“रविशंकर बाबू, तेजस्वी के साथ मोदीजी की डिग्री का भी पता कर लेते!”


मैं रविशंकर से इतनी अपेक्षा तो कर ही सकता हूँ कि अपने आका नरेंद्र मोदी की डिग्रियों के मामले पर जानकारी इकट्ठे करें। इस से फुर्सत मिलने पर उन्हें भारतरत्न कुमारसामी कामराज की जीवनी पढ़ने का अनुरोध करूँगा। कामराज केवल छठी जमात तक पढ़ पाए थे। वह तमिलनाडु (तब मद्रास) के मुख्यमंत्री हुए। केवल सात वर्षों में उन्होंने प्रान्त का कायाकल्प कर दिया और फिर अपने नेता नेहरू से दरख्वास्त की कि अब मुझे पार्टी के काम में लगाया जाय। वह अखिल भारतीय कांग्रेस के आलाकमान बनाए गए। वह न हिंदी बोल सकते थे, न अंग्रेजी। नेहरू की मृत्यु के बाद वह अपनी पार्टी की सर्वानुमति से प्रधानमंत्री हो रहे थे, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। यदि होते तो बेहतर प्रधानमंत्री होते। वह नरेंद्र मोदी की तरह बात-बहादुर नहीं, कामबहादुर थे। कर्मयोगी। वास्तविक हीरो।


प्रेमकुमार मणि प्रेमकुमार मणि
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भारत के कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को बिहार चुनाव में कोई मुद्दा नहीं मिल रहा है, तो वह तेजस्वी की पढाई का मामला उछालने में लगे हैं। जाहिर है, तेजस्वी के पास कोई डिग्री नहीं है। हलफनामे के अनुसार उन्होंने स्कूली पढाई भी पूरी नहीं की है। वह क्रिकेट की दुनिया में थे। वहां डिग्री की कोई औकात नहीं होती, हाथ का हुनर देखा जाता है। क्रिकेट ऐसा खेल है, जहाँ आप डिग्री लेकर नहीं जाते। बालपन से अभ्यास करना पड़ता है। मशहूर और लीजेंड हो चुके क्रिकेटर पालवंकर बालू (1876 -1955 ) अनपढ़ सिपाही थे। वह दलित परिवार में जन्मे थे। क्रिकेट के क्षेत्र में उन्होंने एक ज़माने में  भारत का नाम रौशन किया। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने उनपर किताब लिखी है। यह वही बालू थे, जिन्होंने 1932 में आम्बेडकर के राजनीतिक स्टैंड का विरोध किया था, और 1937 में उनके खिलाफ चुनाव लड़े थे। उनका राजनीतिक स्टैंड चाहे जो हो, लेकिन बेशक वह भारत के होनहार सितारे थे और उनके इस रूप की आम्बेडकर भी खूब सराहना करते थे। इस ज़माने में भारत रत्न से विभूषित क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर की डिग्री के बारे में भी रविशंकर को जानकारी लेनी चाहिए।

मैं रविशंकर से इतनी अपेक्षा तो कर ही सकता हूँ कि अपने आका नरेंद्र मोदी की डिग्रियों के मामले पर जानकारी इकट्ठे करें। इस से फुर्सत मिलने पर उन्हें भारतरत्न कुमारसामी कामराज की जीवनी पढ़ने का अनुरोध करूँगा। कामराज केवल छठी जमात तक पढ़ पाए थे। वह तमिलनाडु (तब मद्रास) के मुख्यमंत्री हुए। केवल सात वर्षों में उन्होंने प्रान्त का कायाकल्प कर दिया और फिर अपने नेता नेहरू से दरख्वास्त की कि अब मुझे पार्टी के काम में लगाया जाय। वह अखिल भारतीय कांग्रेस के आलाकमान बनाए गए। वह न हिंदी बोल सकते थे, न अंग्रेजी। नेहरू की मृत्यु के बाद वह अपनी पार्टी की सर्वानुमति से प्रधानमंत्री हो रहे थे, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। यदि होते तो बेहतर प्रधानमंत्री होते। वह नरेंद्र मोदी की तरह बात-बहादुर नहीं, कामबहादुर थे। कर्मयोगी। वास्तविक हीरो।

रविशंकर बाबू, मुल्क का इतिहास तो आपलोग पढ़ते नहीं, दुनिया का इतिहास क्या पढ़ेंगे! हमारी आज़ादी की लड़ाई में कई ऐसे लोग थे, जिनका अकादमिक रिकॉर्ड बेहतरीन था। लोग जानते हैं कि ऐसे ज्यादातर लोग सार्वजनिक जीवन में मीडियाकर सिद्ध हुए। कुछ खास नहीं कर पाए। सोच के स्तर पर तो ऐसे लोग और भी दयनीय दिखे। जो जीनियस थे, उनके पास डिग्रियों और बेहतर नतीजों का टोटा था। स्वयं गांधी, जो राष्ट्रीय आंदोलन के सब से बड़े सितारे थे, अपनी पढाई-लिखाई में साधारण रहे। आपकी तरह उन्होंने भी वकालत की थी, लेकिन आप जानते होंगे आप की तरह उनकी वकालत नहीं चली। स्वाध्याय से आहिस्ता-आहिस्ता उन्होंने स्वयं को माँजा और एक जादुई व्यक्तित्व बने।

डॉ भीमराव आम्बेडकर ने अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में पढाई की। उनकी पीड़ा थी कि उन्हें कभी सेकंड डिवीज़न नहीं आया। तीसरे दर्जे में पास करते रहे। लेकिन धीरे-धीरे डिग्रियां भी हासिल कर ली और ज्ञान भी। वह अपने ज़माने के प्रतिनिधि विचारक बन गए। जवाहरलाल नेहरू ने आत्मकथा में लिखा है, मैं किसी तरह परीक्षाएं पास कर लिया करता था बस। गाँधी, आम्बेडकर और नेहरू अपने समय के प्रतिनिधि लेखक-विचारक भी बने।

साहित्य-संस्कृति-विज्ञान का हाल और भी विचित्र है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन के पास कोई डिग्री नहीं थी। प्रेमचंद ने मैट्रिक करने के कई वर्षों बाद इण्टर किया और उसके कई वर्षों बाद अपनी उम्र के 39 साल में जाकर बीए की डिग्री ली। देश-विदेश के अनेक लेखक अपने स्वध्याय से विलक्षण हुए। शेक्सपियर छठी जमात से आगे नहीं पढ़े और आधुनिक ज़माने के मैक्सिम गोर्की ने कभी स्कूल-यूनिवर्सिटी का मुँह नहीं देखा। मध्यकाल के कबीर ने मसि-कागद नहीं छुए। लेकिन इससे क्या होता है ? इनके ज्ञान का मुकाबला कौन कर सकता है ? यूरोप के रेनेसां और प्रबोधन-काल के अनेक दार्शनिक-विचारक लोगों  की जीवनियां देख जाइए, अधिकांश पढाई-लिखाई में साधारण थे। औद्योगिक-क्रांति के ज़माने में अनेक अविष्कारक-वैज्ञानिक हुए, जिन्होंने कोई खास पढाई नहीं की थी। जेम्स वाट, एडिसन, मैडम क्यूरी आदि के बारे में जो जानकारी है, वह हमें हैरान करती है।

मैं तेजस्वी के पढाई नहीं पूरी करने के पक्ष में कोई दलील नहीं दे रहा हूँ। आपके दम्भ और अज्ञान पर ऊँगली उठा रहा हूँ। आपके इस बड़बोलेपन में एक खास किस्म की हिकारत है। इस पर आपको ध्यान देना चाहिए। आपको तेजस्वी की राजनीति पर बात करनी चाहिए। वह उभर रही पीढ़ी के राजनेता हैं। उनकी सभाओं में जनता उन्हें सुनने आ रही है और वह ठीक ढंग से संवाद कर रहे हैं। आपके नेता थके और ऊंघते दिख रहे हैं। यह शायद उम्र का असर है। आप तो हिन्दू आश्रम व्यवस्था में विश्वास करते होंगे। सन्यास और वानप्रस्थ की उम्र में जब लोग सत्ता से चिपके रहते हैं, तब यही सब होता है।

इसलिए मान्यवर रविशंकर बाबू, आपलोग राजनीति कीजिए, दूसरों को अपमानित करना छोड़िए। आप कहेंगे, मैं तो हकीकत बता रहा हूँ। हकीकत दूसरे भी जानते हैं आप और आपके नेताओं के बारे में। यह कीचड़-युद्ध हुआ, तब राजनीति गंदी होगी और कुछ नहीं। आप मंत्री हैं, वह भी कानून मंत्री। कुछ समझदारी की बात करिए। व्यक्तिगत खुन्नस को कम से कम कीजिए। इससे समाज का भला होगा।


प्रेमकुमार मणि 1970 में सीपीआई के सदस्य बने। छात्र-राजनीति में हिस्सेदारी। बौद्ध धर्म से प्रभावित। भिक्षु जगदीश कश्यप के सान्निध्य में नव नालंदा महाविहार में रहकर बौद्ध धर्म दर्शन का अनौपचारिक अध्ययन। 1971 में एक किताब “मनु स्मृति:एक प्रतिक्रिया” (भूमिका जगदीश काश्यप) प्रकाशित। “दिनमान” से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक चार कहानी संकलन, एक उपन्यास, दो निबंध संकलन और जोतिबा फुले की जीवनी प्रकाशित। प्रतिनिधि कथा लेखक के रूप श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार(1993) समेत अनेक पुरस्कार प्राप्त। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।