इस समय भारत कोरोना महामारी के सबसे विकट दौर से गुजर रहा है. संक्रमण तेजी से बढ़ रहा है और मौतें भी. हर चीज की कमी है – अस्पतालों में बिस्तरों की, दवाईयों की, आक्सीजन की, जांच सुविधाओं की और वैक्सीनों की. इस रोग से ग्रस्त लोगों और उनके परिवारों के लिए यह एक बहुत बड़ी आपदा है. देश देख रहा है कि योजनाएं बनाने में दूरदृष्टि के अभाव और संसाधनों के कुप्रबंधन के कितने त्रासद परिणाम हो सकते हैं. ज्योंही सरकार की निंदा शुरू होती है, सारा दोष ‘व्यवस्था‘ पर लाद दिया जाता है. दोष श्री मोदी का नहीं है, समस्याओं के लिए वे जिम्मेदार नहीं हैं – सारा दोष ‘व्यवस्था‘ का है.
हमारे शासकों में वैज्ञानिक सोच और समझ की भारी कमी है. यही कारण है कि हमारे शीर्ष नेता ने यह दावा किया था कि हम 21 दिन में महामारी पर विजय प्राप्त कर लेंगे. कुछ नेताओं ने श्रद्धालुओं से अपील की वे बड़ी संख्या में कुंभ में आकर पुण्य लूटें. कुछ अन्य ने मास्क जेब में रखकर बड़ी-बड़ी चुनावी सभाओं को संबोधित किया. इन सभाओं में श्रोताओं के बीच दो गज तो क्या दो इंच की दूरी भी नहीं रहती थी. कम से कम दो उच्च न्यायालयों ने देश में कोविड के फैलाव के लिए चुनाव आयोग को दोषी ठहराया है.
इसके साथ ही हमारे सामने कोरोना योद्धाओं की कड़ी मेहनत और समर्पण के उदाहरण भी हैं. इस संकटकाल में हिन्दू और मुसलमान जिस तरह एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं उससे हमारे देश के मूलभूत मूल्य सामने आए हैं.
जिन मुसलमानों को इस रोग को फैलाने का जिम्मेदार ठहराया गया था वे ही अब आगे बढ़कर परेशानहाल लोगों की मदद कर रहे हैं और उनके दर्द में साझेदार बन रहे हैं. हमारे शासक चाहे अपनी पीठ कितनी ही क्यों न थपथपा लें इतिहास में उनकी भूलें दर्ज हो चुकी हैं. हमारे देश की बुरी हालत को पूरी दुनिया अवाक होकर देख रही है.
हमारे देश में आक्सीजन तक नहीं है. हां, हम अरबों रूपये गगनचुंबी मूर्तियों, सेन्ट्रल विस्टा, बुलैट ट्रेन और राम मंदिर पर खर्च कर रहे हैं. हमारे देश के शासकों को केरल से सबक लेना चाहिए जिसने व्यर्थ की परियोजनाओं में पैसा फूंकने की बजाए आक्सीजन संयत्रों में निवेश किया और नतीजे में आज न केवल राज्य में आक्सीजन की कोई कमी नहीं है वरन् वह पड़ोसी राज्यों को भी यह जीवनदायिनी गैस उपलब्ध करा रहा है.
मार्च 2020 में मरकज निजामुद्दीन में आयोजित तबलीगी जमात की अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस के बहाने मुसलमानों का जमकर दानवीकरण किया गया था. भारत की साम्प्रदायिक ताकतों को मुसलमानों के खिलाफ नफरत पैदा करने के लिए मौके की तलाश रहती है. उन्हें सैकड़ों साल पहले के मुस्लिम बादशाहों के कर्मों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है; अंतर्राष्ट्रीय आतंकी गिरोहों से उनके संबंध जोड़े जाते हैं; उन्हें ढ़ेर सारे बच्चे पैदा कर देश की आबादी को बढ़ाने का दोषी ठहराया जाता है; उन्हें लव जिहाद और गौमांस खाने के लिए कठघरे में खड़ा किया जाता है. जाहिर है कि इस माहौल में तबलीगी जमात का आयोजन, साम्प्रदायिक संगठनों और पूर्वाग्रह ग्रस्त मीडिया के लिए एक सुनहरा मौका था.
इस रोग के फैलने के अन्य सभी कारणों को नजरअंदाज करते हुए उसके लिए सिर्फ तबलीगी जमात के आयोजन को दोषी ठहराया गया. ऐसा बताया गया कि मरकज का आयोजन ही इसलिए किया गया था ताकि भारत में कोरोना फैलाया जा सके. ‘नमस्ते ट्रंप’ और कनिका कपूर की यात्रा को कोरोना से नहीं जोड़ा गया. यह हमारा दुर्भाग्य है कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सरकार का भोंपू बन गया है.
कुछ ‘प्रतिभाशाली’ पत्रकारों ने कोरोना जिहाद और कोरोना बम जैसे शब्द ईजाद किए. जल्दी ही कई अन्य प्रकार के जिहाद भी सामने आए. ऐसा लगने लगा मानो इस देश के मुसलमानों के पास जिहाद करने के अलावा और कोई काम है ही नहीं. सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म ने मुसलमानों को बलि का बकरा बनाए जाने पर एक रिपोर्ट जारी की. इसका शीर्षक था ‘द कोविड पेन्डेमिक: ए रिपोर्ट आन द स्केप गोटिंग ऑफ़ मुस्लिम्स इन इंडिया’.
इस रपट में उन विभिन्न प्रकार के जिहादों की चर्चा की गई है जिनके नाम पर मुसलमानों को कठघरे में खड़ा किया जाता है. इनमें शामिल हैं 1. आर्थिक जिहाद, अर्थात व्यापार और व्यवसाय के जरिए धार्मिक ध्रुवीकरण बढ़ाना, 2. इतिहास जिहाद, अर्थात इतिहास को इस प्रकार तोड़ना-मरोड़ना जिससे इस्लाम का महिमामंडन हो, 3. फिल्म और गीत जिहाद, अर्थात फिल्मों के जरिए मुगलों और माफिया का महिमामंडन करना व फिल्मी गीतों के जरिए इस्लामिक संस्कृति को बढ़ावा देना, 4. धर्मनिरपेक्षता जिहाद, अर्थात वामपंथियों, साम्यवादियों और उदारवादियों को मुसलमानों के पाले में लाना, 5. आबादी जिहाद, अर्थात चार महिलाओं से शादी करना और अनगिनत बच्चे पैदा करना, 6. भूमि जिहाद, अर्थात जमीन पर कब्जा कर बड़ी-बड़ी मस्जिदें, मदरसे और कब्रिस्तान बनाना, 7. शिक्षा जिहाद, अर्थात मदरसे स्थापित करना और अरबी भाषा को प्रोत्साहन देना, 8. बेचारगी जिहाद, अर्थात अपने आप को बेचारा बताकर आरक्षण और अन्य सुविधाएं मांगना एवं 9. प्रत्यक्ष जिहाद, अर्थात गैर-मुसलमानों पर हथियारबंद हमले.
रपट में फेक न्यूज के अनेक उदाहरण दिए गए हैं. इनमें शामिल हैं ये खबरें कि मुसलमान जगह-जगह थूककर और खाने के बर्तन चाटकर यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि कोरोना का वायरस ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे. मीडिया के दोहरे मानदंड मुसलमानों और हिन्दू / सिक्खों के लिए प्रयुक्त अलग-अलग भाषा से ही जाहिर हैं. उदाहरण के लिए जी न्यूज की एक खबर का शीर्षक था, ‘आठ मस्जिदों में 113 लोग छिपे हुए हैं’. हिन्दुस्तान टाईम्स की एक खबर का शीर्षक था ‘कोविड-19: दिल्ली में छुपे 600 विदेशी तबलीगी जमात कार्यकर्ता पकड़े गए’. इसके विपरीत, दो सौ सिक्ख दिल्ली के मजनूं का टीला गुरूद्वारे में ‘फंसे’ हुए थे. इसी तरह अचानक लॉकडाउन लगा दिए जाने से 400 तीर्थयात्री वैष्णोदेवी में ‘फंस‘ गए थे. अर्थात, जहां हिन्दू और सिक्ख ‘फंसे’ थे वहीं मुसलमान ‘छिपे’ थे.
भाजपा के आईटी सेल के अमित मालवीय ने ‘कट्टरपंथी तबलीगी जमात’ की मरकज में गैरकानूनी बैठक की बात कही. गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी भी तबलीगी जमात को कोविड के फैलाव के लिए जिम्मेदार बताते हैं.
अल्पसंख्यकों के बारे में ये झूठी बातें मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए इतनी बार दुहराई जाती हैं कि लोगों को वो सच लगने लगती हैं.
हमें कोरोना से मुक्त होना है. साथ ही हमें धार्मिक पूर्वाग्रह के वायरस से भी मुक्त होना होगा. सोशल मीडिया और मीडिया में अल्पसंख्यकों के विरूद्ध दुष्प्रचार को हमें रोकना ही होगा. कोरोना के मामले में जिस तरह के झूठ बोले गए और जिस तरह एक समुदाय को दोषी ठहराया गया, उससे हमारी आंखे खुल जानी चाहिए. हमें यह समझना चाहिए कि कुंभ, चुनाव रैलियां और हमारी सरकारों का निकम्मापन कोरोना संकट के लिए जिम्मेदार हैं.
लेखक राम पुनियानी, आईआईटी के पूर्व प्रोफेसर हैं और मानवाधिकार-सौहार्द कार्यकर्ता-लेखक के तौर पर सक्रिय हैं।
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)