केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार- यह केस सिर्फ कानून के विद्यार्थियों के लिए नहीं सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हर व्यक्ति की ज़बान पर रहता है। केशवानंद भारती का 79 वर्ष की अवस्था में केरल के कासरगोड के आश्रम में निधन हो गया। वे इडनीर मठ के प्रमुख थे। उनके निधन पर प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट करके उन्हें ऐसे संत के रूप में याद किया जो वंचितों को सशक्त करने में जुटे थे।
We will always remember Pujya Kesavananda Bharati Ji for his contributions towards community service and empowering the downtrodden. He was deeply attached to India’s rich culture and our great Constitution. He will continue to inspire generations. Om Shanti.
— Narendra Modi (@narendramodi) September 6, 2020
पीएम मोदी ही नहीं, तमाम लोगों ने सोशल मीडिया में उन्हें संविधान के रक्षक और वंचितों को सशक्त बनाने वाले संत के रूप में याद किया। लेकिन क्या सचमुच?
सच्चाई ज़रा उलट है। केशवानंद भारती ने ज़मींदारी उन्मूलन के ख़िलाफ़ ताल ठोंकी थी जो आज़ाद भारत का पहला ऐसा बड़ा संवैधानिक उपाय था जिससे करोड़ों वंचितों को उस जम़ीन पर हक़ मिला, जिसको वो सदियों से अपने पसीने से सींच रहे थे। दरअसल, केशवानंद भारती अपने मठ की 400 एकड़ ज़मीन बचाने निकले थे जिसमें 300 एकड़ को भूमि सुधार कानून के तहत खेती करने वालों को पट्टे पर दे दिया गया था। उनहोंने संविधान के 29वें संशोधन को चुनौती दी थी जिसमें संविधान की नौंवी अनुसूची में केरल भूमि सुधार अधिनियम 1963 शामिल था।
भूमि सुधार रोकने की केशवानंद भारती की कोशिशों की हार हुई। लेकिन मुकदमे के दौरान धार्मिक आधर पर अपने संस्थानों को चलाने का मसला उठा जो संविधान के मूल ढाँचे पर बहस तक पहुँचा। 1973 में 68 दिनों तक सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंच ने बहुमत से फैसला दिया कि संविधान का मूल ढांचा बदला नहीं जा सकता। यानी सरकारें संविधान में संशोधन तो कर सकती हैं, लेकिन प्रस्तावना में दिये गये मूल संकल्पों के ख़िलाफ़ न कोई कानून बना सकती हैं और न संशोधन कर सकती हैं। केशवानंद भारती केस का यह ‘बाईप्रोडक्ट’ था, जो कम से कम याची यानी केशवनांद भारती का विषय नहीं था।
इसमें शक नहीं कि इस फ़ैसले ने भारत के संवैधानिक लोकतंत्र को मज़बूत किया। विडंबना ये है कि केशवानंद भारती खुद इन संकल्पों के साथ नहीं जुड़े थे, लेकिन इस केस की वजह से वे अमर हो गये।
दरअसल, केरल में सक्रिय वामपंथी आंदोलन का ज़मींदारी उन्मूलन एक बड़ा मुद्दा था। बल्कि प्रथम चुनाव के बाद देश के मुख्य विपक्षी दल बनी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी देश भर में इस मुद्दे को उठा रही थी। वैसे तो 1950 में ही ज़मींदारी उन्मूलन कानून बना दिया था, लेकिन ज़्यादातर राज्यों के मुख्यमंत्रियों का ज़मींदार वर्ग से गहरा नाता था और इसे लागू करने में कोताही बरती जा रही थी। उस समय भारतीय जनसंघ भी इसके ख़िलाफ़ ताल ठोंक रहा था। जागीरदारों और मठ मंदिरों की ज़मीनों को सीलिंग से बचाने के लिए तरह-तरह के कुटिल उपाय अपनाये जा रहे थे। यही वजह है कि इसे संविधान की नौंवी अनुसूची में डाल दिया गया ताकि संपत्ति के अधिकार के नाम पर जमींदार अपनी ज़मीन पर दावा न कर सकें। अदालतों में जज भी ज़मींदार वर्ग से रिश्ता रखते थे और इसकी पूरी आशंका बनी हुई थी। इसीलिए 1951 में हुए पहले संविधान संशोधन के ज़रिये संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की श्रेणी से हटा दिया गया था।
भूमि सुधार कानून के तहत राज्य सरकारों ने 1700 लाख हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया। ज़मींदारों को 670 करोड़ रुपये मुआवज़े के रूप में बांटे गये। लेकिन भूमि चूँकि राज्य का विषय है इसलिए ज़मींदारों के वर्गहित से जुड़े तमाम मुख्यमंत्रियों अपने राज्य में जमींदारों को भूमि पर खेती करने वाली ज़मीन अपने पास रखने की छूट दे दी। इसका भरपूर फायदा जमींदारों ने उठाया और जमींदारी उन्मूलन का वैसा क्रांतिकारी प्रभाव नहीं पड़ सका जिसकी संभावना था।
बहरहाल, केशवानंद भारती एक धार्मिक संत ज़रूर थे। उनके मठ ने कई सामाजिक कार्य भी किये, लेकिन जब उन्हें संविधान के रक्षक के तौर पर पेश किया जा रहा हो तो बताना ज़रूरी है कि वे संविधान की मूल आत्मा यानी समता के सिद्धांत को लागू करने की राह में बाधा खड़ी की। उनके केस की वजह से संविधान की सर्वोच्चता स्थापित हुई। तय हुआ कि संविधान के मूल के साथ खिवाड़ नहीं हो सकता। लेकिन संविधान के रहते, संविधान के नाम पर ही अगर संविधान की आत्मा को नष्ट कर दिया जाये तो क्या होगा, ताज़ा सवाल तो ये है।