राजनीति की परिभाषा विभिन्न परिवेश में अलग होती है. लेकिन, जब किसी याचिका को नकार दिया जाए और याचिका डालने वाले को जुर्माना लगाने तक की धमकी मिल जाए तो वही परिभाषा विचित्र हो जाती है. देश के सबसे ऊंचे न्यायालय सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक जनहित याचिका यह कहकर खारिज कर दी थी कि “याचिका राजनीतिक रंग का शिकार है”. जबकि याचिका में, केंद्र सरकार से कोरोनावायरस के लिए घर-घर जाकर परीक्षण करने के निर्देश देने की मांग की गयी थी.
न्यायमूर्ति एनवी रमना, न्यायमूर्ति एसके कौल और न्यायमूर्ति बीआर गवई की पीठ के समक्ष पेश होकर याचिकाकर्ता वकील शाश्वत ने उन्हें अपनी याचिका सुनाई, जिसमें पीएम केयर्स कोष की वैधता को भी चुनौती दी गई थी. याचिका से अवगत होते ही न्यायिक पीठ नाराज़ हो गयी. उन्होंने याचिका वापस नहीं लेने पर याचिकाकर्ता पर जुर्माना लगाने की धमकी दे डाली. ये अपने आप में हैरानी की बात होनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट को इस याचिका को सुनने तक की ज़रूरत समझ में नहीं आई और जिस याचिका पर कोई बहस या सुनवाई ही नहीं की गई, उसको लेकर जुर्माने की धमकी दे दी गई.
न्यायमूर्ति रमना ने याचिकाकर्ता को चेतावनी देते हुए कहा, “याचिका राजनीतिक रंग का शिकार है. या तो आप इसे वापस ले लें या हम जुर्माना लगा देंगे”. अब सवाल उठता है कि क्या किया जाना चाहिए अगर आपको केंद्र सरकार की किसी नीति के पीछे की नीयत ठीक नहीं लग रही? सुनवाई के लिए या शिकायत के लिए कहां जाना चाहिए?
क्या है पीएम केयर?
ये एक ट्रस्ट है जो कथित तौर पर कोरोनावायरस से निपटने में चंदा जुटाने के लिए हाल ही में सामने आया. आंख मूंदकर देखने में “पीएम केयर्स” बड़ा लुभावना लगता है. सुनने में कानों में रस घोल देता है, पर आंख खोलकर देखने पर आप के मन में सवाल आने ही चाहिए.
पूछा जा सकता है कि जब सन 1948 से सरकारी पीएम रिलीफ़ फंड या प्रधानमंत्री राहत कोष मौजूद है तो फिर एक नए ट्रस्ट की क्या ज़रूरत पड़ गई? शक की सुई और तेज़ इसलिए भी हो जा रही है, क्योंकि ख़ुद पीएम की तरह पीएम केयर्स भी हर जांच से परे हो गया है. बताते चलें कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) तक की ऑडिट अभी कैग कर रही है.
पीएम केयर्स, कैग यानी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के पंजों से बाहर होगा और यही वजह है कि कोष से किए गए ख़र्च और उनके उपयोग का कोई लेखा-जोखा नहीं रहेगा. क्या यह शक की वजह नहीं होनी चाहिए? पीएम केयर्स को लेकर पारदर्शिता का न होना शर्मनाक है, क्योंकि इसके साथ प्रधानमंत्री का नाम जुड़ा हुआ है. पीएम राहत कोष भी कैग की परिधि में नहीं आता है पर कैग उसके खर्चे पर सवाल उठाता रहा है, और उसका लेखा-जोखा जनता के सामने मौजूद होता है.
सुप्रीम कोर्ट को इतना नाराज़ होने की क्या ज़रूरत थी?
कुछ रोज़ पहले बीजेपी नेता नलिन कोहली ने पीएम केयर्स को लेकर कहा था, “इस मुद्दे पर राजनीति करने की कोई ज़रूरत नहीं है.” लेकिन अजीब ये है कि सुप्रीम कोर्ट भी ऐसा ही स्टेटमेंट दे देता है. कम से कम बीजेपी प्रवक्ता के राजनैतिक बयान और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी में अंतर की अपेक्षा तो हम कर ही सकते हैं।
क्या पीएम केयर में सचमुच झोल है?
देश के कई नामी-गिरामी और बहुचर्चित लोगों ने 28 मार्च को फंड के खुलते ही दनादन इसमें पैसे डालने शुरू कर दिए थे. सवाल इसलिए भी उठता है कि ख़ुद प्रधानमंत्री ने कई बार पीएम केयर्स के लिए प्रचार किया था. किसी भी ट्रस्ट की ये खासियत रही है कि वो प्राइवेट होती है, प्रधानमंत्री जो सरकार के मुखिया हैं, उनको क्यों एक “ट्रस्ट” की ज़रूरत आन पड़ी? ट्रस्ट को टैक्स से छूट इसलिए भी दी जाती है क्योंकि वो सिर्फ़ मदद करने के मकसद से बनाई जाती है, जिसका राजनीतिक प्रचार-प्रसार से कोई लेना-देना नहीं होता. पर पीएम केयर इसका लगभग उल्टा है. इसका ख़ूब प्रचार किया गया और कोरोनावायरस के समय भी प्रधानमंत्री ने स्वास्थ्य-सेवाओं के सवाल को जिस तरह से जनता की निगाहों से ओझल कर दिया, वह वाकई काबिल-ए-ग़ौर है. पीएम केयर को बनाने में ट्रस्ट बनाने की किन प्रक्रियाओं को फॉलो किया गया या नहीं, यह भी कोई नहीं जानता.
ऊंची दुकान
पीएम केयर्स का ऐलान हुआ, उसके कुछ मिनटों के भीतर ही अक्षय कुमार ने 25 करोड़ दे दिये, आईएएस संगठन ने 21 लाख जमा किए और फोनपे ने लिंक जारी कर दिया, जिसके ज़रिए पीएम केयर में धन राशि जमा की जा सकती थी. यह महज़ संयोग नहीं है कि प्रधानमंत्री अक्षय कुमार को इंटरव्यू में आम खाने की विधि बताते हैं. अब आम का मौसम आने वाला है, इस बार कौन आम खाएगा ये वक़्त बताएगा, पर पीएम केयर्स सोची-समझी रणनीति के तहत लेकिन हड़बड़ी में किया गया फैसला ही लग रहा है.
प्रधानमंत्री के दुनियाभर में फ़ॉलोअर हैं, उनके एक ट्वीट से न जाने कितने देशों में रह रहे भारतीयों ने पैसे जमा किए होंगे. अगर वो पैसा जमा करेंगे तो पीएम ने एफसीआरए की परमिशन कब ली, परमिशन ली भी या नहीं, देश की जनता इस बात से भी अनभिज्ञ है. ज्ञात हो कि दूसरी छोटी-मोटी संस्थाओं को सरकार ने एफसीआरए के कानून के तहत काफ़ी परेशान कर रखा है और उनके पास, काम करने के लिए फंड नहीं आ पा रहे हैं.
फीका पकवान
पीएम केयर्स को लेकर चल रही बात हो-हल्ला मचा ही रही थी कि अप्रैल की शुरुआत में ही मामला सामने आया कि दिल्ली विश्वविद्यालय टीचर्स संघ ने कुलपति पर यह इल्ज़ाम लगाया था कि उन्होंने लगभग चार करोड़ रुपए से ऊपर की राशि पीएम केयर्स में ट्रांसफर कर दी, जिसको प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा होना था. कुलपति ने पहले कहा था कि सभी टीचर्स अपने एक दिन की सैलरी प्रधानमंत्री राहत कोष को दें. यूजीसी ने जब 28 मार्च को ये बयान जारी किया कि कॉलेज पीएम राहत कोष में मदद राशि भेजे, तब पीएम केयर्स का कोई ज़िक्र ही नहीं था क्योंकि यह उसी दिन जल्दीबाजी में अस्तित्व में आया था. पीएम केयर में आए फंड्स का कहां और कैसे इस्तेमाल हो रहा है, फिलहाल तो यह अनुमान ही लगाया ही जा सकता है.
हज़ारों करोड़ बट्टे ख़ाते में, गरीब भूखा?
भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने 30 सितंबर, 2019 तक 68,000 करोड़ रुपये तक के ऋण को बंद कर दिया है, यह सूचना का अधिकार (RTI) एक्टिविस्ट साकेत गोखले ने अपने ट्विटर पर बताया. इसमें मेहुल चोकसी से लेकर विजय माल्या और हीरों के कारोबारी जतिन मेहता तक के नाम शामिल हैं. इतनी राशि में 45 करोड़ कोरोनावायरस जांच किट आ सकती है. आरटीआई ने सुप्रीम कोर्ट के 2015 के फैसले का हवाला देते हुए यह बताने से इनकार कर दिया कि विदेशी बैंकों में किसका कितना पैसा जमा है. साफ़ है सरकार उनके नाम बचा रही है और इन सबमें सुप्रीम कोर्ट को कोई स्वतः संज्ञान लेने जैसी कोई बात नज़र नहीं आती, तो नागरिकों के पास क्या रास्ता बचता है?
रंग की गहराई और चेहरे की लाली, गुलाल कौन लगा रहा है, इस पर भी निर्भर करता है.
यह लेख युवा पत्रकार आमिर मलिक ने लिखा है. लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने हैं।