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कोरोना के बहाने अनुसंधान और विज्ञान की कुछ बातें
न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट से पता चलता है कि वैज्ञानिक पत्रिका द लैनसेट ने 31 जनवरी को ही (भारत में पहला मरीज एक दिन पहले मिला था) एक दस्तावेज प्रकाशित किया था जिसमें वैश्विक महामारी की भविष्यवाणी की गई थी। इसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि इससे निपटने की योजना कम समय में लागू करने के लिए तैयार रखी जानी चाहिए और इसमें दवाइयों से लेकर पीपीई, अस्पताल सप्लाई और आवश्यक मानव संसाधन शामिल है जो इतने बड़े पैमाने पर विश्व स्तर पर फैलने वाली महामारी से निपटने के लायक हो। पर भारत तो छोड़िए अमेरिका और इंग्लैंड ने भी इसपर ध्यान नहीं दिया। अमेरिका ने भारत को धमकाकर दवाइयां खरीदीं, भारत ने जो पीपीई मंगाए वो खराब हैं तो आप समझ सकते हैं कि तैयारियों का क्या आलम है। ऐसे में आइए विज्ञान पत्रिकाओं पर एक नजर डालें। इस बात पर विवाद रहा है कि विज्ञान पत्रिकाओं को तथ्य प्रस्तुत करने का काम करना चाहिए या नए आईडिया जेनरेट करने चाहिए। यह किए गए प्रयोग और खोज का इतिहास रखे या भविष्य की दवा और उपचार बताए। वैज्ञानिकों के बीच आपसी सलाह और चर्चा के लिए निजी चैनल हो या भोंपू हो जिससे वे जनता को अपना काम बता सकें। या सब काम करना चाहिए?
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल द लैनसेट के मुख्य संपादक रिचर्ड हॉर्टन कहते हैं, मैं समझता हूं कि इस महामारी ने हमारे बारे में हमारे अपने नजरिए को भी बदल दिया है। हम महसूस करते हैं कि हम एक ऐसा अनुसंधान प्रकाशित कर रहे हैं जो दिन प्रतिदिन इस वायरस के प्रति देश और विश्व की प्रतिक्रिया को दिशा दे रहा है। बेशक यह काम थकाऊ और अच्छी-खासी जिम्मेदारी वाला है। क्या कुछ प्रकाशित किया जाए और क्या नहीं – इससे संबंधित निर्णय की गलती से महामारी किस दिशा में बढ़ेगी उसपर घातक प्रभाव पड़ सकता है। अनुसंधान जो संभावित रूप से जीवन – मरन से संबंधित हो सकता है उसे जल्दी से जल्दी उपलब्ध कराने वाली विशिष्ट पत्रिकाओं के कई प्रकाशकों के पास अच्छे भुगतान की सुविधा भी है। इन में ‘साइंस’ और ‘द लैनसेट’ के अलावा जेएएमए (द जरनल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन ) और द न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन शामिल है। इन सबने कोरोना वायरस से संबंधित सामग्री को ऑनलाइन निशुल्क कर दिया है।
रिपोर्ट के अनुसार अनुसंधानकर्ताओं को अपनी रिपोर्ट छपने से पहले सर्वर पर पोस्ट करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है ताकि लोगों को ज्यादा से ज्यादा जानकारी मिल सके और संपादक या प्रकाशक यह तय नहीं कर रहे हैं कि दुनिया को कौन सी सूचना दी जाए या कौन सी नहीं। दूसरी ओर, इस तरह अपने प्राथमिक कार्य को साझा करके अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिक समुदाय की सहायता ही कर रहे हैं। इससे सब लोग ज्यादा कार्यकुशल और प्रभावी ढंग से मिलकर कर काम कर सकेंगे। वैज्ञानिक पत्रिकाएं मानती हैं कि उनके पाठक दूसरे वैज्ञानिक ही होते हैं आम जनता नहीं। क्या आप जानते हैं कि ऐसी पत्रिकाओं का जन्म एक महामारी के दौरान आम लोगों की मांग पर ही हुआ था। बात 1820 के दशक की है। पेरिस और फ्रांस के दूसरे शहरों में स्मॉल पॉक्स (चेचक) की महामारी फैली। उस समय इसका वैक्सीन (टीका) मौजूद था। पेरिस के एक शक्तिशाली मेडिकल संस्थान, ‘ऐकेडमी डी मेडिसिन’ ने अपने सदस्यों को जुटाकर चर्चा की कि देश को क्या सलाह दी जाए। ऐतिहासिक तौर पर इस तरह की बैठकें गोपनीय हुआ करती हैं पर फ्रेंच क्रांति के कारण सरकार की जिम्मेदारी के एक नए युग की शुरुआत हुई थी और इसमें पत्रकारों को शामिल होने दिया गया।
बैठक की जो वैज्ञानिक चर्चा बाहर गई उससे ऐकेडमी के सदस्य परेशान हुए। असल में उन्हें उम्मीद थी कि वे एक साफ और एकीकृत स्टैंड बता पाएंगे। पर जो बताया गया वह इससे काफी अलग था। इसके जवाब में ऐकेडमी ने चाहा कि प्रसारित होने वाले उसके संदेश पर उसका नियंत्रण रहे और इस तरह चर्चा का साप्ताहिक विवरण दिया जाने लगा जो साप्ताहिक पत्रिका के रूप में और फिर पत्रिका के रूप में स्थापित हो गया। और आज ऐकेडमिक जर्नल के रूप में जाना जाता है। कोई शक नहीं है कि ये जर्नल आम लोगों के लिए बहुत ही खास होते हैं। लेकिन इस समय की कोरोना महामारी ने फिर वैज्ञानिक जर्नल की पठनीयता बढ़ा दी है। इस साल जनवरी के पहले इमर्जिंग इनफेक्सस डिजीज (उभरती संक्रामक बीमारी) में सबसे ज्यादा पड़ा गया आलेख 2006 का था जिसे 20,000 व्यू मिले थे। इस समय जो सबसे ज्यादा देखा गया आलेख है वह भी 2006 का है और इसे 4,80,000 से ज्यादा व्यू मिले हैं। इसमें टी-शर्ट से खुद मास्क बनाने के निर्देश दिए गए हैं। विज्ञान पत्रिका या पोर्टल में यह दिलचस्पी कितने दिन रहेगी यह तो बाद की बात है पर सच यह है कि सरकारी अधिकारी इन्हें देखते होते तो (उपलब्ध ज्ञान / विज्ञान का लाभ उठाते) तो आज जो स्थिति है वह नहीं होती।
वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे अध्ययन या अनुसंधान पर जिन्हें कार्रवाई करनी होती है उनमें कोई भी हमारे नियंत्रण में नहीं होता। इसलिए जन स्वास्थ्य के दिशानिर्देशों का अनुपालन करने के अलावा गैर वैज्ञानिक अध्ययन या उन खबरों से कैसे जुड़ सकते हैं जिन्हें कोई शहर पढ़ता-सुनता है। वैज्ञानिक आम लोगों को अपने स्वास्थ्य की रक्षा करने में सहायता कैसे कर सकते हैं। इन दिनों आम लोगों में कोरोना वायरस को लेकर जिज्ञासा है तो वैज्ञानिकों में इसे समझने के लिए होड़ लगी हुई है। प्रयोग कैसे किए जाएं, डाटा कैसे एकत्र किए जाएं और विशेषज्ञों की समीक्षा के लिए पत्रिकाओं और जर्नल में प्रकाशन के लिए अध्ययन को भेजने की भी होड़ है। पहले जो महीनों में होता था वह अब हफ्तों में हो रहा है। हालत ऐसी हो गई है कि कुछ जर्नल को सामान्य से दूने अध्ययन मिल रहे हैं। दुनिया के सबसे खास रिसर्च प्रकाशनों में से एक, साइंस ने स्पाइकी प्रोटीन की संरचना प्रकाशित की थी। होस्ट (मेजबान) सेल में प्रवेश करने के लिए वायरस इसका प्रयोग करते हैं। वैक्सीन और एंटी वायरल दवा डिजाइन करने के लिए यह एक अहम जानकारी है।
पत्रिका के संपादक होल्डेन थॉर्प ने कहा कि उन्होंने इसे प्राप्त करने के बाद नौ दिन में छाप दिया था। उन्होंने कहा कि यह वही प्रक्रिया है जो अब बहुत तेजी से चल रही है। उनसे पूछा गया कि पत्रिका के 140 साल के इतिहास में क्या कोई ऐसा अन्य मामला है? उनका कहना था, किसी को याद नहीं है। इन दिनों विशेषज्ञों और आम लोगों के लिए भी भरोसेमंद स्वास्थ्य सलाह हासिल करना बहुत महत्वपूर्ण है और पहले कभी यह इतना चुनौतीपूर्ण नहीं रहा। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे सूचना का जबरदस्त प्रवाह कहा है और इस संबंध में जरूरत से ज्यादा सूचनाएं उपलब्ध हैं। बेशक कुछ सूचनाएं बिल्कुल सही हैं और कुछ नहीं और यही समस्या है। लोगों के लिए विश्वसनीय सूत्र तलाशना मुश्किल हो गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि इन दिनों सूचना की आवश्यकता हर किसी को है लेकिन सूचना कैसे हासिल की जाए इस संबंध में विश्वसनीय दिशानिर्देशन उपलब्ध नहीं है। हाल के हफ्तों में नए अनुसंधान सामने आए हैं और इससे फेस मास्क किसे पहनना चाहिए और किसे पहनने की जरूरत नहीं है या कब पहनना चाहिए जैसे बुनियादी सवालों का जवाब मुश्किल हो गया है।
शारीरिक दूरी बनाए रखना किस हद तक जरूरी है और कितना कामयाब है जैसे सवाल स्पष्ट नहीं है। मुख्य रूप से इसका कारण यही है कि वायरस कैसे फैलता है इसपर भी तरह-तरह की राय है। विज्ञान में वैसे भी सवाल उठते रहते हैं और इसी से हमारी समझ बेहतर होती है। ऐसे में सेंटर फॉर ओपन साइंस के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर ब्रायन नोसेक का यह कहना सही है कि मास्क से फायदा होता है या नहीं – जैसे सवाल का जवाब देना कभी भी आसान नहीं रहा। आप इसका जवाब हां या नहीं में नहीं दे सकते हैं। इससे समझने के लिए यह जानना होगा कि मास्क किन स्थितियों में प्रभावी होता है। ऐसे में पूछे जाने वाले सवालों के जवाब हमेंशा उस समय उपलब्ध सबूतों के कारण ज्यादा उलझे हुए होते हैं। पर लोगों को निष्कर्ष चाहिए होता है और साइंटिफिक पत्रिकाओं की भूमिका को लेकर इसीलिए लंबे समय से तनाव रहा है। भारत में साइंस की पत्रिकाओं की चर्चा आम पाठकों में नहीं के बराबर होती है।
न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित रिपोर्ट के आधार पर
प्रस्तुति- संजय कुमार सिंह