सुप्रीम कोर्ट के वकील और जाने-माने मानवाधिकारवादी प्रशांत भूषण और सुप्रीम कोर्ट के बीच जारी तनातनी के बीच उन पर दोतरफा हमले शुरू हो गये है। कोर्ट से माफ़ी न माँगने पर अड़े प्रशांत भूषण पर एक तरफ़ भक्त सम्प्रदाय हमलावर है तो दूसरी तरफ़ जस्टिस कर्णन को हुई सज़ा को प्रशांत भूषण के समर्थन का मुद्दा उठाकर अस्मितावादियों का एक हिस्सा उन पर हमलावर है। उनकी मान्यता ये भी है कि भूषण और सुप्रीम कोर्ट की लड़ाई दरअसल, ‘सवर्णों के बीच की नूरा कुश्ती’ है, जिसमें भूषण का कुछ नहीं बिगड़ेगा। आरोप यह भी है कि जो लोग आज प्रशांत भूषण के प्रति समर्थन जता रहे हैं, वह केवल उनके सवर्ण होने की वजह से है, वरना जस्टिस कर्णन के खिलाफ़ चले अवमानना केस पर इन सबने चुप्पी साध रखी थी।
थोड़ा गहराई से विचार करने पर इस तर्क-प्रक्रिया का खोखलापन ज़ाहिर हो जाता है। सबसे बड़ी बात तो यही है कि एक जज और वकील की तुलना नहीं हो सकती। जस्टिस कर्णन हाईकोर्ट के जज थे, इस नाते उनके पास फ़ैसले सुनाने का अधिकार था, जबकि प्रशांत भूषण सिर्फ़ एक वकील हैं जिनके पास ‘मी लॉर्ड’ के सामने कानूनी दलील रखने के अलावा कोई अधिकार नहीं था और न है। जस्टिस कर्णन एक संवैधानिक पद पर थे और न्यायपालिका की प्रशासनिक नियमावली से बँधे थे और उन्हें सज़ा भी इसी नियमावली को तोड़ने के लिए दी गयी थी। जबकि प्रशांत भूषण का मसला अभिव्यक्ति के अधिकार से जुड़ा हुआ है। उनका ट्वीट किसी निजी मसले पर न होकर आम लोगों को न्याय मिलने में हो रही देरी और सुप्रीम कोर्ट के उसी रुख पर टिप्पणी के रूप में सामने आया था जिसे कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट के चार जज चिन्हित कर चुके थे। उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र खतरे में है और अगर अभी बोला नहीं गया तो आने वाले समय में अफसोस करना पड़ेगा।
बहरहाल, जस्टिस कर्णन को प्रशांत भूषण के बरक्स खड़ा करने वालों का मक़सद क्या है, इस पर बाद में बात करेंगे। पहले देख लें कि 2009 में हाईकोर्ट जज बने जस्टिस कर्णन की न्यायिक इतिहास में भूमिका क्या रही। ऐसे किसी फ़ैसले का ज़िक्र किया जा सकता है जिसमें उन्होंने देश के उत्पीड़ित समुदाय के हितों के लिए कोई बड़ी लक़ीर खींच दी हो और जिसका ज़िक्र किसी नज़ीर के रूप में होता हो। अगर ऐसा है तो उसे सामने लाया जाना चाहिए। अभी जो है, उसमें जस्टिस कर्णन की छवि एक अनुशासनहीन न्यायिक अफसर की ही बनती है, जो सुप्रीम कोर्ट से हुए तबादले को खुद स्टे दे देता है। बाद में सुप्रीम कोर्ट का कड़ा रुख देखते हुए उन्होंने माना था कि उनका मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया था। 2016 में उनका तबादला मद्रास से कलकत्ता हाईकोर्ट कर दिया गया था। 2017 में उन्होंने बीस जजों के भ्रष्टाचार को लेकर चिट्ठी प्रधानमंत्री को लिखी थी। लेकिन हद तो तब हो गयी जब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस के अलावा सात अन्य जजों को एससी-एसटी एक्ट के तहत पाँच साल के सश्रम कारावास की सज़ा सुना दी। उन्होंने खुद ही आरोप लगाया और खुद ही सजा सुना दी। ये अपने आप में अनोखा मामला था। इसके बाद उन्हें अवमानना के तहत छह महीने की सज़ा हुई।
यह बात बिलकुल कही जा सकती है कि जस्टिस कर्णन को सज़ा न देकर महाभियोग चलाना चाहिए था। या और भी कोई तरीका हो सकता था। उनके उठाये भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी जाँच होनी चाहिए थी। लेकिन जस्टिस कर्णन ने चीफ़ जस्टिस के खिलाफ सज़ा का आदेश जारी करके जो किया उसके बाद उनके पक्ष में बोलने के लिए किसी के पास कुछ बचा नहीं। वैसे, सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस कर्णन के मुद्दे पर मीडिया रिपोर्टिंग पर रोक लगायी थी, जिसका उन लोगों की ओर से मुखर विरोध हुआ था, जो आज प्रशांत भूषण के पक्ष में नज़र आ रहे हैं। पर जो लोग जाति को हर चीज़ से ऊपर रखते हैं, उन्हें बताना चाहिए कि जाति को ही एकमात्र पहचान मानने वालों ने भी जस्टिस कर्णन के मुद्दे पर कितना आंदोलन चलाया। या खुद जस्टिस कर्णन ने ही सज़ा काटने के बाद न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और जातिवाद के मुद्दे पर कौन सा जनजागरण किया? उनकी ओर से उठाये गये तमाम ज़रूरी मुद्दे बाद में उनके लिए ज़रूरी क्यों नहीं रह गये? और यह भी कि बीते तीन साल वे लोग चुप क्यों रहे, जो आज प्रशांत भूषण के छवि संहार के लिए जस्टिस कर्णन के अवमानना केस का सहारा ले रहे हैं।
यह संयोग नहीं कि इस कठिन वक्त पर जस्टिस कर्णन के बहाने हमला झेल रहे प्रशांत भूषण अपने रुख को यहाँ भी बदलने को तैयार नही हैं। उन्होंने एक ट्वीट के जरिये बताया है कि उन्होंने जस्टिस कर्णन को हुई सज़ा का समर्थन क्यों किया था।
Some people are questioning why I supported the Conviction of Justice Karnan for Contempt of Court.Karnan had,apart from making absurd allegations against judges,abused his Judicial office to illegally order jailing SC judges etc He was interferening with adminstration of justice pic.twitter.com/TxTdgPjJyk
— Prashant Bhushan (@pbhushan1) August 21, 2020
प्रशांत भूषण का अचानक इस कदर चर्चा में आ जाना बहुत लोगों को पच नहीं रहा है, लेकिन यह अचानक घटी घटना नहीं है। चौथाई सदी से ज़्यादा वक्त से प्रशांत भूषण नागरिक और मानवाधिकारों के प्रति समर्पित योद्धा की तरह लड़ते रहे हैं। उनका नागरिक अधिकारों से जुड़े मुद्दों के प्रति समर्पण ही है जिसके बल पर वे पहले काँग्रेस और अब बीजेपी सरकार से टकराते दिखते हैं। वे जिस जाति में पैदा हुए, उसमें उनकी कोई भूमिका नहीं है, लेकिन वे जिन मुद्दों को लेकर सक्रिय हैं, वे उनकी सुचिंतित प्रतिबद्धता का प्रमाण है।
ज़ाहिर है, जो लोग प्रशांत भूषण के समर्थन के पीछे उनके सवर्ण होने को देख रहे हैं और जस्टिस कर्णन को दलित होने की वजह से समर्थन न मिलने की बात कह रहे हैं, वे एक जज के प्रशासनिक और न्यायिक बंधनों पर बिलकुल भी ध्यान नहीं देना चाहते। यहीं पर वह खोट नज़र आता है जो प्रशांत भूषण बनाम जस्टिस कर्णन की बाइनरी के पीछे है। यह पूछा जाना चाहिए कि जब देश तानाशाही से मुकाबिल है तो प्रशांत भूषण के रूप में खड़ी हुई एक नैतिक आभा पर अर्धसत्य की कालिख पोतने से किसका भला होगा? और क्या प्रशांत भूषण किसी से वोट माँगने निकले हैं? क्या वे सरकार बनाने की लड़ाई लड़ रहे हैं? जी नहीं, वे महज़ एक ऐसा सच बोलने की सज़ा भुगत रहे हैं जिसे महसूस तो हज़ारों लोग कर रहे हैं, लेकिन बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। भूषण ने आतंक के इस आकाश पर नैतिकता के बल्लम से एक छेद कर दिया है।
ये वाक़ई सराहनीय है कि द प्रिंट को दिये एक साक्षात्कार में जस्टिस कर्णन ने प्रशांत भूषण का समर्थन करते हुए फ़ैसले को असंवैधानिक बताया है। यही नहीं, अपनी सज़ा पर प्रशांत भूषण के समर्थन के सवाल पर भी कोई टिप्पणी नहीं की है। यह बताता है कि जस्टिस कर्णन प्रशांत भूषण से ज़्यादा उस मुद्दे को अहमियत दे रहे हैं, जो प्रशांत भूषण ने उठाये हैं। रास्ता भी यही है। देश को जाति सहित उत्पीड़न के हर प्रकार के विरुद्ध एक साझा लड़ाई की दरकार है। न्याय की लड़ाई को सवर्ण-अवर्ण की बाइनरी से समझने-समझाने की कोशिश दरअसल यथास्थिति को बरक़रार रखने का ही दाँव है।
पुनश्च: इसमें शक़ नहीं कि न्यायपालिका उसी तरह ब्राह्मणवादी असर से पीड़ित है जैसे कि पूरा भारतीय समाज। इसका निदान कोई शार्टकट नहीं, एक बड़ा राजनीतिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम ही हो सकता है। ब्राह्मणवाद की सबसे बड़ी पहचान ये है कि वह कोख को व्यक्ति के सामर्थ्य की सीमा बना देता है। इसी चिंतन की उपज है कि ब्राह्मण के घर पैदा हुआ कोई भी शख्स कितना भी नीच कर्म करे, रहेगा पूज्य ही और शूद्र को ईश्वर ने सेवा के लिए ही पैदा किया है। जबकि मानव इतिहास का सबक़ यही है कि व्यक्ति अपने जन्मना स्थिति, परिस्थिति का अतिक्रमण करके हमेशा नया इतिहास रचता है। कोख का चुनाव व्यक्ति नहीं करता, लेकिन जीवन मूल्यों और संघर्ष के मोर्चे पर अपने पक्ष का चुनाव लोगों के हाथ में है। ऐसा नहीं होता तो मनुस्मृति दहन करने वालों में डॉ.आंबेडकर का साथ देने वालों में ब्राह्मण जाति में पैदा हुए लोग नहीं होते। यह संयोग नहीं कि सवर्ण-अवर्ण की खुर्दबीन से मुद्दों को जाँचने वाले जाति के नाश का डॉ.आंबेडकर के संकल्प को पूरी तरह भुला बैठे हैं। उनके लिए जाति भारत को तोड़ने वाली व्यवस्था नहीं, सत्ता तक पहुँचाने वाली सीढ़ी है। हाथी को गणेश बताने की क़ीमत पर भी सत्ता का यह सौदा हो तो बुरा नहीं।
डॉ.पंकज श्रीवास्तव मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।