जुड़े हम सब बहुत सारे लोग परसों से ही एक दूसरे से कह रहे हैं “कहो” “लिखो”- यह कहते सुनते हुए मुझे तो कई बार ऐसा भी लगा कि अभी वर्मा जी ही बोल पड़ेंगे “लिखा?” 17 की शाम हुई ज़ूम श्रद्धांजलि सभा में बार बार लगता रहा, अभी वर्मा जी भी बोलेंगे। ‘वे नहीं हैं’ ये बात पच ही नहीं रही। इसीलिए उनको याद करना और उसे लिखना भी उनका दिया हुआ एक टास्क ही लग रहा है। हमारे जैसे बहुत सारे लोगों के लिए तो उनके बारे में लिखना दरअसल अपने बारे में लिखना भी है। क्योंकि वर्मा जी के ही शब्दों में ‘इंसान दो बार जन्म लेता है, एक बार उसके जन्म पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता, दूसरी बार वो सचेत रूप से जन्मता है, जब उसकी चेतना विकसित होती है।’ मेरे लिए वर्मा जी के बारे में बात करना दरअसल अपने दूसरे जन्म के बारे में बात करना है।
वर्मा जी से से मिलने के पहले मैंने उनका नाम काफी सुन लिया था। मेरे घर और विस्तारित घर में वर्मा जी बदनाम थे, क्योंकि उन्होंने न सिर्फ मेरे भाई मनीष को बल्कि मेरे चचेरे, मौसेरे, फुफेरे भाईयों को भी “बिगाड़” दिया था। बिगड़ जाने के बाद वे सब एक झुग्गी -बस्ती में पढ़ाने जाने लगे थे, देश दुनिया की बातें करने लगे थे, अपना कैरियर बनाने की बजाय वे सब समाज बदलने की बात करने लगे थे। मेरे बिगड़े हुए भाइयों के पिता और मां अक्सर वर्मा जी को कोसते रहते थे। मुझे क्या लगता था याद नहीं है ठीक से, लेकिन ये अच्छा लगता था कि वर्मा जी की संगत में “बिगड़ जाने” के बाद उन सभी भाइयों ने मुझसे अच्छी दोस्ती कर ली थी। उनकी बातों में मेरी भी रुचि जागने लगी थी। मनीष मुझे कभी कभी बाहर घुमाने भी लेे जाने लगे थे, जो कि मेरे सामंती घर के लिए बड़ी बात थी। वो मुझे वर्मा जी से मिलवाना भी चाहता था, पर मेरी कोई इच्छा थी ऐसा याद नहीं आता।
लेकिन किसी एक दिन जाने कैसे मैं उनके ड्राइंग रूम में थी और बहुत संकोच से भरी हुई चुपचाप बैठी थी। अब उस दिन को दूर से देख रही हूं तो ये पक्के तौर पर कह सकती हूं कि वर्मा जी हर अदने से व्यक्ति को भी उसकी अहमियत का इतना एहसास करा देते थे, कि वो खुद आश्चर्य से भर जाय। उस दिन भी उन्होंने मेरे साथ यही किया था। मैं उनसे मिलकर लौटी तो बहुत कुछ था मेरे अंदर, सबसे ज्यादा ये एहसास, कि ‘मैं भी कुछ हूं।’ उसके बाद तो जब भी वर्मा जी से मिलती मुझे अपनी अहमियत का एहसास उतना ज्यादा होता जाता। हर बार मिलने पर वे बात की शुरुआत ही इस तारीफ से करते “तुम हर समय इतनी फ्रेश कैसे दिखती हो, ऊर्जा से भरी, कभी थकती नहीं हो तुम?” मैं शर्मा जाती थी, कई बार तो वो सभा में उपस्थित किसी भी व्यक्ति से इसकी हामी भी भरवाने लगते थे। मैं बुरी तरह झेप जाती और संजीव की कहानी “प्रेरणाश्रोत” की नायिका की तरह अगली बार और स्फूर्ति के साथ उनके सामने हाजिर होती। मैं मनोविज्ञान की छात्रा थी, मेरे विषय की प्रासंगिकता पर वो गंभीरता से बात करते। उस समय उनकी कुछ बातें मुझे समझ में नहीं आती, जो समझ में आती उससे कई बार सहमत नहीं होती थी, बल्कि अंदर अंदर ये सोचती रहती कि “ये मुझे भी मनीष की तरह जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।” यही वजह है कि “मार्क्सवाद क्या है” ये जानने के लिए मैंने उन्हें नहीं, अपने मनोविज्ञान के शिक्षक रघु सर को चुना था। In मुझे डर था कि वर्मा जी बताएंगे तो मुझे मनीष की तरह संगठन से जोड़ भी लेंगे।
उनके यहां होने वाले गीत- संगीत – कविता पाठ के कार्यक्रमों ने दूसरे कई लोगों की तरह मुझ पर भी काफी असर डाला। उनके द्वारा आयोजित इन उत्सवों माध्यम से ये जो नई दुनिया मेरे सामने खुल रही थी, उसने मेरी दुनिया के घुटन का एहसास गहरा कर दिया। आज जब भी कोई मेरे लिखे की तारीफ करता है, मुझे याद आता है, (और कई लोगों से बता भी चुकी हूं) कि सबसे पहले वर्मा जी ने ही मुझे लिखने के लिए कहा। उन्हें इतिहासबोध का “आज़ादी” अंक निकलना था। उन्होंने मेरे जैसे सभी नौसिखुआ लोगों को ये टास्क दिया कि 15 अगस्त को उन्हें अपनी आज़ादी की ओर एक कदम बढ़ाना है, और फिर उसके बारे में लिखना है। मैं उस दिन घर का नियम तोड़ छुट्टी होने के बावजूद बाहर गई और नियम के मुताबिक 4 की बजाय 5 बजे घर पहुंची। मैंने इस बारे में लिखा “उस दिन मैंने जंजीर तोड़ी” और वर्मा जी ने कई लोगों के लिखे में मेरे लिखे को चुनकर इतिहास बोध में छापा, आगे भी लिखते रहने के लिए खूब प्रोत्साहित किया। मुझे पहली बार पता चला कि “अच्छा, मैं लिख भी सकती हूं?”
उस समय मेरी खगोलविज्ञान में भी नई नई रुचि जागी थी, और एक शौकिया खगोलशास्त्री रुचिन से दोस्ती भी हो गई थी। मैं, रुचिन और मेरा छोटा भाई सीमांत हर समय चांद तारों की ही बातें करते और पढ़ते रहते थे, इसके लिए संगठन के लोगों के बीच मज़ाक का पात्र भी बनते थे। साइंस बैकग्राउंड न होने के कारण तारों और ब्रह्मांड की भौतिकी की बातें मुझे ही सबसे कम समझ में आती थीं, लेकिन वर्मा जी मुझसे इस बारे में खूब बातें किया करते थे, और मुझसे खूब सारे सवाल पूछते रहते थे, जवाब देने के लिए मैं और समझने की कोशिश करती थी। उन्होंने मेरी इस नई रुचि का सामाजिक दर्शन एक छोटे से वाक्य में मुझे दे दिया था ” ब्रह्माण्ड को जानने के क्रम में ही इंसान को अपनी औकात का पता चलता है, दोनों अर्थों में औकात – एक तो ये कि इतने बड़े ब्रह्माण्ड में उसकी उपस्थिति शून्य जैसी है, और दूसरे अर्थ में ये, कि इस छोटे से इंसान की इतनी क्षमता है कि वो पूरे ब्रह्मांड के रहस्य पर से पर्दा उठा रहा है।” उनकी इस बात ने उस समय मुझे “यूरेका” वाली फीलिंग दी थी। मेरी रुचि इसमें इतना बढ़ गई कि मुझे लगा ‘एक जीवन कितना कम है इस दुनिया को जानने के लिए, काश दो तीन जीवन मिल जाय।’
जीवन में बहते जाने की बजाय उसके एक एक पल को रुक कर जीने का दर्शन वर्मा जी सभी को देते रहे, खुद भी पूरा जीवन इसी दर्शन पर कायम रहे।
शायद इसीलिए ‘वर्मा जी नहीं रहे’, यह सुनना अजीब सा लग रहा है। दरअसल उन्होंने जीवन का तरीका बदल दिया है, वे अब अपने शरीर में नहीं, अपने सभी दोस्तों के अंदर थोड़ा-थोड़ा मिल रहे हैं। इसलिए इस वक्त वर्मा जी को जानने वाले सभी लोगों से मिल कर बतियाने का खूब मन हो रहा है।
वर्मा जी से मिलने के समय मैंने मन में तय किया था कि, “मिलेंगे, लेकिन उनके प्रभाव में बिल्कुल नहीं आएंगे।” लेकिन वे अपनी पूरी टीम के साथ मुझे धीरे धीरे कब प्रभावित कर ले गए, मुझे पता भी नहीं चला। वर्मा जी मुझे अपने और बहुतों के जीवन के लिए उस फोर्स की तरह लगते हैं, जो किसी ठहरे हुए गोले में गति शुरू के लिए जरूरी होता है। हर नौजवान के अंदर एक आदर्शवाद होता ही है और वो एक उम्र में इस द्वंद से जूझता ही जूझता है कि उसे क्या करना चाहिए। आदर्शवाद उसे जीवन गति की ओर आगे बढ़ने को कहता है, दुनिया उसे बंधे बंधाए ढर्रे पर बने रहने को बोलती है। ठीक इस समय जो भी नौजवान वर्मा जी के संपर्क में आ गया, उसका द्वंद लीक तोड़ने के पक्ष में सैटल हो जाता है। मेरा भी हो गया। आखिर उन्होंने कई दूसरे लोगों (आयशा, अमिता, मनीष, अंशु मालवीय और दिगंबर) के साथ मिलकर मुझे प्रभावित कर ही लिया।
घर के जेल से दूर जाने के लिए जब मैंने लखनऊ में एक बेकार सी नौकरी चुन ली थी, जिसमें मेरा पूरी दुनिया से नाता ही टूट जाता, तो वर्मा जी की बात मेरे लिए निर्णायक बनी थी। उन्होंने कहा “तुम भाग रही हो।” और अंत में कहा “कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तबीयत से तो उछालो।” उसके बाद मैंने लखनऊ जाने का इरादा छोड़ दिया। बाद में वर्मा जी फरीदाबाद चले गए। बना बनाया शहर छोड़ना आसान नहीं होता, लेकिन वर्मा जी को जीवन में स्थायित्व पसंद ही नहीं था, वे नदी की तरह हमेशा बहना पसंद करते थे, पत्थर की तरह ठहरना नहीं। वे शहर ही नहीं प्रदेश बदलते रहे। बाद में लौट कर इलाहाबाद आए तो हम सब जैसे हरिया गए।
वर्मा जी हमेशा दोस्ती बनाने का टास्क देते रहे। इस बारे में वे कहते थे ‘दोस्त वो है जो आपकी कमियां भी बताए।’ वे हम सबसे अपनी कमियां भी पूछा करते थे, तो वर्मा जी के बारे में बात बिना उनकी कमियाँ बताये पूरी नहीं हो सकती। वर्मा जी हम सबके मन के द्वंद को सैटल करने में हल्का धक्का तो लगा देते थे, लेकिन यदि कोई इस गति के संगीत में बहते हुए आगे बढ़ जाय और दुनिया बदलने में पूरी तरह जुट जाय, यानि राजनीतिक कार्यकर्ता बन जाय, तो उन्हें अच्छा नहीं लगता था, बेशक वे बहुत खुलकर इसे नहीं कहते थे लेकिन इसके बाद न चाहते हुए भी उनसे दूर होने लगते थे। फिर दोस्ती बनाए रखने की पहल खुद की ओर से ही करनी होती थी। हममें से बहुतों के साथ ऐसा हुआ। राजनीतिक कर्मी से ज्यादा उन्हें संस्कृति कर्मी पसंद थे। सिद्धांत में वे दोनों को एक दूसरे का पूरक मानते थे, लेकिन व्यवहार में राजनीतिक संगठनों ही नहीं, राजनीतिक व्यक्तियों को भी कम महत्व देते थे। उनके साथ शायद ऐसा इसलिए भी था, क्योंकि उन्होंने अपने वामपंथी धड़े में बहुत सारी तोड-फोड़ देखी थी, जिसमें लोगों का व्यवहार भी काफी संकीर्ण और बुरा रहा, उनका व्यक्तिगत जीवन भी इससे काफी प्रभावित हुआ।
वे जब इलाहाबाद लौट कर आए, उसके बाद मैं बाहर चली गई थी। 2004 में मैं वर्मा जी को “मुंबई रेजिस्टेंस” कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आमंत्रित करने गई। उन्होंने यह प्रस्ताव नहीं माना और WSF में जाना तय किया। लेकिन हम इलाहाबाद से मुंबई साथ गए, साथ में ललित जोशी भी थे, जिनका दोनों कार्यक्रमों में कोई रुचि नहीं थी, वे वर्मा जी के कहने पर जा रहे थे। दोनों कार्यक्रम सड़क की दोनों पटरियों पर होने की सहूलियत के कारण मैं दोनों कार्यक्रमों में गई, लेकिन वर्मा जी “मुंबई रेजिस्टेंस” को देखने भी नहीं आए। लेकिन उनके साथ मुंबई तक का ट्रेन सफ़र क्या खूब रहा।
इसके बाद मेरे जेल जाने के साथ साथ बहुत कुछ हुआ, बीता।
2012 में जेल से बाहर आने के बाद हमारी दोस्ती तब फिर से बढ़ने लगी, जब एक दिन उन्होंने ज्ञानोदय में मेरी कहानी “बंटवारा” पढ़ कर मुझे फोन किया। फोन के उस पार वो काफी भावुक होकर कहानी की तारीफ कर रहे थे। वर्मा जी से तारीफ सुनकर मैं फिर से सातवें आसमान पर थी। उसके बाद उन्होंने पल प्रतिपल में “आपदा” कहानी पढ़कर फिर से फोन किया और कहा “अच्छा इंसान ही ऐसी कहानी लिख सकता है।” इसके बाद तो मेरी कहानी के पहले श्रोता वे ही होने लगे। विश्वविजय उन्हें चिढ़ाता “फंस गए हैं आप”। इसे लेकर खूब हंसी मज़ाक होता, कहीं किसी सार्वजनिक समारोह में मैं उनसे धीरे से कहती, “बैग में एक नई कहानी है” और वे “भागो” कह कर ठठाकर हंस पड़ते। इलाहाबाद से जाने तक वे मेरी कहानी के पहले पाठक और सुझावदाता रहे। मेरी पहली जेल डायरी के शुरुआती पाठक रहे और कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए। इसका blurb भी लिखा उन्होंने। हमारे जेल संस्मरण सुनते हुए उन्होंने एक बार कहा था, “मेरा जेल जाने का डर नहीं गया कभी, इमरजेंसी के समय में जेल जाते जाते बच गया, चला गया होता तो ये डर भी खत्म हो जाता।”
वर्मा जी के इलाहाबाद से फिर से चले जाने के बाद भी जब हम उस गली से गुजरते तो उसमें झांक लिया करते और कल्पना में वर्मा जी सड़क पर टहलते हुए मिल जाते। उन्हें फोन पर मैंने बताया कि उस गली में देखने पर मुझे वो गाना याद आता है “जिस गली में तेरा घर न हो बालमा, उस गली से हमें अब गुजरना नहीं” वर्मा जी जोर से हंसने लगे। लेकिन जिस दिन ये खबर मिली कि वे हमें छोड़ गए, उस दिन उसी गली में जाकर वर्मा जी को याद करने का मन हो आया। वे वहीं मिले आंटी के साथ बाहर कुर्सी पर बैठे, चश्मा सिर पर चढ़ाए। मेरी अम्मा उन्हें इसी रूप में याद करती हैं ‘सिर पर चश्मा चढ़ाए’, फिर हंस पड़ती हैं। 17 मई को अम्मा ने भी उन्हें याद करते हुए पापा से कहा “सभै मरथ, लेकिन ओ जौन काम करत रहेन, उनके ढेर जने याद करिहिं, देखा कल पेपर में निकले।” अगले दिन पेपर में खूब ध्यान से उनके बारे में पढ़ा। शुरुआती दिनों में एक बार वर्मा जी और आंटी हमारे घर सोलर कुकर में बना खाना खाने आए थे। उस दिन उन्होंने आंटी के साथ बॉल डांस भी किया। हम सब के लिए ये कौतूहल वाला दृश्य था।
हम सभी की तरह वर्मा जी को भी अपनी प्रशंसा सुनना पसंद था, लेकिन उनका जो सामाजिक कद था, उसके कारण कई बार ये प्रशंसा चापलूसी में भी बदल जाती थी, और बाद के दिनों में अक्सर उनका ड्राइंग रूम चापलूसों से भी भरा रहता था। उनकी खुद की भी ये कमजोरी रही कि वे किसी बात या किसी व्यक्ति की अतिशय प्रशंसा करने लगते। और ये प्रशंसा व्यक्तिगत रूप से उसे प्रोत्साहित करने से आगे बढ़ कर उसके बारे में सार्वजनिक सकारात्मक मत बनाने में लग जाते, जिसका वह व्यक्ति पात्र नहीं होता। अपनी आत्मकथा में भी उन्होंने ये गलती की है। अपने जीवन में तो करते ही रहे। “एक को दो में बांट कर देखो का फार्मूला वे नहीं लागू करते थे।
उनकी आत्मकथा के दूसरे भाग पर मैंने आलोचना में ये कहा था और ये भी पूछा था, कि आपने अपने जेल जाने वाले बहुत से दोस्तों को नजरंदाज किया है, उनकी ओर ओर आपका ध्यान क्यों नहीं गया, ये ‘डी सिलेक्शन’ क्यों हुआ?” उन्होंने कहा था “इलाहाबाद आऊंगा तो बात होगी।” लेकिन अफसोस वो कभी नहीं हो सका।
वर्मा जी की दूसरी आलोचना थी कि मार्क्सवादी दर्शन के लिए उन्होंने हमें बताया था कि ये वो वैज्ञानिक दर्शन है, जिससे दुनिया की सभी चीजों को समझा जा सकता है। बाद में वे कहने लगे थे कि वे किसी “वाद” के विवाद में नहीं पड़ते, मार्क्सवाद में भी वे अविश्वास जताने लगे थे। उनकी बातों में, भाषणों में ये दिखने लगा था, इस ओर ध्यान दिलाने पर वे खीजते भी थे। हमने इस पर उनसे बात करना बंद ही कर दिया था। फिर भी उनसे मिलना हमेशा अच्छा लगता।
ये पढ़ते हुए जिन्हें भी लग रहा है कि इस समय मैं उनकी आलोचना लिख रही हूं, उनसे मैं कहना चाहती हूं वर्मा की जी ने यही हमें सिखाया है कि किसी के बारे में बात करते हुए उसके अच्छे और बुरे दोनों पहलुओं पर बात करो। वे भगत सिंह तक पर बात करते हुए कहते थे, “उसे भगवान नहीं दोस्त बनाओ, तमाम अच्छाइयों और बुराइयों के साथ वो भी इंसान था, और उसे इंसान के रूप में ही याद करो।”
हम अपने वर्मा जी को उनके बताए तरीके से ही याद करना और याद रखना चाहते हैं। उनकी खूबियों और कमियों के साथ। हमें जीवन का उद्देश्य देने वाले, हमें हमसे मिलवाने वाले वर्मा जी को लाल सलाम।
सीमा आज़ाद, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। इलाहाबाद में रहती हैं।