अमेरिकी आम चुनाव में अब ज्यादा समय नहीं बचा है। कोविड-19 की वजह से कुछ प्राइमरीज की तिथियों में फेरबदल के बावजूद आम चुनाव की तारीख में बदलाव की कोई संभावना नहीं है और आगामी 3 नवंबर को ये संपन्न हो जाएंगे। चुनावी जंग की अगुआई कर रहे हैं सत्तारूढ़ रिपब्लिकन पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और उप राष्ट्रपति माइकल पेंस, जबकि विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से उन्हें चुनौती दे रहे हैं राष्ट्रपति पद पर पूर्व उप राष्ट्रपति जोसफ बाइडन और उप राष्ट्रपति पद के लिए उनकी पसंद कमला हैरिस। इन चार में से तीन उम्मीदवारों की सारी कहानियां अमेरिकी मतदाता कई-कई बार सुन चुके हैं, लेकिन कमला हैरिस की कहानियां उनके लिए नई हैं। यूं कहें कि जितने किस्से बराक ओबामा को लेकर 2008 के चुनाव में उन्हें सुनने को मिले थे, उससे कुछ ज्यादा ही इस बार कमला हैरिस को लेकर सुनने को मिलेंगे।
कमला हैरिस की मां श्यामला गोपालन विदेश उप-सचिव पीवी गोपालन की बेटी थीं और दिल्ली के लेडी इरविन कॉलेज से बी.एससी. (बायो) करके बर्कले (कैलिफोर्निया) में आगे की पढ़ाई करने गई थीं। एंडोक्राइनॉलजी में उनका ढंग का काम है और ब्रेस्ट कैंसर में सेक्स हार्मोन्स की भूमिका रेखांकित करके उन्होंने इस क्षेत्र में शोध की दिशा बदल दी थी। ज्यादा बड़ी बात यह कि भारत में वैज्ञानिक दायरों के घरघुस्सू दक्षिणपंथी रुझान के विपरीत 1962-63 के उस बेचैन दौर में वे अमेरिकी मानवाधिकार आंदोलन के साथ सक्रिय रूप से जुड़ी थीं। इस आंदोलन में ही उनकी मुलाकात जमैका से आए, ब्रिटेन में पढ़े अर्थशास्त्री डॉनल्ड हैरिस से हुई, जिन्हें कीन्स की राज्य समर्थित पूंजीवाद वाली थीसिस में कई प्रो-पीपल बदलावों के लिए जाना जाता है। 1963 में दोनों की शादी हुई। हिंदू रिवाज के मुताबिक माला पहनाकर और बैप्टिस्ट प्रथा के अनुसार कांच का गिलास तोड़कर। फिर कमला और माया, दो बेटियां हुईं, जिनके नाम को लेकर शुरू हुई पति-पत्नी की अनबन 1971 में तलाक के साथ खत्म हुई।
एक ठेठ राजनेता की तरह कमला हैरिस के साथ कई सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक किस्से भी जुड़े हैं लेकिन अपनी पहचान अगर वे मॉडर्न अमेरिकन के अलावा हिंदू और बैप्टिस्ट, भारतीय और जमैकन सब एक साथ बताती हैं तो कुछ गलत नहीं कहतीं। अमेरिका में पुरानी पहचानें ज्यादा नहीं चलतीं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि पुराने रिश्ते टूटने पर वहां लोग नए रिश्ते बनाने में ज्यादा देर नहीं लगाते। लेकिन जिस उमर में अमेरिकी खुद को जवान होते देखते हैं, उसी उमर में तलाक हो जाने के बावजूद कमला हैरिस की मां और पिता, दोनों ने दूसरी शादी नहीं की और अपने बच्चों से जुड़े रहे। कमला को अपने पिता के साथ जमैका जाने का मौका पता नहीं कितना मिला, पर चेन्नई में अपने नाना के साथ समुद्र तट पर बिताए गए वक्त का जिक्र वे बड़े चाव से करती हैं। एक वैज्ञानिक और अर्थशास्त्री की बेटी का कानून पढ़ना भी एक फैसला रहा होगा, जो कमला ले पाईं तो इसकी वजह बचपन में अपने साथ हुए रंगभेद के प्रतिकार के लिए समाज में ज्यादा दखल देने की उनकी इच्छा ही थी।
यहां पहुंचकर हमारा सामना इस सवाल से होता है कि भारतीय प्रवासियों की तादाद चीनियों की लगभग आधी और ज्यादातर देशों में कई और देशों से आए प्रवासियों से काफी कम होने के बावजूद उनका राजनीतिक प्रभाव औरों से ज्यादा क्यों है। मसलन, अमेरिका में ही भारतीय मूल के 12 लाख वोटरों के बरक्स फिलीपींस मूल के 15 लाख और चीनी तथा वियतनामी मूल के दस-दस लाख वोटर हैं, लेकिन अन्य तीनों राष्ट्रीयताओं से जुड़े लोग उप राष्ट्रपति पद की दावेदारी तो क्या किसी राज्य विधानसभा की उम्मीदवारी को लेकर भी चर्चा में नहीं आते। ब्रिटेन के वित्तमंत्री और गृहमंत्री, दोनों अभी भारतीय मूल के हैं। कैबिनेट बैठती है तो तीन कुर्सियों पर देसी नामों की चिप्पियां लगी होती हैं- ऋषि सुनक, प्रीति पटेल और आलोक शर्मा। कनाडा में यह संख्या चार हो जाती है- अनीता आनंद, नवदीप बैंस, बरदीश चग्गर और हरजीत सज्जन। जहां भारतीय मूल के लोग बीस फीसदी से ज्यादा हैं, मॉरिशस, फिजी और कई कैरिबियाई मुल्क, वहां तो उनका बड़ी राजनीतिक भूमिकाओं में रहना स्वाभाविक है, सो उन्हें छोड़ते हैं।
चीनी मूल वालों का ऐसा, बल्कि इससे ज्यादा राजनीतिक दखल सिर्फ सिंगापुर में है, जिसे लोकतंत्र जरा ठिठक कर ही कहा जा सकता है। थाईलैंड में उनकी आबादी वहां की कुल जनसंख्या का तकरीबन 14 प्रतिशत है, मगर राजनीतिक प्रतिनिधित्व शून्य है। अन्य देशों में भी अच्छी-खासी आर्थिक स्थिति के बावजूद वे इसके लिए कोई प्रयास नहीं करते। मसलन, मॉरिशस में हाल-हाल तक भारतीय या तो खेतों में मजदूरी करते थे या ड्राइवर-खलासी जैसे छोटे-मोटे काम संभालते थे, जबकि गली-मोहल्ले की दुकानदारी पूरी तरह चीनियों के हाथ में थी। लेकिन आजादी मिलने और लोकतंत्र आने के साथ भारतीय आबादी ने विधायक-मंत्री बनने की कोशिशें तेज कीं जबकि तीन फीसदी चीनी आबादी आज भी दुकानदारी या नौकरी-चाकरी तक ही सीमित है। आप उनसे हिंदी या भोजपुरी आराम से बोल सकते हैं लेकिन राजनीति पर कोई बात नहीं कर सकते।
अन्य प्रवासी आबादियों के कम राजनीतिक दखल की एक बड़ी वजह शायद यह है कि लोकतंत्र उनके सामाजिक लोकाचार का हिस्सा उस तरह नहीं बन पाया, जैसा संसार के सबसे पुराने लोकतंत्र से लंबे राजनीतिक संघर्ष के क्रम में भारत के साथ हुआ। हमारा लोकतंत्र ऊपरी तौर पर चाहे जितना भी अपंग दिखे लेकिन एक आम भारतीय को दुनिया के किसी अंधेरे कोने में फेंक दिया जाए तो भी अपने लोकतांत्रिक अधिकारों को छोड़ने के लिए वह आसानी से राजी नहीं होगा। इस सहज वृत्ति के आगे क्षमता का सवाल आता है, जो एक पराये समाज में प्रायः वकील या व्यापारी बनकर ही हासिल हो पाती है। बिजनेस से पॉलिटिक्स का रास्ता सबसे पहले दादाभाई नौरोजी ने बनाया था, उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश सांसद बनकर। अभी ब्रिटेन के वित्तमंत्री और गृहमंत्री चार पीढ़ी पहले अफ्रीका में बसकर उजड़े भारतीयों के वंशज हैं और वकालत तथा व्यापार से ही राजनीति में आए हैं। ध्यान रहे, सबसे ज्यादा भारतीय 1995 से शुरू हुए ग्लोबलाइजेशन के बाद विदेश पहुंचे हैं, जहां उनका प्रभाव जबर्दस्त है। लेकिन वहां सीधे राजनीतिक दखल की स्थिति में शायद उनके बच्चे ही पहुंच पाएं।
चंद्रभूषण वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से साभार।