हमारे देश में लाखों मुकदमे सुनवाई के लिए पड़े हैं, कितने बलात्कार, कत्ल, धोखाधड़ी, जमीनों पर कब्जे के मुकदमे, लोगों के मौलिक अधिकार एवं समुदायों के जीने के अधिकार से सम्बंधित मुकदमे, नेताओं एवं प्रभावशाली व्यक्तियों पर मुकदमे, इन सब मुकदमों पर सुनवाई के लिए न न्यायाधीश उपलब्ध हैं न ही कोई बहस होती है, इन पर बस मिलती है तो तारीख। उदाहरण के लिए शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के तहत बेसिक शिक्षा अधिकारी ने कुछ दुर्बल वर्ग व अलाभित समूह के बच्चों के निजी विद्यालयों में दाखिले हेतु आदेश किया किंतु लखनऊ के सबसे बड़े विद्यालय सिटी मांटेसरी स्कूल ने दाखिला लेने से मना कर दिया।
2016-17 व 2017-18 में हुए शुरुआती कक्षाओं में दाखिले के इन आदेशों को लेकर माता-पिता उच्च न्यायालय गए और मामले अभी लम्बित हैं। क्या न्यायाधीश महोदय सोचते हैं कि बच्चों की उम्र रुकी रहेगी कि उनके माता-पिता न्यायालय के फैसले का इंतजार करेंगे या फैसला आने तक बच्चे घर बैठे रहेंगे? यह तब है जब शिक्षा का अधिकार संविधान में मौलिक अधिकार बन चुका है।
कुछ मुकदमे तो ऐसे हैं जो फर्जी हैं और पुलिस या जांच एजेंसिंयों के पास कोई ठोस सबूत नहीं हैं लेकिन उन पर सुनवाई के लिए हमारे देश के न्यायाधीशों के पास समय नहीं है और निर्दोष आरोपी जेल में बिना उनका अपराध साबित हुए सजा काट रहे हैं। इस समय कितने ही बुद्धिजीवी, पत्रकार, प्रोफेसर, मानवाधिकार कार्यकर्ता, वकील भारत की जेलों में आपातकाल के समय, जब मौलिक अधिकार निलम्बित कर दिए गए थे, में बंद लोगों से ज्यादा समय जेलों में काट चुके हैं और न तो कोई सुनवाई हो रही है न ही उनकी जमानत याचिकाएं स्वीकार की जा रही हैं। आपातकाल को छोड़कर न्यायालय ने कभी इस तरह से अपनी स्वायत्ता राजनीतिक सत्ता को गिरवी रखी हो ऐसा भारत में कम ही हुआ है।
लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के वकील प्रशांत भूषण के दो ट्वीट्स पर न्यायाधीश हरकत में आ गए। न्यायाधीशों का मानना है कि प्रशांत भूषण के दो ट्वीट्स से अदालत की गरिमा को ठेस पहुंची है। त्वरित प्रतिक्रिया के बजाए काश कभी अपने अंदर भी झांक लिया होता तो न्यायाधीशों पर उंगली न उठती। बहुत से तो ऐसे फैसले लिए गए हैं या जो लेने चाहिए थे वे नहीं लिए गए जिससे न्यायालय की गरिमा तार तार हुई है। कभी उस पर चिंतन किया गया होता तो अच्छा होता।
जब से सरकार ने जम्मू व कश्मीर के सम्बंध में बड़ा फैसला लिया है तबसे खासकर न्यायालय के चरित्र में गुणात्मक परिवर्तन देखा जा सकता है। कश्मीर में कितने ही लोगों को अवैध तरीके से बिना कोई मुकदमा लिखे या लिखित आदेश के नजरबंद कर लिया गया। बंदी प्रत्यक्षीकरण के मुकदमे दायर किए गए लेकिन न्यायालय ने लोगों के मौलिक अधिकारों की अवहेलना करते हुए इन मामलों को गम्भीरता से नहीं लिया। भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री सैफुद्दीन सोज कहते हैं कि से साल भर से अपने घर में नजरबंद हैं जिसे सरकार नकारती है। लेकिन हकीकत यह है कि उनके घर के बाहर पुलिस लगी है जो उन्हें कहीं जाने नहीं देती।
5 अगस्त, 2019 को जब जम्मू व कश्मीर से धारा 370 व 35ए हटाई जा रही थी उस दिन संसद में सांसद फारुक अब्दुल्लाह, जिनके पिता की जम्मू व कश्मीर को भारत में शामिल कराने में महत्वपूर्ण भूमिका रही, को पहुंचने नहीं दिया गया। उनके घर के बाहर भी पुलिस लगी थी। और गृह मंत्री संसद में बता रहे थे कि फारुक अब्दुल्लाह अपनी मर्जी से घर पर हैं। क्या लोकतंत्र में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की इस तरह धज्जियां उड़ते हुए देखकर भी न्यायालय को खामोश रहना चाहिए?
अनुराधा भसीन द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका जिसमें जम्मू व कश्मीर में इंटरनेट व मोबाइल फोन पर लगे प्रतिबंध हटाने की प्रार्थना की गई थी में जब न्यायालय ने प्रतिबंध लगाने वाले आदेश की प्रति सरकार से मांगी तो सरकार उसे उपलब्ध कराने में असफल रही। क्या यहां सरकार के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही नहीं होनी चाहिए थी?
9 नवम्बर, 2019 को अयोध्या से सम्बंधित फैसला हमेशा अपने अंतर्विरोध के लिए ही याद किया जाएगा जो बाबरी मस्जिद गिराने की कार्यवाही को तो अवैध मानता है किंतु उसी भूमि पर राम मंदिर बनाने के लिए सौंपकर एक तरह से अवैध कार्यवाही करने वालों को पुरस्कृत करता है। नागरिकता संशोधन अधनियिम, संविधान के अनुच्छेद 14 जो हरेक व्यक्ति, सिर्फ नागरिक ही नहीं, को न्याय के सामने बराबरी का अधिकार देता है का स्पष्ट उल्लंघन है किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने जैसी उससे अपेक्षा थी वह हस्तक्षेप नहीं किया इसके बावजूद कि देश भर में विरोध प्रदर्शन हुए।
कोरोना वायरस के प्रकोप से बचने के लिए लागू की गई तालाबंदी के दौरान प्रवासी मजदूर जिस तरह से परिवार सहित पैदल चल कर अपने घरों को जा रहे थे उससे भी सर्वोच्च न्यायालय का दिल न पिघला। मजदूरों के अधिकारों के हक में सर्वोच्च न्यायालय की एक प्रभावी भूमिका हो सकती थी जिससे करोड़ों लोगों को राहत मिलती किंतु ऐसे नाजुक मौके पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने देश को मायूस किया। पूरी दुनिया में मजदूरों को ऐसा कष्ट नहीं झेलना पड़ा जैसा भारत में और यह तो पूरे देश के लिए शर्म की बात होनी चाहिए थी।
हाल ही में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा किसी परियोजना के शुरू होने से पहले किए जाने वाले पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन में उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से तमाम परिवर्तन के सुझाव दिए गए हैं। न्यायालय ने मंत्रालय से प्रस्तावित अध्यादेश को भारत की 22 भाषाओं में अनुवाद कराकर लोगों को उपलबध कराने की अपेक्षा की थी। किंतु मंत्रालय ने ऐसा नहीं किया जिसके बावजूद मंत्रालय के खिलाफ कोई अवमानना की कार्यवाही नहीं हुई।
सुशांत सिंह राजपूत की मौत की केन्द्रीय अन्वेषण व्यूरो द्वारा जांच का आदेश पारित करते हुए न्यायालय ने कहा कि उनकी मौत के रहस्य से पर्दा उठना चाहिए। अभी तक देश में तीन लाख से ऊपर किसान कर्ज के बोझ में दब कर आत्महत्या कर चुके हैं लेकिन न्यायालय ने यह संवेदना नहीं दिखाई कि किसानों, जो देश की जनता को भोजन उपलबध करा हमें जिंदा रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, की आत्महत्या रुके इसके लिए कर्ज लेने की व्यवस्था की जांच कराई जाए। किसान कर्ज अदा न कर पाने की दशा में तहसील की हवालात में बंद किया जा सकता है लेकिन उद्योगपति अपने आप को दिवालिया घोषित कर सकता है।
इधर न्यायालय की भूमिका की वजह से देश के बहुत सारे लोग घुटन महसूस कर रहे थे। प्रशांत भूषण तो सिर्फ मुखरित हुए। लेकिन वह लोगों की आवाज बने इसीलिए देश में इतने सारे वकील और साधारण लोग प्रशांत भूषण के साथ खड़े हुए। यही वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने प्रशांत भूषण को सिर्फ प्रतीकात्मक सजा दी है।
प्रशांत भूषण उस दौर में सच बोलते हैं और सच के साथ खड़े हैं जिस दौर में सच बोलना ही अपराध की श्रेणी में आता है। प्रशांत भूषण एक बेबाक वकील एवं और जिम्मेदार नागरिक हैं, वे जानते हैं कि क्या बोलना है क्या नहीं। प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण भारत में भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष करने वालों में अग्रणी भूमिका में रहे हैं। प्रशांत भूषण भी उन्हीं की राह पर हैं और अन्याय व भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े हैं। और ये तो हमेशा से होता आया है कि अगर आप सच के साथ खड़े हैं तो लोग आपके खिलाफ होंगे। लेकिन आखिर में जीत सच की होती है।
लेखिका व लेखकः रुबीना अय्याज व संदीप पाण्डेय
लेखिका एवं लेखक सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) से जुड़े हुए हैं।