रामशरण जोशी
अमेरिका के ट्रम्प शासन काल में रंग-भेद नस्ल-भेद का मुद्दा फिर से शिद्दत के साथ देश भर में फ़ैल गया है। हिंसक घटनाओं ने समाज और पुलिस प्रशासन को अपनी गिरफ्त में ले लिया है; देश के 75 शहर अश्वेत अमेरिकियों के प्रतिरोध से ग्रस्त हैं और 24 से अधिक शहरों में कर्फ्यू लगा दिया गया है। राष्ट्रपति निवास व्हाइट हाउस तक को खतरा पैदा हो गया। अश्वेतों के उग्र प्रदर्शन को देखते हुए राष्ट्रपति ट्रम्प को ही व्हाइट हाउस के तहखाने में ले जाना पड़ा। जहाँ वे एक घंटे छिपे रहे। न्यूयार्क टाइम्स के अनुसार स्थिति काफी समय तक संकट ग्रस्त रही। अधिकारियों ने इसका न खंडन किया, न मंडन। खामोश रहे। लेकिन ट्रम्प अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर काफी चिंतित रहे। टाइम वेबसाइट पत्रिका का कहना है कि सीक्रेट सर्विस पुलिस ने तत्काल ट्रम्प की सुरक्षा का बंदोबस्त किया।
अब विश्व के सर्वशक्तिशाली देश अमेरिका की सड़कों पर नारे गूंज रहे हैं- “न्याय नहीं तो शांति नहीं”, “ब्लैक ज़िंदगी अर्थपूर्ण है”, “हमारी लड़ाई व्यवस्था से है”, “हमारी हत्याएं बंद करो”, और “जॉर्ज फ्लॉयड को इन्साफ दो”। अश्वेतों के इस उग्र प्रतिरोध की वजह है गत सोमवार को मिनियापोलिस की पुलिस की हिरासत में अफ़्रीकी अमेरिकी जॉर्ज फ्लॉयड की मौत। इस मौत का ज़िम्मेदार श्वेत पुलिस कांस्टेबल था जिसने फ्लॉयड की गर्दन पर अपने भारी भरकम घुटना रखकर उसका दम घोंट दिया। अन्य श्वेत पुलिसवाले यह दृश्य ख़ामोशी से देखते रहे। अश्वेत चीखता रहा, “ मुझे सांस लेने में दिक्क्त हो रही है। मेरी साँसे रुक रही हैं।” लेकिन श्वेत पुलिसवालों ने उसकी एक नहीं सुनी। उसे मर जाने दिया। गर्दन पर बूट रख कर उसे मार दिया। एक तरह से श्वेत के हाथों अश्वेत की हत्या हो गई। जब यह घटना वायरल हुई तो अश्वेत समाज को उबलना ही था। विवेकशील श्वेत भी समर्थन में उत्तर गए। हालाँकि उक्त श्वेत कांस्टेबल को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन अश्वेत इससे संतुष्ट नहीं हैं और अब निर्णायक प्रतिरोध के संकल्प के साथ सड़कों-गलियों में उतर गए हैं। उनकी लड़ाई पुलिस से नहीं है, सामजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था से है।
अश्वेत विरोध का विस्फोट ऐसे समय हुआ है जब कोरोना वायरस के कारण 4 करोड़ अमेरिकी बेरोज़गार हो चुके हैं, एक लाख से अधिक लोग मर चुके हैं और 18 लाख प्रभावित हैं। हर रोज़ संख्या बढ़ रही है। इसी वर्ष राष्ट्रपति का चुनाव भी होना है। रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार के रूप में डोनॉल्ड ट्रम्प दूसरी बार चुनाव अखाड़े में उतर रहे हैं। उनका सामना डेमोक्रैटिक पार्टी के प्रत्याशी से है।
आमतौर पर यह माना जा रहा था कि 2008 के चुनावों में डेमोक्रैट प्रत्याशी अश्वेत बराक ओबामा के दो बार राष्ट्रपति (2008 -2012) चुने जाने के बाद श्वेत-अश्वेत द्वंद्व हमेशा के लिए समाप्त हो चुका है। अमेरिकी समाज से रंग भेद व नस्ल भेद समाप्त हो चुका है। लेकिन, इस तरह की धारणा गलत साबित हुई। कई दशक पहले अश्वेत नेता मार्टिन लूथर किंग जूनियर का बलिदान व्यर्थ गया। रंगभेद के विरुद्ध अहिंसक ढंग व गांधी मार्ग से लड़ने वाले लोकप्रिय नेता किंग की 4 अप्रैल,1968 को श्वेतों ने हत्या कर दी थी। इसके बाद संघर्ष का दौर चला। चालीस साल बाद अमेरिकी इतिहास में पहली दफा कोई ब्लैक व्यक्ति (ओबामा) संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति बना। इस स्वप्न की नींव 19वीं सदी में पड़ी थी जब अब्राहम लिंकन ने देश में ‘दास प्रथा’ को समाप्त किया था। इस प्रथा की समाप्ति को लेकर अमेरिका में ‘गृहयुद्ध’ भी छिड़ा; उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अमेरिका आमने-सामने आ गए। खैर ! अंत में जीत राष्ट्रपति लिंकन की सेनाओं की ही हुई। लेकिन इसकी कीमत लिंकन को अपने प्राणों से चुकानी पड़ी। राष्ट्रपति लिंकन की वाशिंटन में 15 अप्रैल, 1865 को उस समय हत्या कर दी गयी जब वे फोर्ड थिएटर में नाटक देख रहे थे। संयोग से इस जगह को मैं देख चुका हूँ। अश्वेतों के प्रति उनकी भावनाओं को सही ढंग से प्रदर्शित किया गया है।
विडंबना देखिये, इस घटना के 103 वर्ष बाद किंग के जीवन का भी हिंसक ढंग से पटाक्षेप कर दिया गया। जबकि वे बेहद शांति प्रिय थे। वैसे भी अश्वेत अपने बच्चों को घर पर ही समझा देते हैं कि वे श्वेतों से बाहर कोई पंगा न लें। झुक कर चलें। मिल-जुल कर काम करें। एक प्रकार से ‘दब्बूपन’ की भावना बच्चों-किशोरों में परिवार से ही पैदा हो जाती है। यदि कोई नागरिक हीनता के साथ बड़ा होता है तो उसकी निष्ठा राष्ट्र के प्रति कैसी रहेगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। अश्वेत कितनी शांति से रहना चाहते हैं, इसका अनुभव एक यात्रा के दौरान न्यूयॉर्क में एक अफ़्रीकी महिला के यहां रूकने के दौरान मुझे हुआ। उक्त महिला ने जहां ओबामा व किंग की तस्वीरें लगा रखी थीं वहीँ गांधी जी की भी। उनका एक कथन दीवार से झूल रहा था: जैसा परिवर्तन समाज में लाना चाहते हो, पहले स्वयं वैसा बनों। इस छोटी सी घटना से इसका अंदाज़ लगा सकते हैं कि अश्वेत किस भावना के साथ जीना चाहते हैं।
2016 में डोनाल्ड ट्रम्प के चुनाव से रंगभेद का मुद्दा फिर से केंद्र में आ गया है, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि कॉर्पोरट किंग ट्रम्प के समर्थन में दक्षिण पंथी शक्तियों के साथ साथ चरम दक्षिणपंथी शक्तियों का मनोबल बढ़ा है। देश के कुछ इलाकों में सक्रिय ‘कु क्लुक्स क्लान’ (के.के. के. नाम से कुख्यात) के लोग अमेरिका में श्वेत वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं, अश्वेतों से नफरत करते हैं। वे ब्लैक को फिर से दास बनाकर रखना चाहते हैं। उन्हें दूसरे दर्जे (सेकंड क्लास) का नागरिक बनाना चाहते हैं। ट्रम्प के जीतने से ऐसी शक्तियों को बल मिला है। श्वेतों की उपचेतना में जमी अश्वेतों के विरुद्ध नफरत फिर से सतह पर आने लगी है। चरम श्वेतपंथियों में एक मनोवैज्ञानिक साहस अश्वेतों के खिलाफ हिंसा के लिए पैदा हुआ है।
यदि हम अपने ही देश भारत पर नज़र डालें तो 2014 में नरेंद्र मोदी-शासन के उदय से चरम दक्षिण पंथ उग्र हुआ; मोब लिंचिंग शुरू हुई; लव जिहाद की घटनाएं हुईं; समाज में असहिषुणता का परिवेश बना; कुछ राज्यों में जाति हिंसा के शिकार दलित हुए; गोली मारो गद्दारों को जैसे नारे लगे; समुदाय विशेष के खिलाफ घृणा का माहौल बना। यहीं 1977 के जनता शासन काल को याद दिलाना भी प्रासंगिक रहेगा। जब आपात काल के बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार सत्ता में आई थी तब दलित व आदिवासियों के खिलाफ हिंसा भड़की थी क्योंकि आपातकाल के दौरान भूमिहीन दलित व आदिवासियों को भू मालिक बनाया गया था, बंधक श्रमिक प्रथा समाप्त की गई थी। इसे सहन नहीं कर सकी ग्रामीण भारत की सवर्ण सामंती शक्तियां। चूंकि मैंने इस हिंसा की इस परिघटना को कवर किया है इसलिए मैं कह सकता हूँ कि जातिगत-रंगगत-नस्ल गत-धर्म गत पूर्वाग्रह व घृणा आसानी से समाप्त होती नहीं है, कुछ समय के लिए विलुप्त ज़रूर हो जाती है। सवर्ण स्वयं में झाँक कर देखें कि कहीं उनमें ‘श्वेत’ तो छिपा नहीं है!
अमेरिका के अश्वेतों का व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध अब दूर तलक जाएगा। यह लड़ाई सिर्फ अश्वेतों तक ही सीमित नहीं रहेगी बल्कि दुनिया के शोषित-उत्पीड़ित वर्गों को भी नए अंदाज़ में प्रभावित किए बिना नहीं रहेगी। समाज के दबे-कुचलों में नई शक्ति का संचार करेगी। आज सत्ता में मदान्ध वर्ग की नज़र में प्रतिरोध के पक्षवाले “क़यामत के दूत“ (प्रोफेट्स ऑफ़ डूम) और “गिद्द“ (वल्चर्स) हैं। ऐसे वर्ग को इस देश के प्रतिरोध की विरासत को भी नज़र में रखना होगा। याद रखें, पूँजी या अर्थव्यवस्था से कहीं अधिक महत्वपूर्ण मनुष्य की ज़िंदगी है। लाखों श्रमिक सड़कों पर मौज-बहार के लिए नहीं उतरे हैं। आनंद के लिए रेल की पटरियों पर नहीं सोते हैं और न ही स्वर्ग की इच्छा के लिए रेल से कटते हैं। ट्रेनों में जान देते हैं। क्या सड़क किनारे प्रसव करने में मज़दूर स्त्री को ख़ुशी होती है? यदि मदान्ध वर्ग को यह सब झेलना पड़े तब क्या होगा, इसे याद रखना चाहिए। यदि किसी भी देश का राज्य सिर्फ पूँजी के प्रति ही समर्पित दिखाई देगा तो प्रतिरोध भी उतना ही गहन व व्यापक रहेगा। कहीं ऐसा न हो कि अमेरिकी अश्वेतों का प्रतिरोध कोरोना वायरस के समान विश्वव्यापी न बन जाए!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया विजिल सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य हैं।