RSS से जुड़े 22 दंगाइयों को जेल भिजवाने वाले वकील का कंप्यूटर उठा ले गयी दिल्ली पुलिस!

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
काॅलम Published On :


नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने पिछले दिनों भारत में टू मच डेमोक्रेसी (बहुत ज़्यादा लोकतंत्र) पर चिंता जतायी थी। इस बहुत ज्यादा लोकतंत्र में सीएए जैसा कानून बना, क्रोनोलॉजी समझाई गई, विरोध हुआ चलने दिया गया, दुष्प्रचार हुए। दंगा हुआ। दंगे में पुलिस नहीं दिखी, दमकल नहीं दिखे पर जांच हुई दंगे की साजिश की और आरोप लगा चुन-चुन कर मुसलमानों को फंसाने की। इसपर किताब भी लिख दी गई, भले प्रकाशक ने वापस ले लिया और दूसरे प्रकाशक ने बाद में छापा। यह सब करते हुए दिल्ली अल्पसंख्य आयोग की फैक्ट फाइंडिंग कमेटी की रिपोर्ट की चर्चा नहीं के बराबर है। बात इतने पर ही नहीं रुकी, वकील के यहां छापा पड़ा। कहने की जरूरत नहीं है कि वकील के यहां छपा पड़ना आम बात नहीं है। पर पतलून सरकना भी आम बात नहीं है। जब नारा ही नामुमकिन को मुमकिन करना हो तो यह कोई खास बात नहीं है। हालांकि, पहली ही नजर में यह कानूनी सहायता पाने के अधिकार के खिलाफ है। 

इंडियन एक्सप्रेस ने आज इसपर जो खबरें छापी हैं उनमें पहली का जो शीर्षक है वह हिन्दी में कुछ इस तरह होता, “प्राचा के कार्यालय में छापे के एक दिन बाद बार के सदस्य एहतियातन शांत”। इस खबर में कहा जा रहा है कि इंडियन एक्सप्रेस के पूछने पर वकीलों के संगठन के पदाधिकारियों ने यही कहा कि तथ्य जुटाए जा रहे हैं, जानकारी ली जा रही है, कार्यकारिणी समिति से चर्चा के बाद निर्णय लिया जाएगा आदि-आदि। जहां तक महमूद प्राचा के खिलाफ मामले की बात है, इंडियन एक्सप्रेस ने आज खबर छापी है कि उनके कुछ मुवक्किलों ने कल प्रेस कांफ्रेंस कर आरोप लगाया कि दिल्ली पुलिस ने उनपर दबाव डाला ता कि वे वकील के रूप में प्राचा को छोड़ दें और अपनी शिकायत वापस लें।  

यह सब तब जब देश-दुनिया का कानून और संविधान ऐसा है कि जिस पाकिस्तानी आतंकवादी ने कइयों की हत्या की, वीडियो था उसे बिरयानी खिलाने का प्रचार किया गया फिर भी सच यही है कि उसे सरकारी खर्चे पर वकील दिया गया। और फांसी की सजा कानूनी कार्रवाई पूरी करने के बाद विधिवत ही हुई। ना ठोंका गया ना गाड़ी पलटी। फिर भी लोकतंत्र बहुत ज्यादा है और “गोली मारो सालों को” – नारा लगाने वाले के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। राम राज्य में तो दंगाइयों के खिलाफ मुकदमे वापस लेने जैसे संस्कारी काम भी सोचे जा रहे हैं। दिल्ली पुलिस दंगे की साजिश की जांच कराती है जबकि जरूरत जांच की जांच की भी है। पहले हुई नालायकी की जांच नहीं होती और साजिश की जांच में एकतरफा कार्रवाई, मुसलमानों को फंसाने के पक्के मामलों के बावजूद कोई सुनवाई नहीं, कोई कार्रवाई नहीं सो अलग। पर लोकतंत्र बहुत ज्यादा हुआ तो उल्टे वकील पर छापा पड़ गया। 

कल्पना कीजिए कि एक वकील जो कइयों का रक्षक है उसे फंसाने, डराने की साजिश हो रही है। मुझे लगता है कि बहुत कम लोकतंत्र में भी ऐसे लोगों पर नैतिक रूप से कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। बहुत ज्यादा लोकतंत्र में तो ऐसा कानून होना चाहिए कि ऐसे लोगों के खिलाफ कम से कम वही पुलिस कोई जांच नहीं करेगी जिसकी पोल वो खोल रहे हैं। पर कार्रवाई हुई और कार्रवाई के बाद आज छपी खबरों से जो पता चलता है वह कम दिलचस्प नहीं है। पेश है कुछ खास अंश। 

हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर छपी खबर का शीर्षक है, “अदालत ने (दिल्ली) दंगे के कई मामलों से जुड़े वकील, महमूद प्राचा के यहां पुलिस छापे का फुटेज मांगा”। इस खबर में कहा गया है, “(उन्होंने) आरोप लगाया है कि पुलिस की कार्रवाई का मकसद उन्हें हिंसा में प्रभावित लोगों के लिए न्याय पाने से रोकना है।” उनके खिलाफ दंगे के एक मामले में न्यायिक रिकार्ड के फर्जी दस्तावेज के उपयोग का मामला है। वैसे तो प्राचा इससे इनकार करते हैं। पर यह आरोप सही भी हो तो इस सूचना का मुकाबला अदालत में किया जाना चाहिए और अदालत में साबित किया जाना चाहिए।  

कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसी एफआईआर भी फर्जी हो सकती है और उस आधार पर जांच करना परेशान करना तो है ही। वकीलों को ऐसी जांच से सुरक्षा मिलनी चाहिए। कम से कम हाल-फिलहाल के मामलों में। हिन्दुस्तान टाइम्स ने भी अपनी खबर में बताया है कि वरिष्ठ विधि विशेषज्ञों की राय में यह वकील और मुवक्किल के विशेषाधिकार का हनन है। और यह वकील पर दबाव बनाने की कोशिश है। अखबार ने इसी शीर्षक से अंदर के पन्ने पर पांच कॉलम की खबर छापी है।  

बेशक, महमूद प्राचा ने इस मामले में अदालत की शरण ली है पर निश्चित रूप से अब उनकी ऊर्जा इस मामले में खर्च होगी जो पहले उनके मुवक्किलों यानी आम लोगों के लिए सरकारी ताकत के खिलाफ उपलब्ध थी। अदालत में जो समय लगेगा और उससे जो नुकसान होगा वह अपनी जगह है।  दिल्ली दंगे में पुलिस निर्दोष मुसलमानों को फंसा रही है। इस आरोप के बीच यह तथ्य है कि वे कोई 80 लोगों के वकील हैं। इस संबंध में उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस से कहा है, “हमलोगों ने न सिर्फ दंगे के आरोपी बनाए गए मुसलमानों को जमानत पाने में सहायता की है बल्कि आरएसएस के 22 पदाधिकारियों को गिरफ्तार भी करवाया है। भाजपा नेताओं की भागीदारी के सबूत हैं।“ 

अगर ऐसा है तो कोई भी वकील सामान्य तौर पर इन्हें अपने दफ्तर और कंप्यूटर में ही रखेगा जो दिल्ली पुलिस के खिलाफ है। क्या दिल्ली पुलिस ऐसे सबूत छापे में छोड़ देगी। क्या दिल्ली पुलिस को ऐसी जगह छापे की अनुमति (किसी भी हालत में) होनी चाहिए। और अगर है तो न्याय कहां है और लोकतंत्र कहां है? कम ज्यादा की बात तो छोड़िए। और दिल्ली पुलिस के खिलाफ इन 22 लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने का मामला क्यों नहीं चलना चाहिए? कौन चलाएगा, कैसे चलेगा? मैं नहीं कहता कि यह आरोप सही ही है। लेकिन आरोप पर जब एफआईआर होती है, वकील के यहां छापा पड़ सकता है उनका कंप्यूटर या हार्ड डिस्क जब्त किया जा सकता है तो इस आरोप पर कार्रवाई क्यों नहीं?   

यह आपत्तिजनक है कि किसी के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज हो जाए और पुलिस कंप्यूटर या हार्डडिस्क जब्त कर ले। अगर ऐसा होने लगे तो कोई काम कैसे करेगा। केंद्र की भाजपा सरकार जिस ढंग से विरोधियों को दबा और परेशान कर रही है उसमें किसी को भी परेशान करने के लिए यह बहुत आसान और साधारण उपाय है। मैंने महमूद प्राचा के दफ्तर पर छापे के वीडियो का यह अंश देखा तो भी मुझे ‘बहुत ज्यादा लोकतंत्र’ की चिन्ता हुई। आज हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर से पता चला कि अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 165 (6) के तहत नियम है कि जो चीजें जब्त की जाएंगी उसकी कॉपी दी जाएगी। यानी मेरी फाइल जब्त की गई तो यह नहीं चलेगा कि 10 फाइलें जब्त की गईं। मुझे सारी फाइलों के सभी पन्ने या कागज की कॉपी दी जानी चाहिए। और यह वाजिब भी है। इसी तरह हार्ड डिस्क जब्त किया जाए तो उसकी कॉपी दी जाए। यह ठीक है और इसलिए भी जरूरी है कि पुलिस हार्ड डिस्क से कोई फाइल ना चुरा पाएगी ना डिलीट कर पाएगी ना अपनी तरफ से डाल पाएगी। ऐसे में जो सबूत वकील ने बचा कर या छिपा कर रखे होंगे उसकी कॉपी उसके पास रहेगी और बाद में यह बताया जाएगा कि यह सबूत यहां से चुराया या लिया गया है। महमूद प्राचा ने इस कानून के तहत रिकार्ड की कॉपी मांगी है। जो उन्हें बिना मांगे दी जानी चाहिए थी और नहीं दी गई तो पुलिस के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। पर बहुत ज्यादा लोकतंत्र में पुलिस को यह अधिकार है कि रोकने विरोध करने या जिरह करने पर सरकारी काम में बाधा डालने का मामला दर्ज कर ले। 

दूसरी ओर, आप (अगर वकील हैं तो भी) उस पुलिस अधिकारी के खिलाफ मुकदमा नहीं करा सकते। इसके लिए आपको उसके उसी आका से अनुमति लेनी पड़ेगी जिसकी इच्छा या आदेश से छापे जैसी स्थिति बनती है। हालांकि, यह एक आम स्थिति है दिल्ली दंगे से संबंधित इस मामले में क्या कैसे होगा यह समय ही बताएगा। काम में बाधा डालने और मकदमा चलाने के लिए अनुमति लेने के नियमों का पुलिस अधिकारी अमूमन बेजा फायदा उठाते हैं पर नेता अगर एंटायर पॉलिटकल साइंस वाला हो तो अपनी जरूरत के अनुसार अनुमति देगा या नहीं देगा। गुजरात के पूर्व आईपीएस संजीव भट्ट के मामले में यही हुआ है और वे कोई दो साल से जेल में हैं। ये भी लोकतंत्र बहुत ज्यादा होने के बावजूद चल रहा है। चूंकि अमिताभ कांत अपने कहे से तुरंत पलट गए इसलिए उनसे पूछा नहीं जा सकता है वरना उन्हें बताना चाहिए कि लोकतंत्र बहुत ज्यादा होने का ख्याल उनके दिमाग में आखिर आया कैसे?     

यह सब देश की राजधानी में हो रहा है। छोटे शहरों और गांवों की हालत का अंदाजा लगा सकते हैं खासकर किसी एक व्यक्ति के नागरिक अधिकारों के मामले में। इंडियन एक्सप्रेस ने इन आरोपों पर दिल्ली पुलिस का बयान भी छापा है और वह यही है कि आरोप झूठे हैं और जांच मेरिट यानी गंभीरता या जरूरत के अनुसार हो रही है। इसमें पुलिस की नालायकी की जांच होनी चाहिए यह कौन करेगा – खुद पुलिस या वह सरकार जो उसका उपयोग अपना हिसाब बराबर करने या अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए कर रही है। फिर भी आपको लगता है कि देश में लोकतंत्र ज्यादा है तो सोचिए …. कैसे?

 

तस्वीर लाइव लॉ से साभार।