आजकल हो रहे सरकारी आयोजनों में कुछेक संस्कृत शब्द समूहों की भीषण बमबारी सुनने को मिलती है। धाराप्रवाह बोलने वाले राष्ट्रवादी वक्ताओं के मुंह के किनारों से थूक निकल रहा होता है, यह बताते हुए कि हमारी सभ्यता कितनी महान है। किस तरह हम हर दृष्टि से दुनिया में बाकी सबसे ऊंचे हैं। और कौन से थोड़े-बहुत बचे हुए काम संपन्न कर लेने के बाद हम फिर से विश्वगुरु बन सकते हैं, जो कि एक समय हम थे ही। ऐसे लोग मैक्सम्यूलर से लेकर तमाम पश्चिमी भारतविदों पर कीचड़ पोतते हैं। यह कहकर कि प्राचीन भारतीय सभ्यता की सारी उपलब्धियां चुराकर पश्चिमी सभ्यता को इतनी समृद्ध बना देने के लिए ये लोग ही जिम्मेदार हैं।
इस तरह की ऊल-जलूल बातें सुनने का आदी मैं बहुत पहले से रहा हूं, लेकिन हाल के एक लंबे विमर्श के दौरान पानी सिर से गुजर जाने के बाद कुछ बातें यहां कहने के लिए मजबूर हो रहा हूं। अकेडमिक्स के बहुत ऊंचे पद पर आसीन एक ऐसे ही विद्वान ने अपने वक्तव्य के दौरान कहा कि हम तो हमेशा से ‘वासुदेव कुटुंबकम’ के सिद्धांत के अनुयायी रहे हैं। उनके कद को देखते हुए सीधे उन्हें संबोधित करना अनुचित जानकर अपने वक्तव्य में मैंने पूरा श्लोक अन्वय और अर्थ सहित बताया और कहा कि पंचतंत्र में आया यह श्लोक अपना-पराया की धारणा को ही खारिज करता है। फिर इसे भारतीय सभ्यता की श्रेष्ठता का आधार बताने में कहां की समझदारी है?
श्लोक है, ‘अयम निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम। उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुंबकम।’ यानी ‘यह अपना है, वह पराया है, ऐसा हिसाब छोटी सोच वाले लोग किया करते हैं। उदार चरित्र वालों के लिए तो यह पूरी धरती ही अपने परिवार जैसी है।’ मुझे लगता नहीं कि 70 साल की उम्र में तीस से ज्यादा बैच पत्रकार पैदा कर चुके इन सज्जन को इस अवस्था में ‘वासुदेव कुटुंबकम’ से डिगाकर ‘वसुधैव कुटुंबकम’ तक लाया जा सकता है। अर्थ समझने और उसके मुताबिक अपनी सोच बदलने की तो खैर बात ही छोड़ दीजिए। शायद किसी सूरत में यह संभव भी हो सकता था, लेकिन अगर सरकार से जुड़ी राष्ट्रवादी अहमन्यता का भरपूर समर्थन किसी के साथ हो तो उसे अपनी गलती मानने और सोच बदलने के लिए समझाना अपनी जान आफत में डालने जैसा ही है।
ऐसा ही हाल ‘जननी-जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ का भी है। राष्ट्रवादी गोष्ठियों में बताया जाता है कि यह भारत का अपना सिद्धांत है, जिसके तहत हम अपनी मां और देश की माटी को स्वर्ग से भी ज्यादा प्यार करते हैं। कहना मुश्किल है कि दुनिया का कौन सा देश ऐसा है, जहां राष्ट्रवादी माहौल बन जाने के बाद वहां रहने वाला एक भी व्यक्ति यह कहता हो कि अपने देश और अपनी मां से वह कम प्यार करता है। इसमें ठेठ भारतीयता जैसा क्या है? ऐसा कौन सा तत्व इसमें है, जिसके बल पर आप विश्वगुरु बनने का दावा ठोंक सकते हैं।
बहरहाल, इस शब्द समूह के बारे में भी इसके उदय बिंदु से ही बात की जानी चाहिए। यह वाल्मीकि रामायण के लंकाकांड में आया श्लोक है, जिसमें लड़ाई खत्म हो जाने के बाद राम अपने भाई और सहयोद्धा लक्ष्मण से अपने दिल की बात कहते हैं। श्लोक इस प्रकार है- ‘अपि च स्वर्णमयी लंका, लक्ष्मण मे न रोचते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ यानी ‘पूरी लंका नगरी ऊपर से नीचे तक सोने से मढ़ी हुई है, फिर भी हे लक्ष्मण, यह मुझे जरा भी अच्छी नहीं लग रही। मेरे लिए तो मां और जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक मूल्यवान है।’ यहां चौदह साल के वनवास के बाद राम का नॉस्टैल्जिया उमड़ रहा है, जिसकी सहज कल्पना की जा सकती है।
समस्या यह है कि सरकारी राष्ट्रवादी अपनी संस्कृति के गहरे तत्वों के संधान के लिए रत्ती भर भी मेहनत नहीं करना चाहते। हालांकि वे ऐसा करें भी तो उनके सामने यह समस्या आ सकती है कि भारत की प्राचीन संस्कृति में भूगोल तक सीमित तत्व बहुत ही कम हैं। भारत अपने लंबे इतिहास में छोटे दौरों के लिए ही किसी केंद्रीय सत्ता से संचालित रहा है। शायद इसीलिए इसके प्राचीन चिंतकों और रचनाकारों ने अपनी सोच को कभी किसी भूगोल में बांधने का प्रयास नहीं किया। वहां मौजूद सारी महान बातें मानव मात्र के लिए हैं, जिनका अनुशीलन करके कोई भी व्यक्ति अपने भीतर पहले से ज्यादा समृद्ध हो सकता है। घड़े जैसी सोच वाले लोग इस समुद्र से दूर रहकर ही खुश रहेंगे, भले ही इसको तोड़-मरोड़कर घड़े में रखने लायक बनाने का भ्रम कुछ देर तक वे पाल लें।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।