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अमुक…
जो कभी मेरे बहुत अच्छे मित्र हुआ करते थे।साथ खाना,उठना-बैठना।अच्छे पढ़े लिखे। जिंदादिल। लेकिन थोड़े से बेपरवाह। इसी बेपरवाही में उनकी यारी दोस्ती बहुत अच्छी थी। इतने मिलनसार और लोगों के काम आने वाले कि दोस्त तो दोस्त उनकी बीबियाँ भी अक्सर उन्हें साथ लेकर शापिंग करना पसंद करती थीं। दोस्त भी अक्सर अपनी बीबियों की शापिंग और घुमाने फिल्म दिखाने की जिद से पीछा छुड़ाने के लिए उन्हीं कामन मित्र का सहयोग लेते थे। हमारे मित्र थे भी चरित्र के बेदाग।
उनके दोस्तों में सब तरह के लोग थे-पढ़े लिखे, दारूबाज, महफिल जुटाने वाले, पत्रकार, नेता,अधिकारी..। शायरी का खूब शौक। पढ़ते भी थे और लोगों को सुनाते भी थे। संगीत में सूफी और पश्चिमी दोनों। लेकिन अक्सर गजलें सुनना पसंद करते थे। खाने में भी बेहद शौकीन। भारत की कोई डिश ऐसी नहीं होगी जो उन्होंने चखी न हो-वेज,नोनवेज दोनों। सउदी से ड्राई फ्रूट्स भी बहुत पसंद करते थे। ईद के मौके पर कई दिनों तक घर पर खाना नहीं खाते होंगे। तमाम मुस्लिम दोस्तों के घरों पर दावत। सउदी भी घूम आए थे। लेकिन कुछ कुछ विकार टिपिकल मुसलमानों के प्रति उनके मन में रहता था।
उनका सवर्ण होना और मेरा दलित होना कभी आड़े नहीं आता था। थोड़े से सामंती स्वभाव के होने के बावजूद उन्हें कभी जेएनयू के खुलेपन से ऐतराज नहीं था। बल्कि जेएनयू की बौद्धिकता के वे कायल थे। मैं उन्हें दोस्त कहता और मानता था लेकिन उम्र में थोडा बड़ा होने के कारण वे हमेशा एक शिक्षक की तरह मेरा सम्मान करते थे। निस्संदेह यह उनका बड़प्पन था।लखनऊ विश्वविद्यालय में मेरे पढ़ने-पढ़ाने और मेरे स्वभाव के वह बड़े प्रशंसक थे। हम लोगों में खूब छनती थी।
साल 2014 आया। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में नई भाजपा की नई सरकार बनी। मोदी की सांप्रदायिक राजनीति का मैं पहले भी विरोधी था। साथ ही काँग्रेस, सपा और बसपा की गलत नीतियों की भी मैं बराबर आलोचना करता था। जब सरकार भाजपा की बनी तो उसकी गलत नीतियों की भी आलोचना करने लगा। इस दरम्यान लेकिन बहुत तेजी से उनके भीतर हिन्दुत्व और मोदी के प्रति भक्तिभाव जागने लगा। दलितों के उत्पीड़न के मुद्दे पर मैं भी कटु होने लगा। धीरे-धीरे मेरे मित्र दलितों को भीमटे कहकर खूब कोसने लगे। उन्हें अचानक लगने लगा कि उनकी बेरोजगारी का कारण आरक्षण है। मुस्लिम दोस्त,गजल,खाना पसंद करने वाले हमारे मित्र कट्टर मुस्लिम विरोधी हो गये। उनका हिन्दुत्व खतरे में आ गया।
दोस्ती की दरार आज खाईं में तब्दील हो गयी। वे खांटी सवर्ण और कट्टर हिन्दू हो गये हैं और मैं भी खांटी दलित बन गया हूँ। यह सब देखते-देखते बदल गया। आज सोचता हूँ कि यह सब कैसे हो गया। आईटी सैल और वाट्सैप यूनिवर्सिटी, नफरत और हिंसा को उकसाने वाली कट्टर राजनीति और बिकाऊ मीडिया ने हमारे दिलोदिमाग को इतना संकीर्ण बना दिया कि हम मजहबों और जातियों में दुबकने लगे। जो दोस्तियाँ बिना किसी पूर्वाग्रह के बन रही थीं वे सब दरक चुकी हैं। हम सब एक नफरती लोथड़े में तब्दील हो गये हैं।
ऐसा नहीं है कि पहले मतभेद नहीं थे। मनुष्य होने के नाते जो बहुत सी कमजोरियाँ होती हैं वे सब थीं लेकिन हम सभ्य होने की ओर अग्रसर थे। कुछ कमजोरियाँ हम दोनों के बीच भी रही होंगी लेकिन संवाद और प्रेम के लिए पूरा स्पेस था। आज आलम यह है कि हम लोग सालों से संपर्क में नहीं हैं। हमारी पोस्टें उन्हें आग बबूला करती होंगी। जैसे हमारी दोस्ती में पलीता लगा वैसे ही इस देश के करोड़ों दोस्तों की जिंदगियाँ बदली हैं।
कारण सिर्फ एक है। किसी पार्टी को सत्ता में आना था और एक व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनना था।
लेखक रविकांत ,लखनऊ विश्वविद्यालय में शिक्षक हैं।
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