1994 में हुए रवांडा नरसंहार त्रासदी के मुख्य अभियुक्तों में एक फेलीशेन काबूगा को फ्रांस से गिरफ्तार किया गया है। फेलिसीन काबूगा के ऊपर हुतू चरमपंथी समूहों की मदद करने का आरोप है। तुत्सी समुदाय के ख़िलाफ़ हुतू समुदाय के लोगों को भड़काने के लिए जिस (मीडिया) रेडियो चैनल का इस्तेमाल हुआ उसके लिए भी काबूगा के द्वारा आर्थिक मदद की गयी थी। इस गिरफ़्तारी की सूचना फ्रांस के कानून मंत्रालय ने दी है। बताया जाता है कि फेलीशेन काबूगा अपनी असली पहचान छिपा कर रह रहा था। 2002 में गठित इंटरनेशनल क्रिमिनल ट्रिब्यूनल द्वारा काबूगा रवांडा में हुए नरसंहार में बड़ी भूमिका निभाने के मामले में दोषी है। जिसके बाद काबूगा की तलाश काफ़ी समय से चल रही थी। दरअसल फेलीशेन काबूगा की कहानी, भारतीय मीडिया के लिए भी एक सबक या मिसाल हो सकती है, जहां पिछले कुछ सालों से कई पत्रकार और टीवी चैनल दिन-रात सांप्रदायिक प्रोपेगेंडा ही अपना मकसद बना कर काम कर रहे हैं।
क्या था रवांडा नरसंहार
6 अप्रैल 1994 को रवांडा के राष्ट्रपति को एक हवाई यात्रा के दौरान मार दिया गया था। लंबे समय से जारी सांप्रदायिक माहौल बनाने की कोशिशों के ही तहत, इस हत्या का आरोप लगा तुत्सी समुदाय के ऊपर और उसके दूसरे ही दिन 7 अप्रैल 1994 को शुरू हुई हिंसा नरसंहार में बदल गयी और अगले 100 दिनों तक लगातार जारी रही। 100 दिन तक चले इस घटनाक्रम में लोग अपने रिश्तेदारों से लेकर पड़ोसियों और यहां तक की अपनी पत्नियों की भी हत्याएं कर रहे थे। इस नरसंहार में करीब 8 लाख लोगों की नृशंस हत्या की गयी। साथ ही हजारों औरतों के साथ यौन अपराध हुए। उनके साथ गैंगरेप किया गया। सबसे अधिक नुकसान तुत्सी समुदाय का हुआ। यहां तक की तुत्सी समुदाय के लोगों की मदद करने वाले और उनके प्रति संवेदना दिखाने वाले हुतू लोगों को भी मार दिया जाता था।
रवांडा के रेडियो आरटीएलएम और कंगूरा पत्रिका की भूमिका
इस घटना में वहां की मीडिया का बड़ा हाथ रहा। हुतू समुदाय के लोगों को रवांडा के रेडियो चैनल RTLM और कंगूरा पत्रिका के माध्यम से लगातार तुत्सी समुदाय के लोगों को मारने के लिए उकसाया गया। अभी गिरफ्तार हुए फेलीशेन काबूगा के ऊपर हुतू समुदाय को आर्थिक मदद देने और आरटीएलएम रेडियो को स्थापित करने के लिए आर्थिक मदद का आरोप है। आरटीएलएम रेडियो के माध्यम से तिलचट्टों (तुत्सी समुदाय) का सफाया किये जाने की बात कही गयी। इस रेडियो चैनल के माध्यम से सिर्फ़ ये रट लगायी जाती रहती थी कि ये लोग (तुत्सी) हमारे देश पर कब्ज़ा करे लेंगे। हमारे देश में तुत्सियों का साम्राज्य बन जायेगा। हमें ये तुत्सी समुदाय के लोग हमेशा के लिए गुलाम बना लेंगे।
‘तिलचट्टा’, ‘ये लोग’, ‘देश पर क़ब्ज़ा’..ये सब कुछ सुना-सुना नहीं लगता?
रवांडा में जो कुछ हुआ था, उससे ये साफ़ है कि लोगों को कमज़ोर और अल्पसंख्यक के ख़िलाफ़ हिंसा और जनसंहार के लिए, बहुसंख्यक को उकसाने में मीडिया की कितनी बड़ी भूमिका हो सकती है। पिछले 6-7 सालों में लगातार भारतीय मीडिया भी इसी राह जाती दिखाई दे रही है। मेनस्ट्रीम हिंदी और अंग्रेज़ी मीडिया में भी अधिकतर जिस तरह के कार्यक्रम और बहसें चलती हैं, वो आरटीएलएम के द्वारा उकसाए जाने की ही शुरआती प्रक्रिया जैसी दिखाई देती है। टीवी के संपादक तक अपने प्राइम टाइम शोज़ में बहुसंख्यक पर अनजाने ख़तरे की बात करते हैं। डिबेट्स में भी आये दिन ये डर दिखाया जाता है कि कहीं ये देश इस्लामिक राष्ट्र न बन जाये। तमाम तरह के यूट्यूब चैनल, न्यूज़ वेबसाइट आपको इस्लामोफोबिया से ग्रस्त दिखाई देंगे। सोशल मीडिया के माध्यम से हजारों-लाखों ग्रुप बने हुए हैं। जहां दिन भर हिंदू राष्ट्र बनाना है, लव जिहाद रोको, मुस्लिमों की बढती जनसंख्या जैसे तर्कविहीन पोस्ट और कार्यक्रम चलाए जाते हैं।
पालघर में हुई साधुओं की भीड़ द्वारा नृशंस हत्या को एक संपादक ने ऐसा सांप्रदायिक रंग दिया कि । दरअसल न्यूज़ चैनल और सोशल मीडिया ने किसी व्यक्ति की हत्या को धर्मों में और जातियों में बांटने का जो काम शुरू किया है। उसकी चपेट में हर धर्म हर जाति अंततः आएगी। कोरोना महामारी के दौरान तबलीगी ज़मात का मामला सामने आने के बाद से ही देश भर के मुसलमानों को टारगेट किया जाने लगा। मुस्लिमों को लेकर जिस तरह की नफ़रत फैलायी जा रही है। उसको देखते हुए अरब देशों के बड़े संगठन (OIC) ने भारतीय समाज और भारतीय मीडिया पर मुस्लिमों के साथ भेदभाव का आरोप लगाया। जिसके बाद सरकार को सचेत होना पड़ा और हमारे प्रधानमंत्री ने कहा भी कि कोरोना वायरस किसी धर्म, जगह या जाति देखकर नहीं फ़ैलता। उसके बावजूद भी कोरोना वायरस फ़ैलाने के लिए उन्हें ही ज़िम्मेदार माना गया। हमने इससे जुड़ी स्टोरी भी की थी। जहाँ एक मुस्लिम गर्भवती महिला का इलाज सिर्फ़ इसलिए नहीं किया जाता क्योंकि वो मुस्लिम है। उसे चप्पलों से मारा जाता है। बाकी चिलचट्टा शब्द को ध्यान से फिर पढ़िएगा…अपने देश के नंबर दो के केंद्रीय मंत्री ने इसकी जगह ‘दीमक’ का इस्तेमाल किया था…
असली मुद्दे कहीं दूर हैं
जिस वक़्त पत्रकारों और मीडिया को दरअसल जनसंहार रोकने में भूमिका निभानी थी, आरटीएमएल रेडियो लगातार हिंसा भड़काने का काम कर रहा था। इस पर भड़काऊ भाषणों से लेकर फीचर कार्यक्रम प्रसारित होते थे, जिसमें बाक़ायदा एक पूरी नस्ल को साफ़ करने की बात होती थी। ठीक वैसे ही, जैसे हमारे यहां भी मीडिया के कैमरे इंतज़ार में रहते हैं कि अल्पसंख्यक समुदाय के किसी साधारण से व्यक्ति से भी कोई ग़लती हो जाए और उसे पूरे समुदाय की ग़लती बनाकर पेश कर दिया जाए। नीचे की तस्वीर में ऐसे ही एक रेडियो प्रसारण की बानगी है।
सड़क, रोजगार, राशन, ग़रीबी और अन्य ज़मीनी मुद्दों को छोड़कर भारत की अधिकतर मीडिया सिर्फ़ साम्प्रदायिकता फ़ैलाने और उससे जुड़े कार्यक्रमों में ही व्यस्त है। (इस पर भी हमने एक स्टोरी की थी) कई बार सोशल मीडिया पर टीवी चैनलों और अखबरों के सोशल मीडिया हैंडल से ग़लत ख़बरें शेयर की जाती हैं। पुलिस और अन्य फैक्टचेक वेबसाइटों के द्वारा इन खबरों का खंडन भी किया जाता है। लेकिन फ़ेक न्यूज़ फ़ैला कर मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नफ़रत बढ़ाने का जो सिलसिला शुरू है वो अब रुकता नहीं दिख रहा है। ठीक यही आरटीएमएल रेडियो और कंगूरा पत्रिका भी रवांडा में कर रहे थे। लगातार एक आबादी के ख़िलाफ़, दूसरी को उकसाना।
टीआरपी देखकर पत्रकारिता करने वाले अधिकतर मीडिया संस्थानों के कार्यक्रमों की हेडलाइंस और उनके वीडियो के थंबनेल देखकर लगता है कि युद्ध की घोषणा की जा रही है। लोगों के अंदर धीरे-धीरे साम्प्रदायिकता का ज़हर भरा जा रहा है। प्रोपेगंडा के तहत ख़ास क़िस्म के लोगों को बुलाकर उनसे बहस करायी जाती है। अफ़वाहों के नाम पर हुई हत्याओं को मुस्लिमों से जोड़कर, ऐसी ज़मीन पर बात की जाती है, जिसका कोई आधार नहीं होता। बड़ी बात ये भी है कि जिस तरह का प्रोपेगंडा दिखाया जा रहा है। उसको समाज के एक बड़े हिस्से से स्वीकार्यता मिल रही है। एसी दफ्तरों में बैठकर, मेकअप करके, बड़ी-बड़ी लाइटों की चमक में सामाजिक ध्रुवीकरण और तथ्यहीन, नफ़रत भरी खबरों का जो कार्यक्रम किया जाता है। वो सोशल मीडिया के माध्यम से उन जगहों तक भी जाता है। जहां लोगों के पास दो जून की रोटी का भी इंतजाम नहीं होता। लेकिन इस्लामिक राष्ट्र, मुस्लिमों की बढ़ती आबादी के नकली डर का इंतजाम इन मीडिया संस्थानों से होता रहता है। समय रहते सतर्क नहीं हुए तो कई रवांडा रेडियो और कंगूरा जैसी पत्रिकाएं भविष्य में दिखाई देने लगेंगी। हमारे अपने फेलीशीन काबूगा इस तैयारी में ही लगे हैं।
लेकिन दरअसल इस बारे में सोचना, मीडिया और पत्रकारों से ज़्यादा नागरिक के तौर पर हमको है। हमको सोचना है कि क्या हमको सही और ग़लत का फ़र्क नहीं पता कि मीडिया हमको भड़का सकता है और हमारी राय – वो शेप कर सकता है? ये सवाल हमको अपने आप से रोज़ पूछना होगा। वरना जो विभीषिका रवांडा में थी, उसका थोड़ा सा अंदाज़ा हम होटल रवांडा फिल्म देखकर लगा सकते हैं। क्योंकि किसी भी समुदाय को जब हम मनुष्य मानने से इनकार करने लगते हैं, तो दरअसल मनुष्यता हमारे अंदर मर रही होती है…फिर चाहें हम नफ़रत से उसे कॉक्रोच कहें…या दीमक…
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