दीपंकर के नाम खुला पत्र: ‘महागठबंधन की जीत हो पर सामाजिक न्याय मत भूलियेगा कॉमरेड!’

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भाकपा-माले महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य के नाम डॉ.लक्ष्मण यादव का खुला पत्र

 

जय भीम..लाल सलाम..कॉमरेड,

कॉमरेड! सबसे पहले तो भाकपा माले को बिहार चुनाव में जीत के लिए शुभकामनाएं। संघी, जातिवादी, संविधान विरोधी ताक़तों को हराकर महागठबंधन पूर्ण बहुमत से विजयी हो, हम जैसों की यही सदिच्छा रहेगी। भाकपा माले ने प्रत्याशियों का जो पैनल उतारा है, उसके लिए माले नेतृत्व बधाई का पात्र है। बहुजन समाज के बीच ज़मीनी समझ व पकड़ के साथ सक्रिय युवाओं के साथ पुराने संघर्षशील नेताओं को आपने चेहरा बनाया है। यह भारतीय राजनीति के हालिया दौर में एक सकारात्मक समावेशी वैकल्पिक उम्मीद रचता है। यह उम्मीद ज़िंदा रहे, ताकि ज़मीनी संघर्षों से नई पीढ़ी का भरोसा पूरी तरह न उठ जाए। आप वैचारिकी को लेकर गंभीर खेमा हैं, इसलिए आपको ख़त लिखकर कुछ कहना चाहता हूँ।

माले, भारतीय वामपंथी दलों में सबसे संतुलित वैचारिकी वाला दल है, इसलिए कम्युनिस्टों में सबसे ज़्यादा माले ही आकर्षित करता है। इसकी कुछ बुनियादी वज़हें हैं। मसलन माले, ‘वर्ग संघर्ष’ के खाँचे के भीतर ही जाति केंद्रित संघर्ष व विमर्श को शामिल करने वाला वैचारिक छल नहीं करता। यानी माले, पहचान आधारित सामाजिक राजनीतिक गोलबंदियों पर सर्वहारा की संभावित एका के न बन पाने का ठीकरा नहीं फोड़ता। वह बहुजन वैचारिकी, सामाजिक न्याय विमर्श व मंडल के दौर को अपना सबसे बड़ा सियासी दुश्मन नहीं कहता। बीबीसी को दिए आपके इंटरव्यू में यह और स्पष्ट हुआ।

माले, जाति के विनाश की वैचारिक ज़मीन पर खड़े बहुजन संघर्ष को ‘क्रांति’ में बाधक नहीं मानता। यह जाति विमर्श को सामने रखकर बात करता है। दूसरी व सबसे अहम बात यह कि माले केवल बात ही नहीं करता, आगे बढ़कर बहुजनों को प्रतिनिधित्व भी देता है। आपके छात्र संगठन आइसा से लेकर बिहार में चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों को बहुत क़रीब से देखा है। इस आधार पर यह बात कह रहा हूं। बिहार में तो सभी प्रत्याशी बहुजन हैं। उक्त दो बेहद गंभीर वज़हों के आधार पर इन सभी को वोट देकर विजयी बनाने की अपील करता हूँ। आप विजयी हों ताकि आपको भी काम करने का मौक़ा मिले। कथनी को करनी में तब्दील करने का मौक़ा। क्योंकि अब आप मज़बूत भी होते जा रहे हैं। और मजबूत हों, ये सदिच्छा हमेशा रही है।

बावजूद इसके एक बात स्पष्ट तौर पर कहना चाहूँगा कॉमरेड! सामाजिक न्याय की सामाजिक सांस्कृतिक ज़मीन को बहुत धोखे मिले हैं। परायों से ही नहीं, ‘अपनों’ से भी। क्योंकि चुनावी राजनीति के दबाव ने हर बार विचारों को समझौतापरस्ती के तराजू पर तौला है। यह धोखे कम्युनिस्टों ने भी दिए हैं और कथित सामाजिक न्याय के नामलेवा सियासी दलों ने भी। कम्युनिस्टों पर सबसे गहरे आरोप उनके केंद्रीय नेतृत्व के सवर्ण वर्चस्व को लेकर लगे। ‘बिहार लेनिन’ बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा आत्मिक संवाद के इन भावुक लम्हों में बेतरह याद आते हैं। माले भी फ़िलवक्त इन आरोपों से बरी नहीं है। क्या शीर्ष नेतृत्व में ये बहुजन भी दिखेंगे? और कब? क्योंकि अब तो यह तर्क भी काम न करेगा कि बहुजनों में ‘सक्षम’ लोग नहीं हैं। अब तो आपके पास भी ऐसे लोगों की भरमार है। आपने इसे माना है।

कॉमरेड! क्या आप यह नहीं मानते कि भारत में जाति की संरचना के भीतर ही सभी तरह के अन्याय शामिल हैं? सामाजिक, सांस्कृतिक, लैंगिक, भाषिक, और आर्थिक सब तरह के अन्याय, शोषण व ग़ैर बराबरी की मूल वज़ह क्या जाति ही नहीं है? क्या सारी विषमताओं की जड़ जाति नहीं है? आपको खुला ख़त लिखने के पीछे यह एक अहम वजह है कि आप इस मुश्किल दौर में इसे और स्पष्ट करें, क्योंकि महागठबंधन में शामिल होकर भी यह चुनाव जाति के मसले पर चुप है। सामाजिक न्याय को बतौर चुनावी मुद्दा बिहार चुनाव में मिले निर्वासन पर सब चल हैं? आप भी। मग़र क्यों?

कॉमरेड! बेशक आप भी सहमत हो कहें कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार बहुजनों के हित के ही एजेंडे हैं, हम भी यही कहते हैं। मगर बिना स्पष्ट जातीय विमर्श की कसौटी के इस बात पर भरोसा नहीं है। दिल्ली में दुबारा चुनी हुई सरकार का सामाजिक न्याय देख ही रहे हैं हम सब। इसलिए मैं इस चिंता को हमेशा साझा करता रहूँगा। मूल चिंता यह है कि सभी तरह की जातिगत, लैंगिक विषमताओं को सांप्रदायिकता जैसे घोर ब्राह्मणवादी-सैय्यदवादी गठजोड़ वाले ‘उनके’ मुद्दे में अफ़नाने के लिए क़ैद न कर दिया जाए। क्योंकि साम्प्रदायिकता की इन बहसों में पसमांदा कभी नहीं आता, वरना साम्प्रदायिक सियासत की धज्जियाँ उड़ जाएँ। जाति का प्रश्न सबसे बड़ा, सबसे ज़रूरी व मूल प्रश्न है। इसके बिना शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार तक का प्रश्न खोखले हैं। यह मेरा पक्ष है। बिल्कुल स्पष्ट पक्ष। आपका क्या पक्ष है?

बहरहाल, कम्युनिस्टों में भाकपा (माले) से ही थोड़ी बहुत उम्मीद है। इसलिए आपका साथ देते हुए साफ तौर पर कह रहा हूं, कि सामाजिक न्याय के प्रश्न पर वह धोखा न कीजिएगा आप सब, जो अब तक हर ‘अपनों’ की चौखटों से किया जाता रहा है। आप सभी जीत रहे हैं, ज़रूर जीतें। लेकिन कल को जब काम करने का मौक़ा मिले, तो राजद तक को मजबूर कीजिएगा कि सामाजिक न्याय के बिना कुछ नहीं। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार के साथ भूमि सुधार, जाति जनगणना और निजीकरण का विरोध इस महागठबंधन के काम करने की मूल ज़मीन होनी चाहिए। भले चुनावी जीत के लिए इन मुद्दों पर एक रणनीतिक चुप्पी हो। क्या आप भी मानते हो कि सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय दो मुख़्तलिफ़ बातें हैं?

वरना सामाजिक न्याय के सामाजिक सांस्कृतिक विमर्श ने सपा, बसपा, राजद तक को कभी न बख्शा, न कम्युनिस्टों व कांग्रेस को बख्शा, तो माले को भी नहीं बख्शेंगे। चुनावी जीत हार में हम दोनों वहाँ एक हैं, जहाँ हमारा वैचारिक प्रतिपक्ष खड़ा है। उसे हराने के लिए हम आपके और महागठबंधन के साथ खड़े हैं। लेकिन उसके साथ हम हमेशा चाहेंगे कि मुख्य मुद्दा जाति रहे। जाति विनाश के बिना किसी भी तरह का मॉडल शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार के बिना पर कोई क्रांति न कर सकेगा। सामाजिक न्याय पर चुप्पी कोई आर्थिक न्याय न कर सकेगी। यह वैचारिक स्पष्टता है हमारी। याद है न कॉमरेड, आपने लाल गमछे के साथ हरा तो पहना, नीला कहाँ चला गया?

आप सभी इस सियासी समर में शानदार लड़ाई लड़ रहे हैं। हर तरह से समर्थन है। महागठबंधन जीते। हमारे सवाल इस जीत को असल मायनों में क्रांतिकारी बनाएंगे। वरना चुनावी जीत क्षणिक खुशियाँ लेकर आने लगी हैं। हम संघी विचार से लड़ रहे हैं। उसे एक ही विचार हराएगा, सामाजिक न्याय का विचार। सामाजिक न्याय यानी आर्थिक न्याय, सामाजिक न्याय यानी लैंगिक न्याय, सामाजिक न्याय यानी सम्पूर्ण न्याय।

जय भीम, जय समाजवाद, जय जोहार

लाल सलाम

लक्ष्मण यादव

आपका अपना वैचारिक शुभचिंतक।

(चर्चित शिक्षक नेता और बुद्धिजीवी डॉ.लक्ष्मण यादव दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में पढ़ाते हैं।)

इस पत्र में उठे कई अहम सवालों का जवाब कॉमरेड दीपंकर भट्टाचार्य  ने हाल ही में दिया है। मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक डॉ.पंकज श्रीवास्तव ने जाति  विनाश, ब्राह्मणवाद  को लेकर कम्युनिस्टों के रुख पर विस्तार से बात की थी जिसे नीचे सुना जा सकता है–