आज के सभी अंग्रेजी अखबारों में कल शुरू हुई उड़ान के यात्रियों का कष्ट पहले पन्ने पर प्रमुखता से है। मैं जो अंग्रेजी-हिन्दी के अखबार देखता हूं उनमें टेलीग्राफ को छोड़कर सबने इस खबर को लीड बनाया है। खबर यह है कि अंतिम समय में कुछ यात्रियों के टिकट रद्द कर दिए गए और कुछ राज्यों ने उड़ान के लिए तैयार होने से मना कर दिया। इसलिए कई उड़ानें रद्द करनी पड़ी और यात्रियों को परेशानी हुई। बेशक यात्रियों की परेशानी और व्यवस्था की गड़बड़ी खबर है और प्रमुखता से छपनी चाहिए। लेकिन आज ही खबर है करीब 40 श्रमिक स्पेशल ट्रेन रास्ता भटक गईं, जिससे हजारों रेल यात्रियों को भारी मुसीबत का सामना करना पड़ा। ट्रेन गंतव्य पर तो देर से पहुंची ही रास्ते में खाना पानी नहीं मिलने से परेशानी हुई और रेलवे ने कह दिया कि ज्यादा ट्रैफिक होने के कारण रूट डायवर्ट करना पड़ा और इस कारण ट्रेन देर हुई।
अव्वल तो डायवर्ट करने का कारण गलत बताया जा रहा है, यकीन करने लायक नहीं है फिर भी अगर ऐसा सोच-समझ कर किया गया तो यात्रियों के खाने-पीने का इंतजाम भी किया जाना था, जो नहीं के बराबर हुआ। रेल मंत्री ट्वीटर पर अलग ही दुनिया बयान कर रहे हैं। क्या यह खबर कम महत्वपूर्ण है? क्या इसे पहले पन्ने पर नहीं होना चाहिए था? एक तरफ कल शुरू हुई उड़ान और दूसरी तरफ एक मई से चल रही श्रमिक स्पेशल ट्रेन और उनका रास्ता बदल दिया जाना। ऐसे कि ट्रेन अपने गंतव्य तक पहुंचने में दूने से भी ज्यादा समय लगा रही हैं, क्या साधारण बात है? यह खबर पहले पन्ने पर क्यों नहीं होनी चाहिए? हिन्दुस्तान टाइम्स में मुख्य खबर के साथ एक परिवार की खबर है जो सर्जरी के बावजूद यात्रा नहीं कर पाया और पांच साल के एक बच्चे ने अकेले यात्रा की। रेल यात्री की ऐसी कोई खबर आपने पहले पन्ने पर देखी जबकि खाना नहीं मिलने से यात्री के मर जाने की खबर भी है।
हिन्दी अखबारों में नवोदय टाइम्स ने पहले पन्ने पर एक खबर छापी है, श्रमिकों की ट्रेन लेकर गर्माई सियासत। इसकी खास बातें हैं 1) केंद्र के निशाने पर गैर भाजपाई राज्यों की सरकारें 2) राजस्थान-झारखंड के बाद अब महाराष्ट्र से भिड़ंत और 3) ट्रेन को लेकर रात भर चलता रहा ट्वीटर वार। राजस्थान पत्रिका में रेलवे से संबंधित दो खबरें पहले पन्ने पर है लेकिन 40 ट्रेन रास्ता भटक गईं, नहीं है। जो खबर पहले पन्ने पर है वह है, 700 जिलों से श्रमिक ट्रेनें चलाने को तैयार: गोयल और सीएम ठाकरे का ट्रेनें उपलब्ध न कराने का आरोप, रेल मंत्री का ‘ट्वीटर वार’। इस खबर का फ्लैग शीर्षक है, जुबानी जंग : 5 घंटे में पीयूष गोयल ने कर दिए 10 ट्वीट। साफ है कि रेल मंत्रालय से संबंधित खबरों की कमी नहीं है लेकिन उन्हें पहले पन्ने पर लेने की इच्छाशक्ति नहीं है।
दैनिक जागरण ने विमानयात्रियों की तकलीफ की खबर का शीर्षक लगाया है, राज्यों की पाबंदियों से 639 उड़ानें रद्द। फ्लैग शीर्षक है, लॉक डाउन के कारण दो महीने बाद अफरा तफरी के बीच घरेलू उड़ान सेवा सीमित स्तर पर शुरू। लेकिन रेल यात्रियों की परेशानी को अखबार में पहले पन्ने पर जगह नहीं मिल पाई है। नवभारत टाइम्स ने विमान यात्रियों की खबर का शीर्षक लगाया है, ये सफर बहुत है कठिन मगर..। इसके अलावा शीर्षक में जो बातें हाईलाइट की गई हैं वो हैं, मुसाफिरों को मेसेज भी नहीं मिला, वे कन्फ्यूजन में रहे और पहले दिन अफरातफरी, आधी से भी कम उड़ानें शुरू हो सकीं। सवाल उठता है कि श्रमिक स्पेशल के यात्रियों की चिन्ता कौन करेगा। उनकी ऐसी परेशानियां लीड क्यों नहीं बनीं?
वैसे भी, विमान यात्री, श्रमिक स्पेशल के यात्रियों के मुकाबले सक्षम होते हैं। वे अपनी बात खुद ट्वीटर के माध्यम से रख सकते हैं, लड़ सकते हैं पर श्रमिकों का ख्याल तो अखबारों को ही रखना चाहिए। खास कर हिन्दी अखबारों को। नवभारत टाइम्स ने एक और खबर प्रमुखता से छापी है, एयर इंडिया की नहीं, सेहत की चिंता करे सरकारः कोर्ट। जनहित की इस खबर को भी अखबारों ने वैसी प्रमुखता नहीं दी है जैसी हवाई यात्रियों की तकलीफ को दी है। आइए अब 40 ट्रेन के रास्ता भटक जाने की कहानी भी बता दूं जिसे अखबारों ने कम महत्व दिया है। इसमें दिलचस्प यह है कि एक-दो नहीं 40 श्रमिक स्पेशल रास्ता भटक गई क्योंकि ट्रैफिक ज्यादा है। और ट्रैफिक ज्यादा क्यों है? क्या लोग अपनी निजी रेलगाड़ियां लेकर पटरी पर आ गए हैं जिसका पता सरकार को नहीं था? बेसिरपैर का झूठ!
रेलवे ने लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों को खाना देने और उनकी सुविधाओं का ख्याल रखने की खबरों के बीच कोई 40 दिन बाद एक मई से श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाने की घोषणा की। पहले इसके किराए को लेकर विवाद हुआ फिर सोनिया गांधी ने किराया देने की पेशकश की जो मामला राज्य सरकारों पर डाल दिया गया और ट्रेन का परिचालन लगभग गोपनीय हो गया। परेशान मजदूर जैसे-तैसे पिसते रहे। उनकी तकलीफ देखकर प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश सरकार से एक हजार बसें चलाने की अनुमति मांगी। अनुमति तो नहीं दी गई राजनीति पूरी हुई। इस बीच पता चला कि मुंबई से गोरखपुर के लिए चली ट्रेन राउरकेला पहुंच गई। कोई भी यही कहेगा कि ट्रेन रास्ता भटक गई, लेकिन रेलवे ने कहा कि उनका रास्ता बदला गया है। इसपर विश्वास दिलाने की पूरी कोशिश हुई पर यह नहीं बताया गया कि रास्ता बदला गया तो यात्रियों को सूचना क्यों नहीं दी गई, उनके खाने-पीने का बंदोबस्त क्यों नहीं किया गया।
इसके बाद पता चला कि रास्ता भटकने या रास्ता बदलने वाली एक नहीं चालीस ट्रेन है। इसकी खबर कुछ ही अखबारों ने छापी वह भी अंदर के पन्ने पर जबकि विमान यात्रियों की खबर आज सभी अखबारों में लीड है। अब ऐसी खबर है कि एक-दो नहीं, बल्कि करीब 40 ट्रेनों का रास्ता बदला गया है। रेलवे की सफाई है कि रूट ‘व्यस्त’ होने की वजह से बदला गया रास्ता। सवाल है कि रूट व्यस्त थे तो आपने ट्रेन चलाई क्यों। समय आगे या पीछे करने की जिम्मेदारी किसकी थी। और फिर भी अगर ट्रेन पटरी पर आ गई तो उसे 1000 किलोमीटर घुमाने से बेहतर था कि कहीं रोककर रखते। यात्रियों को भी कम परेशानी होती और फालतू घूमने पर संसाधन भी व्यर्थ नहीं जाता। अखबारों की खबरों के अनुसार 23 मई को ही कई ट्रेनों का रास्ता बदला गया। अगर यह व्यवस्थित, नियंत्रण में और सामान्य था, जैसा दावा किया जा रहा है तो कितनी ट्रेनों का रास्ता बदला गया इसकी जानकारी भी दी जा सकती थी। कायदे से एक प्रेस विज्ञप्ति और उसे ट्वीट करके भी।
ऐसा नहीं किया गया, दूसरी तरफ खबर है कि एक श्रमिक स्पेशल ट्रेन बैंगलोर से 1450 लोगों को लेकर बस्ती (उत्तर प्रदेश) के लिए चली पर गाजियाबाद पहुंच गई। इस तरह, मुंबई के लोकमान्य टर्मिनल से 21 मई की रात पटना के लिए चली ट्रेन पुरुलिया पहुंच गई। इसी तरह, दरभंगा के बजाय ट्रेन राउरकेला पहुंच गई। रेलवे बोर्ड के चेयरमैन विनोद कुमार यादव के अनुसार 80 फीसदी ट्रेनें यूपी और बिहार पहुंच रही हैं, जिससे भीड़-भाड़ काफी अधिक बढ़ गयी है। ऐसे में रेलवे को कई ट्रेनों का रूट बदलना पड़ा है। सच यह है कि 100 फसदी ट्रेन भी बिहार पहुंच रही होती तो सामान्य दिनों के मुकाबले बहुत कम होता। यही नहीं, अब रेलवे बस का किराया भी वसूल रहा है। बैंगलोर से गाजियाबाद पहुंची ट्रेन के यात्रियों ने बताया कि उनसे 1020 रुपए लिए गए हैं, जिसमें से 875 रुपए ट्रेन का किराया है और 145 रुपए बस का किराया है। खबर यह भी है कि पटना से दानापुर बस से और फिर ट्रेन से मुजफ्फरपुर पहुंचाने में 15 घंटे लगे जबकि बस से तीन घंटे में पहुंचाया जा सकता था। ऐसे कितने ही मामले हैं लेकिन पहले पन्ने पर नहीं।
संजय कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार हैं और अनुवाद के क्षेत्र के कुछ सबसे अहम नामों में से हैं।