अमेरिका के नस्लवाद विरोधी आंदोलन के बरक्स भारत की सभ्यता और नैतिकता!

संजय श्रमण
ओप-एड Published On :


अमेरिका मे बीती 25 मई को एक 46 साल के अश्वेत नागरिक ‘जॉर्ज फ्लॉयड’ की पुलिस ने हिरासत में लेने के दौरान मौत हो गयी। एक श्वेत पुलिस अधिकारी ने जॉर्ज की गर्दन अपने घुटनों से इस तरह दबाई कि उनका दम घुट गया। इस एक घटना ने पूरे अमेरिका मे जो तूफान खड़ा किया है वह देखने लायक है। नस्लभेदी हिंसा के खिलाफ श्वेत अश्वेत सभी मिलकर सड़कों पर उतार आए हैं। ये प्रदर्शन इतने बड़े पैमाने पर फैल गए हैं कि खुद राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प तक को बंकर में छुपना पड़ा। अमेरिकी नागरिक लगभग एक हफ्ते से कोरोना के खतरे को नजरंदाज करके प्रदर्शन कर रहे हैं और न्‍याय की मांग कर रहे हैं। दोषी पुलिसकर्मियों को सजा देने की मांग पर कई जगहों पर हिंसक प्रदर्शन भी हुए। इस मुद्दे पर राष्ट्रपति ट्रम्प ने ट्विटर पर जो टिप्पणियाँ की हैं उन्हे डिलीट करते हुए ट्विटर के सीईओ ने कहा है कि ये ट्वीट गैर जिम्मेदार और भड़काऊ हैं। एक अमेरिकी पुलिस अधिकारी ने कहा कि अगर राष्ट्रपति के पास कोई ढंग की बात कहने के लिए नहीं है तो वे कृपया अपना मुंह बंद रखें। इधर ट्विटर के बाद अब ‘स्नैपचैट’ ने भी ट्रंप के अकाउंट पर यह कह कर रोक लगा दी है कि उनकी बातों से हिंसा भड़कने का ख़तरा है। प्रदर्शन की गंभीरता बढ़ते हुए राष्ट्रपति ट्रम्प ने सेना बुलाने की धमकी दी जिसकी प्रतिक्रिया मे अमेरिकी सेना प्रमुख ने बयान दिया है कि हमने संविधान की रक्षा की शपथ ली है राष्ट्रपति की रक्षा की नहीं। इस बीच पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा इस मुद्दे पर बोलते हुए भावुक हो गए और उन्होंने कहा कि हमें याद रखना चाहिए कि अमेरिका की आधारशिला अमेरिकी क्रांति पर रखी गयी है जो नस्लीय दमन के खिलाफ हुई थी।

इस सबको देखते हुए हमें भारत के नागरिक समाज सहित भारत की संवैधानिक, राजनीतिक संस्थाओं की हालत पर तरस आता है। एक तरफ दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति को उन्हीं के तंत्र मे काम करने वाला एक पुलिस अधिकारी चुप रहने की सलाह दे पा रहा है। अश्वेतों के साथ बराबरी से प्रदर्शन मे भाग लेते हुए श्वेत अमेरेकी नागरिक भी अमेरिकी ध्वज जलाकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। एक विकसित नैतिकता और नैतिक साहस का प्रदर्शन करते हुए बड़ी संख्या मे श्वेत पुलिसकर्मी अश्वेत लोगों से घुटनों पर गिरकर माफी मांग रहे हैं। न केवल नागरिक समाज बल्कि मीडिया, प्रशासन और सोशल मीडिया भी एक नैतिक साहस का प्रदर्शन करते हुए सामने आ रहा है। अब सवाल यह उठता है कि क्या हम इस नैतिकता और नैतिक साहस की कल्पना भारत मे कर सकते हैं? इसका उत्तर आसान है, ऐसा नैतिक साहस और न्यायबोध भारत मे खोजने से भी नहीं मिलेगा। 

पश्चिम की नस्लीय हिंसा की तरह भारत मे जातीय हिंसा का एक लंबा इतिहास है। लेकिन जातीय दमन और हिंसा भारत के मुख्यधारा के सामाजिक, साहित्यिक या राजनीतिक विमर्श का हिस्सा ही नहीं बन पाती है। हालांकि चुनावी राजनीतिक की रणनीति मे जाति ही सबसे बड़ा फैक्टर होती है लेकिन वह सिर्फ हार-जीत के गणित को सुलझाने भर का खेल होती है। उसके आगे जाति के आधार पर कल्याणकारी उपायों के सृजन तक जाति का विमर्श नहीं जाता है। अभी कुछ दिन पहले ही दलितों का बड़ा नरसंहार करने वाली रणवीर सेना के संस्थापक ब्रहमेश्वर मुखिया को बीजेपी सांसद गिरिराज सिंह ने ट्वीट करके श्रद्धांजलि दी, जिसे कुछ समय बाद उन्हे हटा लेना पड़ा। ऐसी श्रद्धांजलियाँ हम राजनाथ सिंह जैसे बीजेपी के अन्य वरिष्ठ नेताओं की तरफ से भी बीते कई वर्षों मे देखते आए हैं। 

हाल ही मे प्रवासी मजदूरों के पलायन पर सरकार की तरफ से सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने नैतिकता और न्यायबोध की भयानक कमी का परिचय दिया है। सुप्रीम कोर्ट मे उन्होने 31 मार्च को दावा किया था कि सड़कों पर कोई प्रवासी मजदूर नहीं है और केंद्र सरकार मजदूरों का ट्रेन यात्रा का खर्च उठा रही है। बाद मे इसी मामले पर ‘स्वतः संज्ञान’ लेते हुए कोर्ट को आदेश देना पड़ा कि केंद्र सरकार प्रवासी मजदूरों के लिए जरूरी इंतेजाम करे। स्वयं न्यायपालिका भी न्याय बोध का प्रदर्शन नहीं कर पा रही है। अभी तीन दिन पहले केरल मे एक गर्भिणी हथिनी की बारूद भरा फल के खाने से मौत हो गयी, उस एक मुद्दे पर भारत के सोशल मीडिया मे अचानक से पशु प्रेमियों का सैलाब उमड़ आया। इस घटना के बहाने केरल के ‘शिक्षित’ समाज को निशाने पर लिया जाने लगा इसी केरल ने कोरोना संक्रमण की रोकथाम के लिए जिस नैतिक जिम्मेदारी और सूझ बूझ का परिचय दिया है, उसे मटियामेट करने का गंदा प्रयास किया जाने लगा। भारत के नागरिक समाज मे एक हथिनी की दुर्भाग्यपूर्ण मौत को लेकर जो चिंता जाहीर की गयी वह लाखों दलितों के योजनाबद्ध उत्पीड़न पर कभी नजर नहीं आती। 

इन मुद्दों को एकसाथ देखें तो पता चलता है कि भारत के समाज मे कोई एक बुनियादी समस्या है। वह समस्या न केवल हमारे शिष्टाचार या परस्पर सहयोग की संभावना को बल्कि नैतिकता और न्यायबोध को भी नष्ट कर देती है। भारत के समाज मे नैतिकता का जो एक ऐतिहासिक शून्य बना हुआ है उसने भारत के लोकतंत्र के सभी आयामों को कमजोर कर दिया है। भारत मे वर्णाश्रम धर्म मे न्याय और नैतिकता की विचित्र धारणाओं पर टिप्पणी करते हुए डॉ अंबेडकर ने कहा था कि दुनिया के सभी धर्म या तो ईश्वर के लिए उत्तरदायी होते हैं या फिर व्यक्ति के जीवन की गरिमा के प्रति उत्तरदायी होते हैं। लेकिन भारत का वर्णाश्रम धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है जो कि समाज के एक वर्ग विशेष के लिए उत्तरदायी है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा है कि अन्य धर्मों मे किसी पाप के प्रायश्चित्त के लिए या तो ईश्वर को संतुष्ट करना होता है या फिर व्यक्ति और उसके परिवार को संतुष्ट करना होता है। लेकिन भारत मे पाप मोचन हेतु ब्राह्मण वर्ग को संतुष्ट करने का विधान बनाया गया है। इस तुलना से डॉ अंबेडकर स्थापित करते हैं कि भारत के समाज मे न्याय और नैतिकता का स्वाभाविक जन्म और विकास ही नहीं हो पाया है। इसीलिए भारत मे पश्चिमी आधुनिकता, लोकतंत्र और ज्ञान विज्ञान के आने के बाद भी भारत के ओबीसी, अनुसूचित जाति, जनजाति और स्त्रियों की स्थिति इतनी दयनीय है। 

भारत मे आज भी लाखों मजदूर दो जून की रोटी के लिए तरस रहे हैं और लाखों टन अनाज खुले मे सड़ रहा है। सरकारों के चहेते धन्नासेठ हजारों करोड़ डकारकर विदेशों मे गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, और भारत के सबसे वंचित और गरीब तबकों से आने वाले किसान दस बीस हजार रुपये के कर्ज मे दबकर आत्महत्या कर रहे हैं। एक तरफ वे एक प्रतिशत लोग हैं जिनके पास भारत की तिहत्तर प्रतिशत से अधिक संपत्ति है। वहीं दूसरी तरफ वे अस्सी प्रतिशत लोग हैं जो कि दो प्रतिशत से भी कम संसाधनों मे जीवन गुजार रहे हैं। ध्यान रहे कि ये सबसे गरीब ग्रामीण और शहरी लोग ही इस देश की अर्थव्यवस्था को चला रहे थे जिन्हे कोरोना के कारण गांवों की तरफ भागना पड़ा है। इन लोगों के गाँव लौटने के दौरान उठाई गई तकलीफों को देखकर बिल्कुल भी नहीं लगता कि हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली को आम नागरिक की कोई चिंता भी है। 

भारत और अमेरिका के समाज सहित इन देशों के मीडिया, फिल्म सितारों और पुलिस व सेना की तुलना भी की जा सकती है। अभी अमेरिकी फिल्म स्टार जार्ज क्लूनि ने कहा है कि नस्लवाद अमेरिका की सबसे पुरानी और खतरनाक महामारी है। इधर हमारे बॉलीवूड के शहंशाह, बादशाह या सुल्तानों या क्रिकेट के भगवानों मे इतनी नैतिकता नहीं है कि वे समाज से जुड़े मुद्दों पर मुंह भी खोल सकें। भारतीय मीडिया टिड्डी दल के मुद्दे पर पाकिस्तान को घेर रहा है और कोरोना के मुद्दे पर सरकार की असफलता को छुपाने की कोशिश मे लगा हुआ है। इन सब बातों को एकसाथ देखें तो हमें डॉ अंबेडकर की टिप्पणी समझ मे आती है। एक ऐसा देश जिसका धर्म एक अभिजात्य सामाजिक वर्ग के लिए उत्तरदायी हो वहाँ पर सामाजिकता, सामूहिकता और न्याय सहित सामूहिक हित की धारणा का विकास भी नहीं हो सकता।



संजय श्रमण जोठे स्वतन्त्र लेखक एवं शोधकर्ता हैं। मूलतः मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं। इंग्लैंड की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन मे स्नातकोत्तर करने के बाद ये भारत के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं। बीते 15 वर्षों मे विभिन्न शासकीयगैर शासकीय संस्थाओंविश्वविद्यालयों एवं कंसल्टेंसी एजेंसियों के माध्यम से सामाजिक विकास के मुद्दों पर कार्य करते रहे हैं। इसी के साथ भारत मे ओबीसीअनुसूचित जाति और जनजातियों के धार्मिकसामाजिक और राजनीतिक अधिकार के मुद्दों पर रिसर्च आधारित लेखन मे सक्रिय हैं। ज्योतिबा फुले पर इनकी एक किताब वर्ष 2015 मे प्रकाशित हुई है और आजकल विभिन्न पत्र पत्रिकाओं मे नवयान बौद्ध धर्म सहित बहुजन समाज की मुक्ति से जुड़े अन्य मुद्दों पर निरंतर लिख रहे हैं। बहुजन दृष्टि उनके कॉलम का नाम है जो हर शनिवार मीडिया विजिल में प्रकाशित हो रहा है। यह इस स्तम्भ की आठवीं कड़ी है।

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